सूखी पत्तियों के सदुपयोग की जरूरत
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तो बड़े सख्त लहजे में कहा है कि पेड़ों से गिरने वाली पत्तियों को जलाना दंडनीय अपराध है व प्रशासनिक अमला यह सुनिश्चित करे कि आगे से ऐसा न हो.
सूखी पत्तियों के सदुपयोग की जरूरत (फाइल फोटो) |
हालांकि इस बारे में समय-समय पर कई अदालतें व महकमे आदेश देते रहे हैं, लेकिन कानून के पालन को सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं के पास इतने लोग व संसाधन हैं ही नहीं कि इसका शत-प्रतिशत पालन करवाया जा सके. बीते दिनों लुटियन दिल्ली में एक सांसद की सरकारी कोठी में ही पत्ती जलाने पर मुकदमा कायम हुआ है. कई जगह तो नगर को साफ रखने का जिम्मा निभाने वाले स्थानीय निकाय खुद ही कूड़े के रूप में पेड़ से गिरी पत्तियों को जला देते हैं. असल में पत्तियों को जलाने से उत्पन्न प्रदूषण तो खतरनाक है ही, सूखी पत्तियां कई मायने में बेशकीमती हैं व प्रकृति के विभिन्न तत्वों का संतुलन बनाए रखने में उनकी महती भूमिका है.
बस्तर का कोंडागांव केवल नक्सली प्रभाव वाले क्षेत्र के तौर पर ही सुर्खियों में रहता है, लेकिन यहां डॉ. राजाराम त्रिपाठी के जड़ी-बूटियों के जंगल इस बात की बानगी हैं कि सूखी पत्तियां कितने कमाल की हैं. डॉ. त्रिपाठी काली मिर्च से लेकर सफेद मूसली तक का उत्पादन करते हैं व पूरी प्रक्रिया में किसी भी किस्म की रासायनिक खाद, दवा या अन्य तत्व इस्तेमाल नहीं करते हैं. गर्मियों के दिनों में उनके कई एकड़ में फैले जंगलों में साल व अन्य पेड़ों की पत्तियों पट जाती हैं. बीस दिन के भीतर ही वहां मिट्टी की परत होती है. असल में उनके जंगलों में दीमक को भी जीने का अवसर मिला है और ये दीमक इन पत्तियों को उस ‘टाप सॉइल’ में बदल देते हैं जिसे उपजाने में प्रकृति को सदी लग जाती है. वहीं यदि पत्तियों को जलाया जाए तो वे जहर उगलने लगती हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट दिसम्बर 1997 में ही आदेश पारित कर चुका था कि चूंकि पत्तियों को जलाने से गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहा है अत: इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जाए. अदालती आदेश कहीं ठंडे बस्ते में गुम हो गया और पिछले दिनों यह बात सामने आई कि दिल्ली एनसीआर की आबोहवा इतनी दूषित हो चुकी है कि पांच साल के बच्चे तो इसमें जी ही नहीं सकते हैं. दस लाख से अधिक बच्चे हर साल सांस की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. प्रदूषण कम करने के विभिन्न कदमों में हरित न्यायाधिकरण ने पाया कि महानगर में बढ़ रहे पीएम यानी पार्टीकुलेट मैटर का 29.4 फीसद कूड़ा व उसके साथ पत्तियों को जलाने से उत्पन्न हो रहा है.
पेड़ की हरी पत्तियों में मौजूद क्लोरोफिल यानी हरा पदार्थ, वातावरण में मौजूद जल-कणों या आद्र्रता को हाइड्रोजन व आक्सीजन में विभाजित कर देता है. हाइड्रोजन वातावरण में मौजूद जहरीली गैस कार्बनडाय आक्साइड के साथ मिलकर पत्तियों के लिए शर्करायुक्त भोजन उपजाता है. जबकि आक्सीजन तो प्राण वायु है ही. जब पत्तियों का क्लोरोफिल चुक जाता है तो उनका हरापन समाप्त हो जाता है और वे पीली या भूरी पड़ जाती हैं. हालांकि यह पत्ती पेड़ के लिए भोजन बनाने के लायक नहीं रह जाती है लेकिन उसमें नाइट्रोजन, प्रोटीन, विटामिन, स्टार्च व शर्करा आदि का खजाना होता है. ऐसी पत्तियों को जब जलाया जाता है तो कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन व कई बार सल्फर से बने रसायन उत्सर्जित होते हैं. इसके कारण वायुमंडल की नमी और आक्सीजन तो नष्ट होती ही है, दम घोटने वाली गैस वातावरण को जहरीला बना देती हैं.
यदि केवल एनसीआर की हरियाली से गिरे पत्तों को धरती पर यूं ही पड़ा रहने दें तो जमीन की गर्मी कम होगी, मिट्टी की नमी घनघोर गर्मी में भी बरकरार रहेगी. यदि इन पत्तियों को महज खेतों में दबा कर कंपोस्ट खाद में बदल लें तो लगभग 100 टन रासायनिक खाद का इस्तेमाल कम किया जा सकता है. इस बात का इंतजार करना बेमानी है कि पत्ती जलाने वालों को कानून पकड़े व सजा दे. इससे बेहतर होगा कि समाज तक यह संदेश भलीभांति पहुंचाया जाए कि सूखी पत्तियां पर्यावरण-मित्र हैं और उनके महत्व को समझना, संरक्षित करना सामाजिक जिम्मेदारी है.
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