क्रिकेट की साख बहाली का सवाल

Last Updated 01 Aug 2015 05:51:19 AM IST

क्रिकेटर श्रीसंत सहित आईपीएल में मैच फिक्सिंग के सभी 36 आरोपी बाइज्जत बरी हो गए हैं.


क्रिकेट की साख बहाली का सवाल.

इस केस को देखकर लगता है कि एक बार फिर कानून की कमजोरी के कारण इंसाफ हार गया. दो बरस पहले जब दिल्ली पुलिस ने राजस्थान रॉयल्स के खिलाड़ी श्रीसंत, अंकित चव्हाण और अजीत चंदेला को स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में पकड़ा तो पूरे देश में हंगामा मच गया था. इसके बाद ही बीसीसीआई के तत्कालीन अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के दामाद और चेन्नई सुपर किंग्स के पदाधिकारी गुरु नाथ मयप्पन को सट्टेबाजी के आरोप में गिरफ्तार किया गया. फिर राजस्थान रॉयल्स के मालिक राज कुंद्रा भी इसी अपराध में लिप्त पाए गए. आज चेन्नई और राजस्थान की टीमें दो-दो वर्ष का प्रतिबंध झेल रही हैं, मयप्पन व कुंद्रा को क्रिकेट गतिविधियों से आजीवन अलग कर दिया गया है तथा श्रीनिवासन को बोर्ड अध्यक्ष की कुर्सी गंवानी पड़ी है. किंतु कानून की कमजोरी और दिल्ली पुलिस की ढिलाई की वजह से सबसे पहले पकड़े गए सारे आरोपी रिहा हो गए हैं.

अब खिसियाई दिल्ली पुलिस हाईकोर्ट में अपील की बात कर रही है. मन ही मन अदालती आदेश से प्रसन्न बीसीसीआई के पदाधिकारी गोल-मोल बात कर रहे हैं और बरी हुए खिलाड़ी सीना ठोककर अपनी बेगुनाही की मुनादी पीट रहे हैं. ऐसे में सच की तह तक जाना जरूरी है. सबसे पहले अदालती आदेश को लिया जाए जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि मौजूदा किसी कानून में मैच फिक्सिंग अपराध नहीं है. अदालत की राय में इसके लिए अलग से कानून बनाया जाना चाहिए. केस पब्लिक गैंबलिंग एक्ट (सार्वजनिक स्थल पर जुआ खेलने) के तहत तो बन सकता था लेकिन न्यायालय को प्रथम दृष्टया इस कानून में दायर पुलिस चार्जशीट कमजोर दिखी. आरोपियों पर मकोका लगाया गया, जिसे अदालत ने सिरे से नामंजूर कर दिया. ये तथ्य जानने के बाद कहा जा सकता है कि श्रीसंत और उनके साथी कानून की कमजोरी, प्रमाणों के अभाव और पुलिस की ढील के कारण बरी हुए हैं. यह दावा नहीं किया जा सकता कि खिलाड़ियों ने फिक्सिंग नहीं की.

इतिहास के पन्ने पलटने पर साफ नजर आता है कि हमारे देश में मैच फिक्सिंग के आरोप में आज तक किसी खिलाड़ी को सजा नहीं हुई, जबकि क्रिकेट में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग का धंधा बरसों से चल रहा है. सन् 2000 में दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हेंसी क्रोनिए और उसके साथी खिलाड़ियों हर्शल गिब्स व निकी बोए पर जब भारतीय सट्टेबाजों से पैसा खाने का खुलासा हुआ तो तूफान खड़ा हो गया था. फिर तत्कालीन भारतीय कप्तान अजहरुद्दीन, प्रभाकर, जडेजा और अजय शर्मा भी ऐसे ही आरोपों की चपेट में आए. दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ियों के खिलाफ तो पुलिस एक दशक बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई. पर्याप्त प्रमाण न होने के कारण अजहर सहित चारों भारतीय खिलाड़ी भी बरी हो गए. इसके बाद चुनाव जीतकर अजहर तो संसद की शोभा भी बढ़ा चुके हैं. क्रिकेट के खेल को करीब से जानने वाले हर शख्स को पता है कि इसके प्रत्येक मैच पर करोड़ों का सट्टा लगता है. हार-जीत तय करने के लिए मैच फिक्स होते हैं. इस धंधे में बड़े-बड़े लोग शामिल हैं. खिलाड़ी तो सट्टेबाजी की दुनिया के सबसे छोटे प्यादे हैं.

निश्चय ही अपनी इज्जत बचाने के लिए दिल्ली पुलिस उच्च न्यायालय में अपील करेगी. हो सकता है कि कुछ अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई भी की जाए. लेकिन इससे उसकी साख को पहुंची क्षति की भरपाई कठिन है. न ही इससे जनता के मन में क्रिकेट खिलाड़ियों और पदाधिकारियों के प्रति उपजा अविास और आक्रोश कम होगा. फिलहाल फिक्सिंग और सट्टेबाजी के काले कारनामों की जांच सुप्रीम कोर्ट कर रहा है. अदालत के आदेश पर गठित मुद्गल समिति और लोढ़ा पैनल कई लोगों को दोषी ठहरा चुके हैं. गत वर्ष मुद्गल समिति ने 13 संदिग्ध खिलाड़ियों के नाम एक बंद लिफाफे में अदालत को सौंपे थे जिन्हें सार्वजनिक किए जाने की मांग लंबे समय से की जा रही है. ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि ताजा बरी खिलाड़ी और सट्टेबाज निर्दोष हैं?



जब से सुप्रीम कोर्ट की नजर तिरछी हुई है तब से बीसीसीआई अपनी साख बहाली के लिए छुटपुट कदम उठा रहा है. हितों के टकराव के आरोपों से बचने के लिए हाल ही में उसने अपने सदस्यों और राज्य इकाइयों के सभी पदाधिकारियों और सदस्यों को एक शपथ पत्र भरने का आदेश दिया है, जिसका दबी जुबान में विरोध हो रहा है. इस हलफनामे में हर व्यक्ति को बताना होगा कि क्रिकेट से जुड़ी किसी गतिविधि जैसे- टीम, प्रायोजक, खिलाड़ी आदि से उसका कोई व्यावसायिक रिश्ता नहीं है. फिलहाल हर राज्य इकाई में ऐसे लोग हैं जो क्रिकेट से जुड़े धंधों से मोटी कमाई कर रहे हैं. यह देखना होगा कि उन पर कैसे अंकुश लगाया जाएगा.
 
दो बरस पहले आईपीएल में मैच फिक्सिंग तथा सट्टेबाजी के खुलासे के बाद से इस काले कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए अलग कानून लाने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है. सरकार ने एक समिति बनाई थी जिसने एक नए कानून ‘प्रिवेंशन ऑफ स्पोर्टिंग फ्रॉड बिल’ की रूप-रेखा तैयार की है. विभिन्न मंत्रालयों से होकर यह बिल अब न्याय विभाग पहुंच चुका है. आशा है कि कैबिनेट की मंजूरी के बाद जल्द ही इसे सदन के पटल पर रखा जाएगा. वैसे पंद्रह वर्ष पहले जब दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हेंसी क्रोनिये पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था तब 2001 में ‘प्रिवेंशन ऑफ डिसआनेस्टी इन स्पोर्ट्स बिल’ तैयार किया गया था, किंतु कुछ दिन बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. नया बिल बहुत कुछ पुराने प्रस्तावित कानून की नींव पर खड़ा है.

प्रस्तावित बिल में मैच फिक्सिंग या सट्टेबाजी का अपराध सिद्ध हो जाने पर पांच वर्ष के कारावास और 10 लाख रुपए तक जुर्माने का प्रावधान है. इसमें अपराध की सूचना देने वाले को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था भी है. जिस तेज गति और बड़े पैमाने पर खेलों में फिक्सिंग और सट्टेबाजी का कैंसर फैल रहा है, यह कानून जल्द से जल्द पारित होना जरूरी है.

देश भर के खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके चुनाव निष्पक्ष कराने के लिए मनमोहन सरकार ने स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल पारित कराने का विफल प्रयास किया था. इस बिल में बीसीसीआई को आरटीआई के तहत लाने का प्रावधान भी था, जिसका तत्कालीन कैबिनेट के करीब आधा दर्जन मंत्रियों ने कड़ा विरोध किया. ये सभी मंत्री बीसीसीआई से जुड़े थे और किसी भी सूरत में उसको जवाबदेही और पारदर्शिता की जद में लाने को राजी नहीं थे. अन्य बातों के अलावा इस बिल में खेल संगठनों के पदाधिकारियों की आयु सीमा और कार्यकाल भी तय कर दिया गया था. निरंतर घोटालों की चपेट में रहने और सुप्रीम कोर्ट की वक्र दृष्टि के चलते आज बीसीसीआई कमजोर पड़ चुका है. यदि सरकार पुराना स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल ले आए तो उसका खुलेआम विरोध करने का साहस शायद ही कोई नेता कर पाए. वैसे भी क्रिकेट के ठेकेदारों और इससे लाभ उठाने वाली जमात की फौरी चिंता लोढ़ा पैनल से होने वाले संभावित घाटे की भरपाई पर केंद्रित है, जबकि आम जनता देश के सबसे लोकप्रिय खेल की साख को पहुंची अपूरणीय क्षति को लेकर व्यथित है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

 

 

धर्मेंद्रपाल सिंह
लेखक


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