कृषि संकट का उपाय आग्रेनिक खेती

Last Updated 01 Aug 2015 04:36:49 AM IST

विकट हो रहे किसानी संकट से बाहर निकलने में अनेक गांवों में आग्रेनिक खेती से मदद मिली है.


कृषि संकट का उपाय आग्रेनिक खेती

खर्च कम करने में, मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन सुधारने के साथ-साथ बेहतर गुणवत्ता के उत्पादन में यह बहुत उपयोगी है. हाल ही में भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व क्षेत्र को आग्रेनिक खेती का एक मुख्य केंद्र बनाने की योजना सामने रखी है. इससे पहले सिक्किम में तो पूरी तरह आग्रेनिक खेती अपनाने का महवपूर्ण निर्णय लिया गया. कुछ स्थानों पर आग्रेनिक खेती के प्रसार को अब आदर्श ग्राम योजना से भी जोड़ा जा रहा है. इसके अतिरिक्त देश के अनेक क्षेत्रों में आग्रेनिक खेती के सफल प्रयोगों के परिणाम सामने आ रहे हैं.

आग्रेनिक खेती के महत्व को नए सिरे से पहचानने का एक बड़ा कारण यह है कि पांच दशकों तक रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं पर तेजी से बढ़ती निर्भरता के दुष्परिणाम अब बहुत स्पष्ट हो चुके हैं. यही वजह है कि बहुत से किसानों को जब अनुकूल अवसर मिलते हैं तो वे कई स्तरों पर आग्रेनिक खेती को आजमाना चाहते हैं.

इतना ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध आंकड़े अब यह स्पष्ट बता रहे हैं कि लगभग 50 वर्ष पहले कैमिकल फर्टिलाइजर व पैस्टीसाइड के तेजी से बढ़ते उपयोग पर आधारित जिस कृषि नीति का बहुप्रचार किया गया था, उससे वास्तव में उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई. बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में हरित क्रांति से पहले के 15 वर्षो और बाद के 12 वर्षो में उत्पादकता वृद्धि के विस्तृत आंकड़े दिए गए हैं. इनसे आश्चर्यजनक रूप से यह स्पष्ट होता है कि हरित क्रांति से 15 वर्षो के बाद खर्च तो बहुत तेजी से बढ़ा, पर उत्पादकता में वृद्धि की दर हरित क्रांति के पहले के 15 वर्षो में कुछ अधिक तेजी से बढ़ी.

औसत वाषिर्क उत्पादकता वृद्धि के आंकड़े बताते हैं कि चावल में उत्पादकता वृद्धि पहले 3.2 प्रतिशत थी, जबकि बाद के दौर में यह 2.7 प्रतिशत थी. गेहूं की उत्पादन वृद्धि पहले 3.7 प्रतिशत थी, जबकि बाद के 12 वर्ष में यह 3.3 प्रतिशत थी. मक्के की उपज वृद्धि पहले 4.8 प्रतिशत थी और बाद में यह 1.7 प्रतिशत थी. दलहन की वृद्धि हरित क्रांति के पहले के दौर में 2.3 प्रतिशत थी, जबकि बाद में वृद्धि के स्थान पर यह माइनस 0.2 प्रतिशत हो गई यानी घट गई. तिलहन, कपास व ज्वार के उत्पादन में भी गिरावट आई. गन्ने व बाजरे के उत्पादन में जरूर बाद के 12 वर्षो में उत्पादकता अधिक पाई गई, पर कुल मिलाकर पलड़ा हरित क्रांति के पहले के 15 वर्षो में भारी रहा.

यदि फसल की मात्रा न देखकर उत्पादन मूल्य में वृद्धि के आंकड़ों को देखा जाए तो भी पहले दौर में अनाज, दलहन, तिलहन, कपास आदि मुख्य फसलों में पहले 15 वर्षो का पलड़ा भारी रहा, जबकि सब्जी व फल के उत्पादन मूल्य की वृद्धि बाद के 12 वर्षो में अधिक हुई. दूसरी ओर जहां तक खर्च का सवाल है तो पहले 15 वर्षो की अपेक्षा बाद के 12 वर्षो में रासायनिक खाद की खपत लगभग छह गुना बढ़ गई व कीटनाशक में वृद्धि इससे भी कहीं अधिक थी.

ये सरकारी आंकड़े अब इस वैज्ञानिक सचाई की पुष्टि करते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक के अधिक उपयोग से भूमि के प्राकृतिक उपजाऊपन में कई तरह से गिरावट आती है. आसपास के पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है जो आगे चलकर उत्पादकता में और गिरावट का कारण बनता है. भूजल पर भी उसका बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है. कई मित्र कीटों व पक्षियों, विशेषकर मधुमक्खियों व तितलियों पर जहरीले कीटनाशकों का बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है. इसका पौधे व फसल पर भी प्रतिकूल असर होता है.

हरित क्रांति के दौर में ऐसे बीज तेजी से फैलाए गए जिनके पौधों में अधिक रासायनिक खाद सहन करने की क्षमता हो. यदि केवल दो मुख्य खाद्य फसलों गेहूं व धान को देखें तो मात्र इन दो फसलों में नई हरित क्रांति की किस्मों को मात्र 14 वर्षो में 330 लाख हेक्टेयर में फैला दिया गया. इतनी तेजी से किसी नई तकनीक के फैलने का यह इतिहास में विशिष्ट उदाहरण है. इन नए बीजों से जो तकनीकें जुड़ी थीं, वे इससे पूर्व के बीजों से बहुत अलग थीं. जहां पहले बहुत विविधता वाले बीज किसानों के पास थे, वहीं नए बीजों का जेनेटिक आधार बहुत सीमित था और इस कारण इनमें कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप अधिक तेजी से फैलने की पूरी संभावना थी.

इस कड़वी सचाई को चावल के संदर्भ में भारत के शीर्ष के कृषि वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति के आरंभिक दौर में स्वीकार कर लिया था. ऐसे अनेक वैज्ञानिकों की एक टास्क फोर्स ने स्वीकार किया था कि चावल की नई किस्मों का जेनेटिक आधार बहुत कम है व इनमें अनेक हानिकारक कीड़ों व बीमारियों का प्रकोप बहुत बढ़ा है.
इन गंभीर समस्याओं के बावजूद चूंकि सरकारी कृषि तंत्र ने अपनी पूरी ताकत हरित क्रांति के प्रसार में लगा दी थी, अत: इस तकनीक का प्रसार तेजी से होता रहा जिससे एक बड़े क्षेत्र में बहुमूल्य जैव-विविधता वाले परंपरागत बीज पूरी तरह लुप्त हो गए. इन परंपरागत बीजों से जुड़ा हुआ ज्ञान बुजुर्ग शताब्दियों से नई पीढ़ी को देते आए थे, वह ज्ञान भी तेजी से लुप्त होने लगा. कई शताब्दियों से व कुछ क्षेत्रों में तो हजारों वर्षो से जो परंपरागत ज्ञान व बीज एकत्र हुए थे वे महज 50 वर्षो में बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए थे.

यदि आग्रेनिक खेती को आगे बढ़ाना है तो उसे लुप्त हुए इस समृद्ध परंपरागत ज्ञान व बीजों से बहुत कुछ सीखना पड़ेगा. 50 वर्ष पहले हमारी अधिकांश खेती आग्रेनिक खेती ही थी. अत: आग्रेनिक खेती का कहीं बेहतर ज्ञान उस समय उपलब्ध था. आग्रेनिक खेती के लिए बहुत विविधता भरे व स्थानीय जलवायु के अनुकूल बीज उस समय उपलब्ध थे. इनमें से कई बीज अभी जीन-बैंकों में तो उपलब्ध हैं, पर किसानों के खेतों में उपलब्ध नहीं हैं. इन बीजों के संरक्षण के किसान-आधारित प्रयास तेज होने चाहिए व व्यापक स्तर पर होने चाहिए.

आग्रेनिक खेती को आगे बढ़ाने के लिए परंपरागत ज्ञान व आधुनिक विज्ञान, दोनों की जरूरत है. आधुनिक विज्ञान को किसानों की जरूरतों को ध्यान से समझना होगा. भारत के अधिकांश किसान छोटे किसान हैं. उनका खर्च कम रखना व उन्हें कर्ज से बचाना जरूरी है. अत: ऐसी तकनीक आधारित आग्रेनिक खेती बढ़ानी चाहिए जो गांव में उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग कर उनकी आत्मनिर्भरता को मजबूत करे.

भारत डोगरा
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