आलू-प्याज का भाव

Last Updated 01 Aug 2015 04:23:46 AM IST

किसी ने सच ही कहा है कि विरोधियों को विरोध करने का बहाना चाहिए. सच पूछिए तो बहुत से विरोध करने वाले तो बहाना मिलने का भी इंतजार नहीं करते हैं.


आलू और प्याज का भाव फिर बढ़ा (फाइल फोटो)

बहाने के मामले में भी आत्मनिर्भरता दिखाते हैं और अपने बहाने खुद गढ़कर दिखाते हैं. खैर! अगर बहाना भी मिल जाए, फिर तो कहना ही क्या? वर्ना प्याज ने ऐसा कोई गजब नहीं कर दिया है, जो भाई लोगों ने मार चीख-पुकार शुरू कर दी है. बेचारे प्याज ने जरा-सी नजरें ही तो टेढ़ी की हैं. छलांग लगाई भी है तो भी अभी पचास-साठ रुपए का आंकड़ा ही तो पार किया है. सैकड़ा अज दूरस्त. कोई भी चुनाव और भी दूर है. बिहार का चुनाव तक. फिर भी पता नहीं क्यों मीडियावाले भी विरोधवालों के बहकावे में आ गए हैं और पुराने किस्से सुना-सुनाकर कमजोर दिलवालों को डरा रहे हैं. प्याज के तेवरों में बड़ा जोर होता है. उसके तेवर गृहणियों के ही नहीं, राज करने वालों तक के आंसू निकलवा देते हैं? प्याज के भाव सरकारें तक बदलवा देते हैं, वगैरह, वगैरह. उससे तड़के-वड़के में जायजा आ जाता है, सो तो ठीक है. गोल-मटोल होती है, सो भी ठीक है. रंग में ललाई होती है, वह भी अच्छी बात है. फिर भी प्याज आखिरकार है तो एक बदबूदार शै ही. सुना है कि विदेशी भी है. ऐसी चीज को इतना भाव देना, कम से कम राष्ट्रभक्ति नहीं है!

फिर सिर्फ प्याज वगैरह के भाव खाने को महंगाई बढ़ने का सबूत कैसे बताया जा रहा है. यह तो सरासर अन्याय है. अच्छे दिन चाहे आए हों या नहीं आए हों, पर महंगे दिन तो न जाने कब के लद चुके हैं. महंगाई का जमाना खत्म होकर, सस्ताई का लग चुका है. सरकार की न मानो तो महंगाई के आंकड़ों से पूछ लो! आंकड़ों में महंगाई लगातार घट रही है. माना कि खाने-पीने की चीजों के दाम घटने की अभी नौबत नहीं आई है. कभी दाल, तो कभी दूध, तो कभी चीनी, आए दिन कोई न कोई चीज अपने भाव भी दिखाती रहती है. अब प्याज दिखा रही है, तो कोई नई बात नहीं है. लेकिन सस्ताई का जमाना ऐसी मामूली चीजों के भाव देखता नहीं बैठा रहेगा. वह तो बाकायदा आ चुका है, बल्कि चौकड़ी जमा कर बैठ चुका है.

गाड़ी ले लो, कंप्यूटर ले लो, हवाई यात्रा ले लो, शैफर का कलम, नाइकी का बूट, कुछ भी ले लो. सब कुछ सस्ता है. और तो और किसानों का तो आलू-प्याज भी सस्ता ही है. बस खाने वाला बनकर खरीदने जाओ, तो ही भाव दिखाने लगता है. खैर! इतनी सस्ती चीजें छोड़कर पब्लिक अगर खाने-पीने की ज्यादा भाव दिखाने वाली चीजों के ही पीछे भागना चाहे, तो उसकी मर्जी. डैमोक्रेसी है भाई, किसी को ज्यादा भाव दिखाने वाले प्याज के पीछे भागने से रोक थोड़े ही सकते हैं. यहां-वहां मांस के मामले में रोकने पर तो इतना बवाल हो रहा है. खान-पान से लेकर संस्कृति तक में तानाशाही चलाने के आरोप लग रहे हैं. प्याज के पीछे भागने से रोककर कौन आफत मोल लेगा? पर इतना तय है कि अकेले प्याज वगैरह का भाव दिखाना, सस्ते के जमाने का भाड़ नहीं फोड़ सकता है.

वैसे भी सुना है कि प्याज सबसे ज्यादा भाव दिल्ली में दिखा रही है. देश की राजधानी है भाई, यहां तो हरेक अपने को तुर्रम खां समझता है. हरेक ही भाव खाता है. प्याज भी भाव खा रहा है तो इसमें अचरज की कौन-सी बात है. वैसे भी दिल्ली में उनकी सरकार थोड़े ही है, जो देश भर में सस्ते का जमाना लाए हैं. काम करने वालों और परेशान करने वालों के झगड़े का फायदा उठाकर अगर दिल्ली में प्याज ज्यादा ही भाव दिखा रही है, तो इसमें देश की सरकार का क्या कसूर? कौन जाने परेशान किए जाने की शिकायत करने वालों ने ही प्याज को भाव दिखाने के लिए उकसा दिया हो. पब्लिक की आखों में आंसू आएंगे तो, देश का राज चलाने वाले कब तक बचे रहेंगे? खैर! अगर यह षड्यंत्र का मामला न भी हो तब भी केजरी सरकार के निकम्मेपन का मामला तो हो ही सकता है. जंग से जंगबंदी हो, तब तो प्याज के भाव के खिलाफ जंग छेड़ पाएंगे! अभी तक तो ये है कि हम दाम कम करते रहे, वो बदनाम करते रहे.

एक जमाना था जब लोग आटे-दाल का भाव पूछा-बताया-सिखाया करते थे. अब आलू-प्याज का भाव पूछा-बताया-सिखाया जा रहा है. हम तो इसे तरक्की की ही निशानी मानेंगे. पता नहीं क्यों फिर भी लोग अच्छे दिनों के न आने की शिकायत किए जा रहे हैं और प्याज के भाव सुनकर घबरा रहे हैं. इब्तिदा ए इश्क है रोता है, आगे-आगे देखिए महंगा होता है क्या!

 

कबीरदास


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