फिसड्डी साबित होते उच्च शिक्षण संस्थान

Last Updated 31 Jul 2015 02:03:56 AM IST

भारत के उच्च शिक्षा संस्थान अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इतने फिसड्डी क्यों साबित होते रहे हैं.


फिसड्डी साबित होते उच्च शिक्षण संस्थान

ताजा समाचार के मुताबिक दुनिया के तीन सौ शीर्ष विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय नहीं है. ऊपरी दस विश्व विद्यालयों में सिर्फ अमेरिकी और ब्रिटिश विश्वविद्यालय हैं. यह तय करने का पैमाना शिक्षा का स्तर तथा शोध की गुणवत्ता, शोध का स्तरीय जर्नल में प्रकाशित होना या आविष्कारों की नींव रखना या शोधों को बाकी विद्वानों द्वारा उद्धृत करना है. यह सच्चाई पहली बार सामने नहीं आयी है. एकेडेमिक रैंकिंग आफ वर्ल्ड यूनिवर्सिटीज की तरफ से दुनिया के अग्रणी 500 शिक्षा संस्थानों की जो सूची नियमित तौर पर जारी होती है, उस पर निगाह डालें. कुछ साल पहले की बात है जब उसमें यह रैंकिंग शुरू की गयी है और हमारे एक भी आईआईटी को इसमें स्थान नहीं मिल सका था. प्रस्तुत सूची को शंघाई स्थित जियाओ टोंग विश्वविद्यालय द्वारा जारी किया जाता है.

इस एकेडेमिक रैंकिंग में प्रस्तुत शिक्षा संस्थान के वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं स्थायित्व पर फोकस किया जाता है. 2003 से इसमें आईआईटी खड़गपुर को स्थान मिलता रहा है, मगर वह हर साल निचले पायदान पर लुढ़कता रहा है. ज्ञात हो कि आईआईटी खडगपुर के अलावा सिर्फ एक दफा आईआईटी दिल्ली को इसमे स्थान मिल सका है. पूरी दुनिया में सम्मानित इस रैंकिंग का आधार अकादमिक संस्थान से निकले छात्रों द्वारा नोबेल पुरस्कार हासिल करने, 21 अलग-अलग विषयों में संस्थान से सम्बद्ध लोगों द्वारा किए गए अनुसन्धान के जगह-जगह उद्धृत होने, नेचर एंड साइंस जैसी अग्रणी पत्रिकाओं में आलेखों को प्रकाशित करने आदि सूचकांको पर आधारित होता है.

सवाल है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनी हुई है? ऐसा प्रतीत होता है कि इस मसले पर कोई गंभीरता से विचार करने को तैयार ही नहीं है. पिछले दिनों आईटी क्षेत्र के दिग्गज तथा इंफोसिस के निदेशक नारायण मूर्ति ने जब बंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के दीक्षान्त समारोह में भाषण देते हुए बेबाक ढंग से भारत में विज्ञान एवं वैज्ञानिक शोधों के प्रति उदासीनता संबधी बात रखी और जब कहा कि अपने यहां पिछले साठ सालों में कोई महत्वपूर्ण खोज नहीं हुई है, तब एक मुखर हिस्से से जो प्रतिक्रिया आयी वह काफी कुछ कहती है.  अमेरिका के मैसेच्युएट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी (एमआईटी) की ओर से प्रकाशित एक किताब फ्राम आइडियाज टू इन्वेनन्स: 101 गिफ्ट्स फ्राम एमआईटी टू द वर्ल्ड का उल्लेख करते हुए उन्होंने उपरोक्त संस्थान द्वारा पिछले पचास वर्षों में दस प्रमुख खोजों का जिक्र किया, जिन्होंने दुनिया की तस्वीर बदल दी. इसमें ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम, बायोनिक प्रोस्थेनिस, माइक्रो चिप, ईमेल, फैक्स मशीन, साइबरनेटिक्स आदि का वर्णन था.

उनका कहना था कि आखिर अधिकतर वैज्ञानिक खोजों में पश्चिमी विश्वविद्यालयों का ही हाथ क्यों होता है. आखिर भारतीय विज्ञान संस्थान तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान का हमारे समाज और दुनिया को बेहतर बनाने में क्या योगदान रहा है? उन्होंने कहा कि हमारे युवाओं ने कोई प्रभावशाली अनुसन्धान कार्य नहीं किया जबकि बुद्धिमत्ता और ऊर्जा में वे पश्चिमी विश्वविद्यालयों के अपने समकक्षों के बराबर हैं. यह भी देखें कि आखिर यहीं का विद्यार्थी पश्चिम के विश्वविद्यालयों में जाकर अच्छा काम कैसे कर लेता है? अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश अपने यहां के छात्रों को मेहनत करने के लिए प्रेरित करने के लिए भारत एवं चीन के छात्रों की मिसाल देते थे.

नारायणमूर्ति का सवाल दो टूक और खरा था जिनका जवाब खोजा जाना चाहिए था. हालांकि कुछ लोगों ने इस मसले पर आत्मपरीक्षण करने के बजाए इस स्थिति के लिए खुद नारायणमूर्ति को ही जिम्मेदार ठहराया है, क्योंकि उन्होंने समाज के मेधावी तबके को अपनी ओर आकषिर्त किया है, जिसकी वजह से भी ऐसी स्थिति आ पड़ी है. लेकिन मान लें कि इन्फोसिस ने कुछ हजार मेधावी युवाओं को अपनी ओर आकषिर्त किया, मगर 120 करोंड आबादी के मुल्क में जहां सैकड़ों विश्वविद्यालय हैं एवं हजारों कॉलेज हैं, जहां हर साल लाखों छात्र प्रवेश लेते हैं, इस पहेली का समाधान नहीं निकलता.

उन्होंने अपनी तरफ से इस समस्या का निदान पेश किया था, जिसके लिए उन्होंने कोचिंग संस्थानों को जिम्मेदार ठहराया था. उनका कहना था कि ऐसे संस्थान छात्रों को प्राब्लम सॉल्विंग अर्थात विशिष्ट सवालों को हल करने की तकनीक से लैस करते हैं, मगर वह उनमें स्वतंत्र चिन्तन कैसे विकसित हो, इस पर जोर नहीं देते हैं. उनके मुताबिक इस स्थिति में तभी फर्क डाला जा सकता है, जब इन्हें महज शिक्षण संस्थान नहीं बल्कि अच्छे अनुसन्धान संस्थान में तब्दील करने के लिए विशेष कार्ययोजना बनेगी. उन्होंने यह सलाह भी दी कि पूर्व स्नातक स्तर पर ही अनुसन्धान पर उचित जोर दिया जाना चाहिए.

जिस एमआईटी का उल्लेख नारायणमूर्ति ने अपने व्याख्यान में किया था, उसके बारे में कोई यह कह सकता है कि वह अमेरिका में है जहां बहुत संसाधन हैं, लेकिन मसला सिर्फ संसाधनों का ही नहीं बल्कि अहमियत देने का भी है तभी उसमें सरकार निवेश करेगी. एक जानकार जिन्होंने वहां अध्ययन किया है बता रहे थे कि संस्थान में किस तरह छात्र अनुकूल वातावरण निर्मित किया गया है. जैसे, वहां परिसर में जगह-जगह बड़े-बडे बोर्ड लगे हैं. इसलिए कि यदि आपके दिमाग में कोई आइडिया आया हो या कुछ काम किया तो कहीं भी खड़े होकर लिख सकते हैं, किसी सहपाठी को बिठा कर चर्चा शुरू कर सकते हैं या कोई समकक्ष प्रोफेसर खुद ही छात्र की तरह बैठ सकता है जानने-सुनने के लिए और अपनी बात जोड़ने के लिए.

लेकिन अगर अपने देश के शिक्षा संस्थानों, विश्वविद्यालयों का वातावरण देखें तो विचार-विमर्श के अवसर देने का कोई प्रयास या माहौल यहां नहीं दिखता. जो जानना सीखना है, क्लास में या फिर सेमिनारों में बोलें. शिक्षा संस्थानों का वातावरण ऐसा होता है कि अध्यापक एवं छात्र के बीच इस तरह दूरी बना कर रखी जाती है जो उच्च -निम्न अनुक्रम पर आधारित होती है और आम तौर पर छात्र शंकाओं को अधिक साझा नहीं करता क्योंकि अधिक सवाल पूछने वाले छात्र के प्रति अच्छा एप्रोच नहीं होता है. पाठ्येतर गतिविधियां जो जानने-सीखने-समझने के दूसरे तरीके के तौर पर प्रयुक्त होती हैं, उन पर एक तरह का अनौपचारिक प्रतिबन्ध कायम है. विश्वविद्यालय या कॉलेजों में ऐसे स्थान लगभग अनुपस्थित हैं.

यही नहीं, विज्ञान कांग्रेस में कुछ समय पहले जिस तरह विज्ञान और शोध संदर्भ में दुनिया भर में हंसी का सबब बने पौराणिक आख्यानों से संबंधित पेपर्स को स्थान दिया गया, वह बात किसी से छिपी नहीं है. सवाल है कि जिस देश-समाज में आस्था, अंधविश्वास को महिमामंडित किया जाता है, वहां तार्किक प्रश्न पूछने की संस्कृति कैसे पनप सकती है, जो ज्ञान-विज्ञान की बुनियादी शर्त है. तार्किकता एवं वैज्ञानिक चिन्तन का अभाव न केवल पढ़ाई और शोध के लिए बाधक है बल्कि पूरी चिन्तन प्रणाली को प्रभावित करता है, जो जीवन के हर क्षेत्र पर हावी रहती है.

अंजलि सिन्हा
लेखक


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