खाद्य सुरक्षा कानून पर अमल के सवाल

Last Updated 30 Jul 2015 01:38:52 AM IST

यूपीए सरकार के कार्यकाल में सितम्बर 2013 में संसद के मानसून सत्र में खाद्य सुरक्षा कानून पारित हुआ था, जिसे 365 दिनों के भीतर सभी राज्यों को लागू करना था.


खाद्य सुरक्षा कानून पर अमल के सवाल

लेकिन इसे अब तक केवल 11 राज्यों ने ही लागू किया है. बाकी लागू करने पर विचार कर रहे हैं.18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने कहा है कि वे सितम्बर तक कानून लागू नहीं कर सकते. इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को 30 सितम्बर तक का समय दिया है.

सरकार ने राज्यों के खाद्य मंत्रियों को अल्टीमेटम देते हुए कहा है कि इस तारीख के बाद किसी राज्य को अतिरिक्त बीपीएल और एपीएल वर्ग के लिए अनाज का आवंटन नहीं किया जाएगा. गौरतलब है कि कानून बनने के बाद दो साल से लगातार समय सीमा में विस्तार किया गया है. हालांकि, कुछ राज्यों नें छह महीने का और समय मांगा तो एक-दो सूबों को इसके लिए साल भर का वक्त चाहिए.

अब भी देश के 24 से अधिक राज्यों में यह कानून लागू नहीं हो पाया है जबकि कानून लागू होने के बाद एक वर्ष के भीतर राज्यों को योग्य लाभार्थियों की शिनाख्त करनी थी. लेकिन अधिकांश राज्य तय समय सीमा के दौरान लाभार्थियों की पहचान नहीं कर पाये. केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने कहा है कि खाद्य सुरक्षा लागू करने में लाभार्थियों की पहचान सबसे बड़ा काम है. लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ने सरकार में ए, बी, सी श्रेणी कर्मचारी और आयकर देने वालों को छोड़कर सभी को खाद्य सुरक्षा के दायरे में शामिल कर लिया है.

दूसरे राज्यों को भी ऐसा करना चाहिए.  गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा कानून अपनाने वाले 11 राज्यों में से अब तक केवल पांच ने पूर्ण रूप से, जबकि छह ने आंशिक रूप से इसका अनुपालन किया है. हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, पंजाब व छत्तीसगढ़ ने इस पर पूरी तरह से अमल किया है जबकि दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कनार्टक, मध्य प्रदेश, बिहार व चडीगढ़ ने इसे आशिंक रूप से लागू किया है. छत्तीसगढ़ में तो पहले से ही गरीबों को एक रु पये किलो खाद्यान्न दिया जा रहा है.

तत्कालीन यूपीए सरकार के इस अति महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की दो-तिहाई (करीब 82 करोड़ आबादी) आबादी को सब्सिडी के माध्यम से भोजन के अधिकार की व्यवस्था की गई है. इसमें 75 फीसद ग्रामीण और 50 फीसद शहरी आबादी को शामिल करने का प्रावधान है. इसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को हर महीने पांच किलो चावल, गेहूं और मोटा अनाज क्रमश: तीन, दो और एक रु पए प्रति किलो के हिसाब से देने का प्रावधान है.

हालांकि कीमतों की समीक्षा तीन साल बाद करने की बात कही गई है. मौजूदा वक्त में गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को हर महीने 6.25 प्रति किलो के हिसाब से सात किलो गेहूं और 6.75 प्रति किलो के आधार पर चावल  मिलता है. बहरहाल, पूरे देश में इसे समान रूप से लागू करने पर एक अनुमान के मुताबिक सरकारी खजाने पर सवा लाख से डेढ़ लाख करोड़ का सालाना अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ने वाला है.

अहम सवाल यह है कि देश की जो मौजूदा आर्थिक और वित्तीय स्थिति है, उसमें सरकार खाद्य सुरक्षा बिल के अतिरिक्त भार को कैसे संभालेगी? क्योंकि इसके लागू होने के बाद सरकार को अपनी आमदनी में हर साल कम से कम 10-15 फीसद तक की बढ़ोतरी करनी होगी. खास बात यह है कि हर साल आबादी बढ़ने के साथ फूड सिक्योरिटी बिल का बजट भी बढ़ता जाएगा. 
समस्या यह है कि भूख से मरने वालों की तादाद विश्व में सबसे अधिक अपने ही यहां है और खाद्य सुरक्षा के लिहाज से जिन देशों का हाल पिछले एक दशक में सबसे कम सुधरा है, उनमें भारत भी एक है. इसी अवधि में चीन, ईरान और ब्राजील ने अपनी स्थिति में लगभग 50 प्रतिशत तक का सुधार किया है. खाद्य सुरक्षा कानून तभी अपने उद्देश्य पर खरा उतर सकता है जब भूखों की संख्या में बड़ी गिरावट आए.

विश्व खाद्य संगठन के अनुसार दुनिया में हर दिन 20 हजार बच्चों को भूख निगल जाती है. हर साल एक अरब 30 करोड़ टन खाद्य सामग्री बर्बाद होती है और हर सातवां व्यक्ति भूखा सोता है. भारत में स्थिति और खराब है. विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67 वां स्थान है. विडम्बना देखिए कि हमारे यहां हर साल 26 करोड़ टन अनाज का उत्पादन होता है, फिर भी देश का हर तीसरा व्यक्ति भूखा सोता है. इस निराशाजनक स्थिति का हमारे आर्थिक विकास पर गहरा असर होगा, क्योंकि विकास का पहिया जिन लोगों के सहारे चलता है, वे कुपोषण का शिकार हैं. वहीं दूसरी तरफ सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 36 प्रतिशत महिलाएं और 34 प्रतिशत पुरु षों को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है. महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है.

संतुलित भोजन के नाम पर वह बचे-खुचे से ही गुजारा कर लेती हैं.  गर्भावस्था तक में अधिसंख्य महिलाओं को भरपूर पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है. इस तरह देखें तो बच्चों में कुपोषण की स्थिति गर्भावस्था से ही शुरू हो जाती है.  एक सर्वे के मुताबिक देश में 42 फीसद बच्चे अंडरवेट हैं. इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत में अनाज की कोई कमी नहीं फिर भी 20 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं जो पूरे विश्व के आंकड़ों से सबसे ज्यादा है. 

खैर, सबसे बड़ी चुनौती कारगर अमल की है. पीडीएस में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकारी खरीद वाले अनाज के भंडारण की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. मगर न तो पीडीएस के कामकाज को दुरुस्त और पारदर्शी बनाने के कदम अब तक उठाए गए हैं और न भंडारण और प्रबंधन की क्षमता सुधारी गई है. जबकि पीडीएस को विकेंद्रीकृत स्वरूप देने की जरूरत पहले से ज्यादा बढ़ गई है. इसलिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरु स्त करना अनिवार्य है, क्योंकि उसका चुस्त-दुरुस्त होना ही इस कार्यक्रम की सफलता की बुनियाद होगी.

नि:संदेह, खाद्य सुरक्षा विधेयक की जरूरत और सार्थकता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन मौजूदा स्वरूप में यह योजना भुखमरी और कुपोषण की समस्या का समाधान शायद ही कर सके और शायद ही पूरे देश में एक समान ईमानदारी से इसका पालन हो सके.  सच्चाई यही है कि खाद्य सुरक्षा योजना पर संकट आज भी पूरी तरह टला नहीं है. लिहाजा, सरकार भी इसकी उपयोगिता पर इसके विभिन्न आयामों पर विचार-विमर्श कर रही है.

रवि शंकर
लेखक


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