संकल्प : साकार होगा विकसित भारत का सपना

Last Updated 29 Jul 2015 01:00:13 AM IST

एक राष्ट्र के रूप में भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए हम वचनबद्ध हैं. इस लक्ष्य को पाने के लिए सामाजिक परिवर्तन में सहायक उचित नीतियों और कानूनों को लागू करना होगा.


साकार होगा विकसित भारत का सपना

दुर्लभ है मानव प्राणी के रूप में जन्म लेना, उससे भी दुर्लभ है बिना किसी शारीरिक दोष के जन्म लेना; यदि ऐसा संभव हो भी जाए तो दुर्लभ है ज्ञान और शिक्षा से समृद्ध हो पाना; यदि कोई हासिल भी कर ले ज्ञान और शिक्षा तो दुर्लभ है मानव की सेवा हेतु स्वयं को प्रस्तुत कर पाना और स्वयं की उच्चतर अवस्था में मन लगाना. कोई यदि ऐसा निस्पृह दिव्य जीवन जी लेता है तो ऐसी दिव्य आत्मा के आगमन पर स्वागत में स्वर्ग-द्वार भी खुल जाता है- तमिल कवि अवैयार ने इस कविता में मानव जीवन की दिव्य प्रकृति बड़े ही मनोरम ढंग से अभिव्यक्त की है. मानव ही ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण रचना है. खुशहाल, संपन्न और शांतिप्रिय समाज के निर्माण के लिए आवश्यकता है युद्ध से मुक्ति की, उस युद्ध से जो हमारे अपने भीतर चलता है और उस युद्ध से भी जिसका सामना हम अपने अस्तित्व से बाहर करते हैं. इस सबसे बढ़कर यह कि इंसान के दिल में औरों को कुछ देने और उन्हें समर्थ बनाने की ख्वाहिश हो. एक प्रबुद्ध नागरिक की स्नातकीय उपाधि अर्जित करने के लिए तीन बातों का होना आवश्यक है- मूल्य आधारित शिक्षा, आध्यात्मिकता की ओर अभिमुख धर्म और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने वाली कल्पनाशील नीतियां.

चरित्र निर्माण की दृष्टि से स्कूल का परिवेश सबसे महत्वपूर्ण माना गया है. बच्चों की पांच से सत्रह वर्ष तक की उम्र सीखने की मुख्य अवधि होती है और एक छात्र करीब 25 हजार घंटे स्कूल परिसर में बिताता है. इस प्रकार स्कूल में बिताया गया समय बच्चों के सीखने का सबसे बढ़िया समय है और इस दौरान उन्हें बहुत अच्छे परिवेश और वातावरण की जरूरत होती है, जिसमें लक्ष्योन्मुख, सोद्देश्य और मूल्य आधारित शिक्षा दी जा सके. स्कूलों को चाहिए कि वे बच्चों में सृजनशीलता को प्रोत्साहित करें, जैसे यह कि बच्चे खुद को और दूसरे बच्चों को भी शिक्षित करने की कला सीखें.

दूसरों को कुछ देने की नैतिकता स्वयं से ऐसे सवाल करने से विकसित होती है कि हमारी शिक्षा से दूसरों को किस तरह लाभ मिल सकता है. ऐसे प्रश्न जब उठने लगते हैं तो दिल में परोपकार की भावना बलवती होती है, अर्थात अपने साथ-साथ किस तरह औरों का भला तथा देश का विकास कर सकता हूं? नैतिक विकास को आत्मसात करने हेतु टीम के रूप में काम करने का भाव, निश्छल व्यवहार, सहयोगिता, ठीक ढंग से और ठीक काम करना, कड़ी मेहनत और अपनी निजता से बड़े किसी उद्देश्य जैसे मूल्यों पर जोर देना होता है, साथ ही हमारी अपनी सांस्कृतिक संरचना और मूल्य-पद्धति को दिमाग में रखना होता है.

एक बार एक कॉलेज के उद्घाटन के लिए राजकोट के बिशप रेवरेंड फादर ग्रेगरी ने मुझे आमंत्रित किया. उद्घाटन से पहले बिशप ने मुझे अपने घर पधारने का न्योता दिया. उनके घर में प्रवेश करते हुए मुझे लगा कि मैं किसी पवित्र स्थान में प्रवेश कर रहा हूं. वहां एक अनुपम प्रार्थनाकक्ष था जो सभी धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए सभी धर्मो से जुड़ा था. जब मुझे बिशप उस प्रार्थनाकक्ष का महत्व बता रहे थे, उसी समय स्वामीनारायण मंदिर आने का मुझे न्योता मिला. यह बात जब मैंने रेवरेंड फादर ग्रेगरी से कही तो उन्होंने कहा कि वे भी साथ चलेंगे. स्वामीनारायण मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने पर वहां हमने भगवान कृष्ण की मनोरम छटा बिखेरने वाली प्रतिमा के दर्शन किए. वहां हमारे माथे पर तिलक लगाए गए. यह एक अद्भुत दृश्य था. फादर ग्रेगरी, मेरे और वाईएस राजन, सबके माथे पर तिलक शोभायमान था. यह घटना हमारे देश में विभिन्न धर्मो के बीच संपर्क की शक्ति को दर्शाती है और एक अनुपम आध्यात्मिक अनुभूति से भर देती है. प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते हैं- धार्मिक उपदेश और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि. दया और प्रेम से प्रेरित आध्यात्मिक क्रियाकलाप को एक समन्वित लक्ष्य के बतौर परस्पर मिला दिया जाना चाहिए.

एक राष्ट्र के रूप में भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए हम वचनबद्ध हैं. इस लक्ष्य को पाने के लिए सामाजिक परिवर्तन में सहायक उचित नीतियों और कानूनों को लागू करना होगा. विकास के लिए प्रमुख क्षेत्रों और कार्यक्रमों की पहचान कर ली गई है, जहां एकीकृत कार्रवाई से विकास होगा. इन कार्यक्रमों को एकीकृत रूप में समयबद्ध और किफायती लागत के साथ क्रियान्वयन की चुनौती हमें स्वीकार करनी होगी. ध्यान यह भी रखना होगा कि क्रियान्वयन के दौरान नागरिकों को सुलभ कराई जाने वाली अनिवार्य सेवाएं किसी भी हालत में बाधित न हों.

इस धरती पर हर एक इंसान को सम्मान के साथ जीने और कुछ विशेष करने का हौसला रखने का हक है. प्रजातंत्र का मतलब ही है सम्मान के साथ जीने और कुछ अलग कर दिखाने के लिए न्यायपूर्ण और उचित साधनों के माध्यम से काफी संख्या में संभावनाओं की उपलब्धता. हमारा संविधान भी यही कहता है और यही सच्चे और मजबूत प्रजातंत्र में जीने का आनंद सुलभ कराता है. सामाजिक स्तर पर वैचारिक सामंजस्य का होना अनिवार्य है. किसी भी रूप में दूसरों के विचारों के प्रति असहिष्णुता, दूसरों के मत या धर्म के प्रति घृणा या इन भेदभावों को तेज करने के लिए लोगों के विरुद्ध गैरकानूनी ढंग से हिंसा का सहारा लेने जैसे कामों को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता. प्रत्येक मानव के अधिकारों के लिए हमें अपने व्यवहार को सभ्य बनाने के लिए कठिन परिश्रम और हर संभव प्रयास करना होगा. लोकतांत्रिक मूल्यों का यही मूलाधार है.

यह लगभग स्पष्ट है कि इंसान की जिंदगी युद्धों से जुड़ी है. पिछली सदी के दौरान तीन तरह के युद्धों से हमारा सामना हुआ. सन1920 तक एक तरह का युद्ध, 1920 से 1990 तक दूसरी तरह का युद्ध और 1990 के बाद एक और तरह का युद्ध. इनमें से सबसे पहले वाले युद्ध आदमी लड़ते थे. दूसरी तरह का युद्ध मशीनीकृत था. 1990 के बाद तीसरा दौर, भूमंडलीकरण की ओर अभिमुख आर्थिक युद्ध है. प्रौद्योगिकी वर्चस्व के इस दौर में प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण और उसे मुहैया कराने से इंकार आदि के द्वारा वर्चस्वशाली शक्तियां राष्ट्रों का वर्गीकरण ‘विकसित’, ‘विकासशील’ और ‘अविकसित’ के रूप में कर रही हैं. फलत: आज की दुनिया एक अलग तरह के युद्ध का सामना कर रही है. यह युद्ध धार्मिक टकरावों, वैचारिक मतभेदों और आर्थिक-व्यापारिक वर्चस्व का मिलाजुला एक संश्लिष्ट रूप है. पारंपरिक युद्धों के खतरे, आतंकवाद, आंतरिक विद्रोही गतिविधियों और नाभिकीय आक्रमण के खतरों वाले इस जटिल एकीकृत संकट का सामना हम करने जा रहे हैं.

आतंकवाद विचारधारात्मक मतभेदों, धर्माधता, संगठनों और देशों के बीच दुश्मनी जैसी अनेक वजहों का परिणाम होता है. कुछेक देश अपनी सीमाओं के पार बुरी तरह आतंकवाद फैलाने में लगे हैं. हमें मिल-जुलकर, राष्ट्रीय विकास की नीतियां तय करके और उन लक्ष्य-आधारित परियोजनाओं पर कड़ी मेहनत से पसीना बहाकर गड़बड़ी फैलाने वाली ताकतों से निपटने की जरूरत है. इस बिंदु पर पहुंच कर पूरनमासी की रात में लिखी गई एक कविता मैं याद करना चाहूंगा- ओ मानवजाति, तुम हो मेरी श्रेष्ठतम रचना; तुम जीते रहोगे, जीते रहोगे; तुम देते रहो, देते रहो; जब तक कि मानव-मात्र के सुख-दुख के साथ एकाकार न हो जाओ. तुम्हारे अंदर उत्पन्न होगा, मेरा परम आनंद. प्रेम शात है, वही है मानवता का लक्ष्य.
(संपादित अंश डॉ. कलाम की पुस्तक ‘अदम्य साहस’ से साभार)



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