राज्य मानवाधिकार आयोगों की सार्थकता!

Last Updated 28 Jul 2015 12:56:48 AM IST

किसी राज्य के मानवाधिकार आयोग के चेयरपर्सन से अक्सर यही उम्मीद की जाती है कि वह राज्य सरकार के कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा.


राज्य मानवाधिकार आयोगों की सार्थकता!

इतना ही नहीं, वह राज्य के मुख्यमंत्री की मुंह खोल कर तारीफ भी  करेगा? खबरों के अनुसार पिछले दिनों ऐसा ही एक नजारा पश्चिम बंगाल में नमूदार हुआ, जब राज्य की 100वीं प्रशासकीय समीक्षा बैठक का आयोजन बर्दवान जिले में हुआ और आयोग के अस्थायी अध्यक्ष नपराजित मुखर्जी- जो उसके पहले राज्य के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस थे- ने कुछ ऐसे ही उद्गार प्रकट किए.

मालूम हो कि जब श्री मुखर्जी इस बात का हवाला देते हुए कि एक साल से आयोग के पास आनेवाली शिकायतों की संख्या कम हुई है- ममता सरकार की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे, उसके महज दो दिन पहले एबीपी आनन्द के पत्रकार स्वप्न नियोगी पर कथित रूप से तूणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने हमला किया था और उसी दिन सीपीएम के विधायक निरापद सरकार, एक जनसभा में सत्ताधारी पार्टी से कथित तौर पर जुड़े लोगों के हमले का शिकार हुए थे.

निश्चित तौर पर पश्चिम बंगाल सरकार इस मामले में अपवाद नहीं है. अन्य राज्यों में भी कमोबेश ऐसा ही आलम है, जहां या तो राज्यों ने अपने यहां मानवाधिकार आयोगों का गठन किया ही नहीं है या अगर किया भी है तो उसमें अपने करीबियों को ही भरती किया है. और जहां उसके लिए यह संभव नहीं हुआ है, वहां ऐसे आयोगों के साथ उसके विवाद कई बार बेहद अप्रिय रूप भी धारण करते रहे हैं.

ध्यान रहे कि इन आयोगों के पास अधिक ताकत नहीं होती, इसके बावजूद कई बार इनकी टिप्पणियों या प्रतीकात्मक कार्रवाइयों से ही सरकारों को बगलें झांकने के लिए मजबूर होना पड़ता है. उदाहरण के तौर पर श्री मुखर्जी को तब अध्यक्ष बनाया गया था जब इसके पहले इस पद पर तैनात न्यायमूर्ति गांगुली को यौन प्रताड़ना के अन्य आरोपों के चलते बाद में अपना पद छोड़ना पड़ा था. न्यायमूर्ति गांगुली का कार्यकाल इस मामले भी चर्चित रहा था कि उन्होंने जादवपुर विश्ववविद्यालय के प्रोफेसर को राज्य सरकार द्वारा प्रताड़ित करने के लिए उन्हें मुआवजा दिलवाया था, जिसकी वजह से ममता सरकार को बचाव का पैंतरा अख्तियार करना पड़ा था.

अब यदि स्टेटस ऑफ नेशनल इन्स्टीट्यूशंन्स, 1993/पैरिस प्रिन्सिपल्स/ पर गौर किया जाए, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम पैमानों के तौर पर स्वीकार्यता मिली है और जिसके तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों का गठन किया जाता है, तो औपचारिक तौर पर यही बात उसमें दर्ज है कि उन्हें कार्य के स्तर पर एवं वित्तीय मामलों में स्वतंत्र होना चाहिए. स्वतंत्रता को यहां नींव डालने से लेकर, कार्य को अंजाम देने तक या संचालित करने जैसे समग्र अर्थ में लिया जाता है.

यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आयोग के अध्यक्ष या सदस्यों की जिम्मेदारियों के तहत उन्हें राज्य सरकार से उचित दूरी बना कर रखनी होती है ताकि आयोग की अर्धसंवैधानिक इकाई की अलग पहचान बनी रहे और लोगों का विश्वास भी उस पर बना रहे. कानूनी जानकारों के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा ऐसे मामलों में व्यवस्था दी गयी है कि अगर मानवाधिकार आयोग के पदाधिकारी सरकार की प्रशंसा करते हैं तो वह उस जनता के साथ छल करते हैं, जिनके अधिकारों की उन्हें हिफाजत करनी होती है. आयोग के संविधान में ही है कि उसका अध्यक्ष उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय का रिटार्यड जज हो सकता है.

मालूम हो कि राष्ट्रीय स्तर पर सात मानवाधिकार संस्थाएं - जिन्हें आयोग के नाम से जाना जाता है- उपस्थित हैं, जिनका ढांचा, जिनकी शक्तियां अलग-अलग किस्म की हैं और जिनका मकसद मानवाधिकार, महिला अधिकार, बच्चों के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, अनुसूचित तबके के लोगों के अधिकार आदि की रक्षा करना है और एवं उनके कल्याणार्थ कार्यों को बढ़ावा देना है. प्रोटेक्शन ऑफ ह्यूमन राइटस एक्ट, 1993 और सीपीसीआर एक्ट, 2005 के अन्तर्गत ऐसे आयोगों को राज्य स्तर पर भी स्थापित करने की बात की गयी है, जिस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को अधिकार प्रदान किए गए हैं.

गौरतलब है कि चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, वह असुविधा से बचने के लिए यह तरीका भी अपनाती हैं कि वह ऐसे आयोगों में स्थायी अध्यक्ष नियुक्त नहीं करती, जबकि ऐसी वैधानिक जरूरत होती है. पिछले दिनों राजस्थान उच्च अदालत ने एक राष्ट्रीय अखबार में प्रकाशित खबर का स्वत: संज्ञान लेते हुए और उसे जन हितयाचिका के तौर पर स्वीकारते हुए राजस्थान सरकार को नोटिस जारी किया जब पता चला कि एक साल से अधिक समय से राजस्थान में ऐसे वैधानिक आयोगों के अध्यक्षों को नियुक्त ही नहीं किया गया है. न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति जे के रांका की द्विसदस्यीय पीठ ने राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों को सन्दर्भित करते हुए कहा कि जहां राजस्थान अनुसूचित जातियों पर अत्याचारों के मामलों में देश में दूसरे नम्बर पर है और स्त्रियों पर अत्याचार की घटनाओं के मामले में मध्य प्रदेश के बाद है, इसके बावजूद आखिर इन आयोगों को स्थायी अध्यक्ष क्यों नहीं दिए गए हैं.

खबर के मुताबिक यहां जहां राज्य बाल अधिकार सुरक्षा आयोग नवम्बर 2013 से बिना अध्यक्ष के चल रहा है, वहीं राज्य महिला आयोग और राज्य अनुसूचित जाति आयोग में एक साल से कोई अध्यक्ष नहीं है. महिला आयोग का यह आलम है कि अध्यक्ष के अलावा बाकी सदस्यों का कार्यकाल भी समाप्त हो चुका है, लिहाजा साधारण सुनवाई की औपचारिकता भी पूरी नहीं की जा सकती है. अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष की गैरमौजूदगी का नतीजा यह था कि डांगावास नामक इलाका- जो हाल के समयों में दलित अत्याचारों के कई कांडों को लेकर सुर्खियों में रहा है और जहां पिछले दिनों जमीन विवाद के नाम पर वर्चस्वशाली जातियों ने छह दलितों को कथित तौर पर टैक्टर से कुचल कर मार डाला- वहां पुलिस तब हरकत में आयी जब केन्द्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष ने वहां दौरा किया.

सुभाष गाताडे
लेखक


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