अपने-अपने गम, अपना-अपना दम

Last Updated 08 Jul 2015 01:58:45 AM IST

बिहार चुनावी मोड में आ गया है. मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा सितम्बर-अक्टूबर में चुनाव की संभावना बताने के पहले वह भूकम्प की चर्चाओं और चिंता में डूबा था पर इस घोषणा के साथ ही सबसे तेजी नीतीश कुमार ने दिखाई.


अपने-अपने गम, अपना-अपना दम

गठबन्धन करने और उस राजनीति में लालू प्रसाद यादव तथा उनके समर्थकों की तरफ से की जा रही भोंडी गेंदबाजी का जबाब देने में भी. शुरु आती थोड़े दुख-दर्द के बाद लालू ने भी उनकी लीड को स्वीकार किया और दोनों दलों के मेल से उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं में उत्साह दिखता है. नीतीश यहीं नहीं रुके. उन्होंने मोदी का प्रचार करने वाले प्रशांत किशोर की सेवाएं लेकर चुनाव प्रचार और घर-घर सम्पर्क की मुहिम भी छेड़ दी और लालूजी के दबाव में सही, अपने एक मोहरे अनंत सिंह को जेल भेजकर सही राजनीतिक सिगनल देना भी शुरू कर दिया है. जदयू विधायक अनंत का बचना मुश्किल लगता है पर उनके नाम से जातीय राजनीतिक गोलबन्दी के खेल में जदयू-राजद आगे हो गया लगता है.

दूसरी ओर जो भाजपा और उसके सहयोगी दल कल तक लालू-नीतीश के आपसी टकराव, सेकुलर मोर्चे के नेतृत्व के सवाल और टिकट बंटवारे की संभावित लड़ाई को लेकर मन-मन मुस्कुराते और सार्वजनिक तौर पर सवाल उठाते थे, वही आज खुद नेतृत्व से लेकर गठबन्धन तक के सवालों से कतराते दिख रहे हैं. जिस राजग अर्थात एनडीए का ग्राफ राजद-जदयू टकराव वाले दौर में बढ़ता दिख रहा था वह बिखरता लग रहा है. भले ही केन्द्रीय मंत्रियों और भाजपा का नेतृत्व बिहार में डेरा डालने लगा है, केन्द्र की तरफ से बिहार के लिये योजनाएं घोषित होने लगी हैं और हर नेता पूरा जोर लगाकर खुद के मुख्यमंत्री के दावे को मजबूत करना चाहता है, पर लोकसभा चुनाव के पहले वाली हवा कहीं नजर नहीं आती. इसीलिए राजनीतिक पंडित कहने लगे हैं कि लोकसभा चुनाव में एक सौ अस्सी सीटों से अधिक पर बढ़त वाला सीन तो कही नहीं दिखता, भाजपा व जदयू को पिछली विधानसभा वाला प्रदर्शन दोहरा पाना मुश्किल होगा. अर्थात नरेन्द्र मोदी और नीतीश दोनों पहले से कमजोर होकर निकलेंगे.

राजनीतिक रूप से सबसे सचेत और सामाजिक समूहों की गोलबन्दी में आगे बिहार इस तेजी से चुनाव के रंग में रंगे- यह स्वाभाविक है. 1857 के विद्रोह के बाद से लगातार राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों का केन्द्र रहे इस प्रदेश का अपना काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है और हमेशा की तरह इस बार भी देश की राजनीति का आगे का रास्ता काफी कुछ बिहार चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा. बिहार के लिए तेज और बेहतर विकास तथा सुशासन का सवाल, पचीस साल से जारी पिछड़ा राज और सेकुलर सरकार का सवाल, नीतीश कुमार बनाम बड़े मोदी या छोटे मोदी या फिर किसी और नेता का सवाल और लालू-नीतीश जैसों के राजनीतिक भविष्य का सवाल इस चुनाव से जुड़ा है. अगर लालू प्रसाद जहर पीने की बात खुलकर करते हैं तो लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश ने, खुद लालू प्रसाद ने या राज्य सरकार के गिरने से लेकर जदयू के बिखरने जैसे कई बड़े दावे करके पिटे सुशील मोदी समेत अन्य भाजपा नेताओं ने क्या-क्या जहर पिया है यह हिसाब भी लगाना चाहिए पर इससे भी महत्वपूर्ण है कि चुनाव नतीजों के बाद कई सारे महत्वपूर्ण लोगों को जहर पीना पड़ेगा और इसी के चलते बिहार का चुनाव ज्यादा दिलचस्प हो गया है.

लगभग दो स्पष्ट खेमों में बंटा बिहार चुनाव अभी और कितनी करवट लेगा तथा किसका खेल बनेगा, किसका बिगड़ेगा यह अभी कहने का कोई मतलब नहीं है लेकिन लालू-नीतीश की जोड़ी ने अगर अंदरखाने एक-दूसरे के उम्मीदवार को हराने की चाल चली तो उनको दुश्मन की जरूरत नहीं रहेगी. इस बार इन दोनों का राजनीतिक नेतृत्व और भविष्य दांव पर है पर अभी सीटों के बंटवारे का बड़ा मसला पड़ा ही हुआ है. कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के आने से गठबन्धन तो मजबूत होगा पर सीटों का बंटवारा और मुश्किल होगा. संभव है, दूसरा पक्ष इन्हें ज्यादा मुसलमानपरस्त बताने और हिन्दुओं को गोलबन्द करने का प्रयास भी करे. हालांकि बिहार की राजनीति में सांप्रदायिकता का खेल कम ही चला है. इस बार सारा मुसलमान समाज इसी गठबन्धन के पीछे होगा.

दूसरी ओर अगर भाजपा किसी अगड़े को नेता प्रोजेक्ट करने का इशारा भी करने की गलती करेगी तो पिछड़ा गोलबन्दी में देर नहीं लगेगी. राजग को अगड़ों के साथ ही अभी दलित और पिछड़ा समर्थन दिखता है पर इन समाजों के सारे नेता सहयोगी दलों के हैं या पार्टी में हाशिये पर रहे हैं और अगर चुनाव प्रचार और टिकट बंटवारे में ज्यादा अगड़ा और बनियावाद चला तो अभी दिख रहा यह समर्थन घटेगा. भाजपा और राजग को नरेन्द्र मोदी के नाम और चेहरे पर चुनाव लड़ने का लाभ मिलने से ज्यादा नुकसान हो सकता है क्योंकि उनकी चमक कम हुई है और वे बिहार आकर शासन-सुशासन चलाने वाले नहीं हैं. पर बिहार चुनाव का महत्व अगर बिहार से ज्यादा देश की राजनीति के लिये माना जा रहा है तो आगे के संभावित समीकरणों पर भी गौर करना गलत नहीं होगा.

अगर बिहार में लालू-नीतीश की जोड़ी जमती है तो कल को देश भर में अपना अहम छोड़कर जहर पीने अर्थात भाजपा विरोधी गठबन्धन करने वाले नेताओं की लाइन लग जाएगी. फिर उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम मिलें न मिलें- कांग्रेस से गठजोड़ करने के लिए इन दोनों में उसी तरह की होड़ लगेगी जैसी बिहार में जदयू और राजद ने लगाई थी. संभव है कि बंगाल, तमिलनाडु और पंजाब जैसे उन प्रदेशों में भी नये गठबंधन बनें जहां बिहार के बाद चुनाव होने हैं. वैसे गैर कांग्रेसवाद की तरह गैर भाजपावाद या सेकुलरवाद की राजनीति अब भी परिभाषित नहीं है पर यह प्रवृत्ति तेज हो जाएगी.

बहरहाल, बिहार चुनाव का इससे बड़ा मतलब देश, भाजपा और नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी की आगे की राजनीति के लिये है. अगर दिल्ली में पिटने के बाद मोदी को बिहार से बड़ी जीत मिलती है तो अभी अरु ण शौरी से लेकर आडवाणी तक की आलोचना वाला क्रम एकदम रुक जाएगा. फिर कोई वसुंधरा जैसा भी बागी तेवर नहीं अपना सकेगा. फिर सरकार और संगठन और देश की राजनीति में मोदी-शाह की डुगडुगी भी बजेगी- संभवत: मई 2014 से भी ज्यादा जोर से. और अगर बिहार ने उल्टा परिणाम दिया तो यह क्रम उलटेगा और मोदीजी की तो नहीं पर अमित शाह की गद्दी भी मुश्किल में पड़ सकती है. मोदी के लिए भी आलोचना के स्वर तेज होंगे. अब लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन को 184 सीटों पर बढ़त थी पर भाजपा तो राज्य की सौ सीटों पर भी ढंग के उम्मीदवार नहीं दे पाती थी. पिछली बार माना जाता था कि भाजपा के कई उम्मीदवार नीतीश ने ही तय किए थे. मोदी के जादू ने ही उसे इस स्थिति तक पहुंचाया है तो वह उनके नाम पर ही चुनाव लड़े,  यह उचित है. पर जब उनके नाम पर चुनाव लड़ेंगे तो परिणाम भी उनके भविष्य से जुडेंगे.

अरविन्द मोहन
लेखक


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