जाति जनगणना का खुलासा टेढ़ी खीर

Last Updated 08 Jul 2015 01:47:28 AM IST

यूपीए शासन के दौरान सभी राजनीतिक दलों की मांग पर 2011 में संसद में निर्णय किया गया था कि देश में जातिगत जनगणना होगी.


जाति जनगणना का खुलासा टेढ़ी खीर

बाद में इस जनगणना के साथ हर परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति के अध्ययन का प्रावधान था. किसी देश के दीर्घकालिक विकास व जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए देश की आर्थिक व सामाजिक स्थिति का ज्ञान  आवश्यक है. सरकार ने 17 करोड़ 91 लाख ग्रामीण परिवारों व 6 करोड़ 48 लाख शहरी परिवारों सहित कुल 24 करोड़ 39 लाख परिवारों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति के आकड़े जारी कर सही काम किया है लेकिन  केंद्र सरकार एक बार फिर जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने से पीछे हट गई. केंद्र सरकार ने आंशिक रिपोर्ट जारी की लेकिन जाति आधारित आंकड़े जारी नहीं किए गए.

हालांकि देश में किस जाति की कितनी संख्या है और हर जाति की आर्थिक व सामाजिक स्थिति क्या है, यह भी सार्वजनिक होना चाहिए था. इस मामले में सरकार की ओर से कहा गया कि जाति आधारित आंकड़े दूसरा मंत्रालय जारी करेगा लेकिन कब होगा, इसकी जानकारी नहीं दी गई. इस बारे में स्पष्टीकरण देते हुए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने कहा कि जातिगत जनगणना का काम रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया देख रहे हैं इसलिए यह आकड़ें वही जारी करेंगे. वही तय करेंगे कि उन्हें कब जारी किया जाएगा. 1932 के बाद पहली बार क्षेत्र, समुदाय, जाति, आय वर्ग पर आधारित जनगणना की स्थिति सामने आई है.

माना जा रहा है कि सरकार बिहार चुनाव के पहले जाति का जिन्न छेड़ने के मूड में नहीं थी. वास्तव में यह ऐसा मसला है जिस पर राजनीतिक सहमति की जरूरत है. सरकार में बड़ा धड़ा मानता है कि अगर जाति आधारित गणना को सार्वजनिक किया गया तो जातीय आधार पर नई सियासत शुरू हो जाएगी. इससे मोदी सरकार का विकास का एजेंडा पटरी से उतर सकता है और जातियों को लेकर नई बहस शुरू हो सकती है. आरक्षण को लेकर भी राजनीति गरमाने की आशंका सरकार को डरा रही है. कहा जा रहा है कि कई जातियों को पिछड़ों और एससी सूची में शामिल करने को लेकर भ्रम के चलते इस सूची को अब तक अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है. नव बुद्धिष्ठ जैसे कुछ समूहों ने खुद को एससी की सूची में शामिल करने की मांग की है. इसी तरह कई अन्य जातियां भी दबाव बना रही हैं. पिछड़े वर्ग की कुछ जातियों का दावा है कि उनकी संख्या बढ़ी है इस अनुपात में उनका आरक्षण भी बढ़ाया जाना चाहिए. सरकार इन सभी समस्याओं से बचना चाहती है. हालांकि उसका कहना है कि इसे बिहार चुनाव से नहीं जोड़ना चाहिए.

आजाद भारत की पहली सामाजिक आर्थिक एवं जातिगत जनगणना में खुलासा हुआ है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों के मात्र 4.6 फीसद परिवार आयकर देते हैं और उन परिवारों में से मात्र दस प्रतिशत वेतनभोगी हैं. मात्र 3.49 प्रतिशत अनुसूचित जाति-परिवार आयकर देते हैं और अनुसूचित जनजाति के मामले में यह आंकडा 3.34 प्रतिशत है. जनगणना के इन आकंड़ों अनुसार ग्रामीण और शहरी दोनों मिलाकर देश में कुल 24 करोड़ 39 लाख परिवार हैं, जिनमें से ग्रामीण क्षेत्रों में 17 करोड़ 91 लाख परिवार हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में 1.11 प्रतिशत परिवार सरकारी कंपनियों में कार्यरत हैं जबकि निजी क्षेत्र में 3.57 प्रतिशत परिवार लगे  हैं.

देश के सभी 640 जिलों में हुई जनगणना के बाद यह बात सामने आई कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 17.9 करोड़ परिवारों में से 75 फीसद में अधिकांश का अधिकतम वेतन 5,000 (83 डॉलर) से कम है, 40 फीसद परिवार भूमिहीन हैं और मजदूरी करते हैं. ये आंकड़े केंद्र के अलावा राज्य सरकारों के लिए भी बेहद अहम हैं और इससे भारत की सही तस्वीर सामने आएगी. वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि इस जनगणना में गरीबी रेखा से नीचे के वर्ग के लोगों की गणना के लिए नए मापदंड अपनाए गए हैं. आर्थिक आधार पर कौन लोग पिछड़े हैं, उसका पता लगाया गया है. इन आंकड़ों से न केंद्र के साथ-साथ राज्यों को भी योजनाएं बनाने में आसानी होगी.

एसईसीसी प्रक्रिया यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2011 में शुरू हुई थी, जिसे लेकर काफी राजनीतिक विवाद हुआ था. तत्कालीन सरकार समेत विभिन्न राजनीतिक दलों के ओबीसी नेताओं ने एसईसीसी में जातिगत गणना 1932 की तर्ज पर करने की वकालत की थी. सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू प्रसाद और जद (एकी) के शरद यादव ने संसद के भीतर और बाहर जोरदार तरीके से इस मुद्दे को उठाया था.

उनका कहना था कि इसे जाति के आधार पर किया जाना चाहिए ताकि पिछड़े वर्ग से जुड़े लोगों की संख्या का पता लग सके. यूपीए मंत्रिमंडल में भी इस पर काफी मतभेद थे. बहरहाल, 1931 के बाद पहली बार विशेष क्षेत्र, समुदायों, जातियों व आर्थिक समूहों के संबंध में विभिन्न विवरण और भारत में घरों की प्रगति को मापा गया है. सरकार ने जिन आंकड़ों को जारी किया है, उसका आधार आर्थिक है. एससी व एसटी जातियों का ब्योरा इसमें जरूर दिया गया है, लेकिन पिछड़े वर्ग की जातियों का कोई उल्लेख नहीं है.

विपक्ष  का कहना है कि जाति आधारित जनगणना को सार्वजनिक नहीं करने का मतलब यही है कि सरकार सचाई सामने नहीं लाना चाहती है. सवाल है कि सरकार जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने से क्यों डर रही है? माना जा रहा है कि आंकड़े सामने आने से सत्ता में बैठे लोगों की परेशानी बढ़ जाएगी. समाज का उपेक्षित तबका ज्यादा अधिकारों की मांग करना शुरू कर देगा. इसलिए सत्तापक्ष के लोग इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं.

जातिगत आंकड़े से समाज के बंटने का आरोप निराधार है. जब धर्म के आधार पर गणना हो रही है तो जाति के आंकड़े पब्लिक करने में क्या परेशानी है? अभी भी शिड्यूल कास्ट और शिड्यूल ट्राइब की आंशिक तौर पर गिनती हो रही है. खैर, जातिगत आंकड़े सामने आ गए हैं तो उन्हें सार्वजनिक कर दिया जाना चाहिए ताकि पता चले कि समाज में किस तबके के लोग कितने हैं और उनके हालात कैसे हैं?  बहरहाल, 2011 में शुरू हुए सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना का मकसद यह पता करना था कि अलग-अलग जाति के लोगों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति क्या है. इसके जरिए सरकार गरीबी की असली वजह तक पहुंचने की कोशिश करेगी. इसी डेटा के आधार पर मनरेगा, नेशनल हाउसिंग मिशन, नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी स्कीम और इंदिरा आवास योजना को आगे बढ़ाया जाएगा. .

रवि शंकर
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment