आसान नहीं भूमि विधेयक की राह

Last Updated 07 Jul 2015 01:39:47 AM IST

अब यह बात तो साफ हो चुकी है कि नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ज्यों का त्यों पारित कराना असंभव है.


आसान नहीं भूमि विधेयक की राह

इस विवादित विधेयक पर गौर करने के लिए बनी संसद की तीस सदस्यीय संयुक्त समिति के समक्ष पेश हुए 90 प्रतिशित लोगों और संगठनों ने मौजूदा मसौदे के अधिकांश महत्वपूर्ण प्रावधानों पर असहमति जताई है. विपक्षी दल ही नहीं, केंद्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार की घटक पार्टी शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल तथा स्वाभिमानी पक्ष भी 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में किये गए संशोधनों से सहमत नहीं हैं. ये दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की दलीलों को किसान विरोधी मानते हैं. और तो और, राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ (आरएसएस) से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ और अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन भी खुलेआम मोदी के मंसूबों पर पानी फेरते दिख रहे हैं.

समिति के सामने करीब 50 संगठन और विशेषज्ञ अपनी राय रख चुके हैं. उद्योगपतियों के संगठनों (एफआईसीसीआई आदि) को छोड़ हर किसी ने मौजूदा प्रारूप को खारिज कर दिया है. भाजपा के पूर्व महासचिव व विचारक गोविंदाचार्य ने 13 जून को समिति के समक्ष अपना मत रखा. उन्होंने पूछा कि जब भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में संशोधन का प्रस्ताव भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में नहीं है, तो सरकार इसे पारित कराने के लिए इतनी आतुर क्यों है? वैसे भी दो बरस पहले जब मनमोहन सरकार ने 119 बरस पुराने इस कानून की जन-विरोधी धाराओं को रद्द किया था, तब भाजपा पूरी तरह उसके साथ थी. फिर सत्ता में आते ही उसका मन कैसे बदल गया?

गोविन्दाचार्य और संघ से जुड़े कई संगठनों का मुख्य ऐतराज अधिग्रहण से पूर्व किसानों की सहमति लेने की शर्त व सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन से जुड़े प्रावधान समाप्त करने पर है. उनका मानना है कि ग्राम सभा की सहमति बिना कोई भी जमीन नहीं ली जानी चाहिए. बतौर मुआवजा जमीन के बदले पैसा नहीं, जमीन ही दी जाए. अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन के लिए केंद्र व हर राज्य में एक आयोग गठित होना चाहिए. यदि तय समय सीमा के भीतर ली गयी भूमि का उपयोग न हो तो उसे किसानों को लौटा दिया जाना चाहिए तथा देश की सवा अरब आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिए उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण किसी सूरत में नहीं होना चाहिए.

ताजा सरकारी अध्यादेश में रक्षा, सस्ती आवास योजनाओं व औद्योगिक कारिडोर के लिए बिना सहमति के भूमि अधिग्रहण का प्रावधान है. विरोधी दल व संघ से जुड़े संगठन इसका प्रबल विरोध कर रहे हैं. उनकी राय में राष्ट्र की सुरक्षा के मद्देनजर यह छूट केवल रक्षा मामलों में दी जा सकती है. बाकी में प्रभावित किसानों की मंजूरी लेना जरूरी है. यूं भी गरीब किसानों की जमीन जबरन छीनकर गरीबों को मकान देने का क्या तुक है? सरकार ने चालाकी से औद्योगिक कारिडोर की परिभाषा स्पष्ट नहीं की है. शोर मचने पर अध्यादेश में प्राइवेट कंपनी के स्थान पर प्राइवेट एंटिटी शब्द का इस्तेमाल किया गया है. अब इन दोनों को लेकर खींचतान हो रही है. सरकार से हर गोलमोल शब्द का अर्थ साफ-साफ बताने की मांग की जा रही है.

गौरतलब है कि आजादी के बाद विकास के नाम पर अधिग्रहीत जमीन के कारण छह करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनमें से एक तिहाई से भी कम को ही ठीक तरीके से बसाया गया है. ज्यादातर विस्थापित सीमान्त किसान, खेतीहर मजदूर, मछुवारे और खानों में खटने वाले श्रमिक हैं. विस्थापितों में 40 फीसद आदिवासी और 20 फीसद दलित हैं. 90 फीसद कोयला व 50 फीसद खनिज खदान व अधिकांश बांध आदिवासी इलाकों में हैं. यानी समाज के सबसे कमजोर 3.6 करोड़ लोगों को अनाप-शनाप अधिग्रहण का मूल्य चुकाना पड़ा है. गांव या जंगल से उजड़ जाने पर ये अक्सर महानगरों व नगरों में झुग्गी-झोपड़ियों की शरण में होते हैं.

एक बात और कि अकेले केंद्र सरकार के पास जमीन अधिग्रहण के 13 अन्य कानून हैं और इनके तहत ही किसानों से कौड़ियों के भाव जमीन ली जाती है. यह तथ्य चौंकाता है कि 95 प्रतिशत जमीन का अधिग्रहण केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत नहीं होता. भूमि अधिग्रहण कानून-2013 के बाद अन्य कानूनों में बदलाव जरूरी था. मोदी सरकार के अध्यादेश के बाद यह प्रक्रिया थम गई है. संविधान में भूमि विकास राज्यों का विषय है जबकि भूमि अधिग्रहण समवर्ती सूची में आता है. मतलब जमीन अधिग्रहण कानून केंद्र के साथ ही राज्य सरकार भी बना सकती हैं. मनमोहन सरकार द्वारा पारित बिल में अधिग्रहण के एवज में किसानों को जमीन के बदले जमीन, घर व रोजगार का प्रावधान था.

साथ ही निजी क्षेत्र द्वारा भूमि अधिग्रहण के लिए अस्सी फीसद तथा सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की परियोजना के लिए सत्तर प्रतिशत जमीन मालिकों की मंजूरी जरूरी कर दी गई थी. औद्योगिक घरानों ने इस बिल को विकास विरोधी बताया. उनके अनुसार नया कानून लागू होने के बाद उद्योगों के लिए जमीन लेना तीन से चार गुना महंगा हो जाएगा. पुनर्वास पर आने वाले खर्चे में भी तीन गुना इजाफे का अंदाजा लगाया गया. जिन इलाकों में खनिज पदार्थ हैं, वहां बहुफसल भूमि के अधिग्रहण पर पाबंदी के प्रस्ताव का भी विरोध हुआ. इसीलिए विकास के मोह में बंधी मोदी सरकार तुरंत अध्यादेश ले आई.

यह सही है कि शहरीकरण और आर्थिक विकास की रफ्तार तेज होने के साथ जमीन की जरूरत बढ़ गई है. 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 32 फीसद आबादी शहरों में रहती है जो अगले दो दशक में बढ़कर 50 फीसद हो जाएगी. मतलब अगले बीस बरस में शहरों में आने वाली 25 करोड़ आबादी के लिए कम से कम बीस हजार वर्ग किलोमीटर जमीन की और जरूरत पड़ेगी. इसके लिए नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गुड़गांव जैसे और कई शहर बसाने पड़ेंगे. शहरीकरण व औद्योगीकरण को रफ्तार देने के लिए सरकार ने 2005 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) कानून लागू किया जिसके तहत बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहण हुआ. इस कानून के तहत बड़े कॉरपोरेट घरानों को अधिकतम 50 वर्ग किलोमीटर (पांच हजार एकड़) जमीन देकर उस पर आवासीय व औद्योगिक इकाइयां विकसित करने की जिम्मेदारी दी गई. कई राज्य सरकारों ने कारपोरेट घरानों के लिए जमीन का अधिग्रहण किया, जिससे भारी जनाक्रोश पनपा.

गत वर्ष संसद पटल पर रखी गई एसईजेड से जुड़ी नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट का निष्कर्ष है- ‘लगता है एसईजेड का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व आकर्षक तत्व जमीन था. इसके लिए पूरे देश में 45635.63 हेक्टेयर जमीन की अधिसूचना जारी हुई. काम केवल 28488.49 हेक्टेयर (62.42 फीसद) पर हुआ. 5402.22 हेक्टेयर (14 फीसद) जमीन की अधिसूचना वापस ले ली गई और कई मामलों में ऐसी जमीन के ‘कमर्शियल’ उपयोग की अनुमति दे दी गई. मजे की बात यह है कि अधिकांश भूमि का अधिग्रहण ‘सार्वजनिक हित’ धारा की आड़ में किया गया था.’ सीएजी की रिपोर्ट ने समस्त सरकारी दावों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं. बताया गया है कि 2007-2013 के बीच सेज के नाम पर सरकार से औद्योगिक घरानों ने 83 हजार 104 करोड़ रूपए की सुविधाएं तो ले लीं लेकिन बदले में काम न के बराबर हुआ. कारपोरेट जगत ने दावा किया था कि सेज की बदौलत लगभग 40 लाख नए रोजगार सृजित होंगे जबकि हकीकत यह है कि लक्ष्य के मुकाबले मात्र आठ प्रतिशत (284785) नई नौकरियां ही आई.

निश्चय ही अध्यादेश से सरकार की छवि को चोट पहुंची है. अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार के आरोपों से मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर है. अत: मानसून सत्र में हंगामे का अंदेशा है. ऐसे में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पारित होने की संभावना क्षीण है. रही-सही कसर भाजपा के सहयोगी दलों और संघ से जुड़े संगठनों के विरोध से पूरी हो गयी है. विपक्षी दल कुछ माह बाद होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव तक इस मुद्दे को जिंदा रखना चाहते हैं जबकि विकास के नाम पर केंद्र सरकार जल्द से जल्द नया भूमि अधिग्रहण कानून लाना चाहती है. देखते हैं, जीत किसकी होती है!

धर्मेंद्रपाल सिंह
लेखक


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