इन बलात्कारों पर सन्नाटा क्यों?

Last Updated 05 Jul 2015 02:05:08 AM IST

मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के पर्यटन स्थल कजलीगढ़ में जो कुछ हुआ उससे समूचे समाज को बौखला जाना चाहिए था.


इन बलात्कारों पर सन्नाटा क्यों?

देश के चिंतनशील दिमाग को खदबदा जाना चाहिए था, नारीवाद संगठनों के भीतर तूफान खड़ा हो जाना चाहिए था, जागरूक मीडिया को हतप्रभ कर देने वाले कजलीगढ़ कांड पर बड़ी और व्यापक बहस छेड़नी चाहिए थी और अपराधी मूछों पर ताव देते हुए बचकर न निकल पायें इसके व्यावहारिक रास्ते सुझाने-बनाने के प्रयास करने चाहिए थे; परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ. किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर कर रख देने वाला कजलीगढ़ का गैंग रेप श्रृंखला कांड एक सामान्य घटना भर बन कर रह गया.

कजलीगढ़ में सक्रिय एक स्थानीय गिरोह यहां आने वाले एकांतवासी जोड़ों के साथ न केवल लूट-पाट करता है बल्कि जोड़े के युवक को मारपीट कर विवश बना देता है और लड़की के साथ उसके सामने ही सामूहिक बलात्कार करता है, अपने कुकृत्य का वीडियो बनाता है, कभी-कभी लड़की को निर्वस्त्र छोड़ जाता है कि वह उसके सुरक्षित निकल जाने तक कहीं से कोई सहायता न प्राप्त कर पाए. गिरोह पिछले दो सालों में एक-दो बार नहीं बल्कि श्रृंखलाबद्ध तरीके से यह कुकृत्य करता जाता है और 45 लड़कियों को सामूहिक बलात्कार का शिकार बना डालता है. यह गिरोह पकड़ में तब आता है जब इसकी लूट के शिकार बने कुछ छात्र पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराते हैं. पुलिस की गिरफ्त में अपने कुबूलनामे में ये अपराधी अपने घिनौने बलात्कारों की बात बताते हैं. और पुलिस किंकर्तव्यविमूढ़ है कि इन शातिर अपराधियों का करे तो क्या करे.

पुलिस श्रृंखलाबद्ध सामूहिक बलात्कार करने वाले निकृष्ट अपराधियों के अपनी गिरफ्त में होने के बावजूद कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही है क्योंकि उसके पास बलात्कार की एक भी शिकायत दर्ज नहीं है. यानी एक ही स्थान पर एक ही गिरोह द्वारा इतनी बड़ी संख्या में लड़कियां सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाई जाती हैं मगर एक भी लड़की अपने साथ हुए दुष्कृत्य की शिकायत लेकर पुलिस के पास नहीं पहुंचती. क्यों नहीं पहुंचती, इसका प्रत्यक्ष कारण समझने में किसी को भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए - वहीं लोकलाज, लोक निंदा और घरवालों का भय. बलात्कार की शिकार बनी ये लड़कियां आज के भारतीय समाज की वे आम लड़कियां थीं जो आधुनिक फैशन की तर्ज पर लड़कों से दोस्ती करती हैं, प्यार करती हैं, उनके साथ एकांत सुख चाहती हैं लेकिन अपने इस संबंध को अपने घरवालों से छुपाकर रखती हैं. वे जानती हैं कि उनके परिवार की पारंपरिक संस्कृति उन्हें संबंध की अनुमति नहीं देती, उनके घरवाले उनके इस मेल-मिलाप को पसंद नहीं करेंगे, उनकी लानत-मलामत कर डालेंगे या उनके साथ मारपीट कर डालेंगे. अपने संबंध को अपनी नजर में सही मानते हुए भी वे एक अपराधग्रंथि का शिकार बनी रहती हैं.

अपने संबंध को चलाए रखने का सबसे आसान तरीका उन्हें यही लगता है कि इसे छुपाकर चलाया जाए. इस संबंध के निर्वाह के दौरान अगर उनके साथ कोई हादसा हो जाता है तो अपने घरवालों को बताने या पुलिस के पास जाने की हिम्मत जुटाने के बजाए वे अपने मन और शरीर की भारी यंतण्रा के बावजूद हादसे को पचा जाना ज्यादा उचित समझती हैं. यहां साथ के लड़कों को भी किसी झमेले में पड़ने के बनिस्बत लड़कियों के साथ चुप्पी मार जाना ज्यादा आसान तरीका प्रतीत होता है. इधर परिवार संस्कृति ऐसा कुछ न हो सकने के शुतुरमुर्गी आचरण के साथ बेखबर बनी रहती है. और यही वह व्यक्तिगत और पारिवारिक आचरण है जो बलात्कार के जैसे घिनौने अपराधियों का सुरक्षा कवच बन जाता है.

कुछ कूड़मगज लोग कह सकते हैं कि आखिर इन लड़कियों को इस तरह अपने प्रेमियों या मित्रों के साथ एक निर्जन स्थान पर जाने की जरूरत क्या थी? लेकिन वे यह सोचने का कष्ट नहीं उठाते कि मौजूदा वातावरण में, जिसमें स्कूलों से लेकर कार्यस्थलों और माल-बाजारों तक लड़के-लड़कियों को परस्पर मिलने-जुलने के हजार अवसर उपलब्ध हैं, फिल्म-टीवी जैसे माध्यम लगातार ऐसे संबंधों को बढ़ावा दे रहे हैं और इंटरनेट तथा मोबाइल फोन जैसे संचार के सर्वसुलभ माध्यम इनके आपसी संपकरे को बेहद आसान बना रहे हैं, और सर्वोपरि जिसमें संविधान वयस्क लड़के-लडकियों को पारस्परिक संबंधों का अधिकार प्रदान करता है और जिसमें महिला सशक्तिकरण की तमाम तुकी-बेतुकी हवाएं बह रही हैं, उस वातावरण में यह कल्पना भी बेतुकी है कि लड़के-लड़कियां आपस में नहीं मिलेंगे. सबसे बड़ी बात यह कि इस वातावरण को बदलना या इस पर रोक लगाना किसी भी व्यक्ति, संस्था या व्यवस्था के लिए संभव नहीं है.

ऐसी सूरत में विकल्प यही बचता है कि लड़के-लड़कियों के मित्रता या प्रेम संबंधों को एक स्वाभाविक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जाए ताकि उनके अंदर अपराधबोध पैदा न हो और वे इन संबंधों को अनावश्यक तौर पर छुपाने की कोशिश न करें. अगर लड़कियां अपने घर-परिवार में अपने इन संबंधों के बारे में सहजता से बात कर सकेंगी तो वे तमाम तरह के छल-कपट से भी बचेंगी और किसी दुर्घटना की स्थिति में अपने घरवालों या पुलिस के पास पहुंचने में भी नहीं झिझकेंगी. सामाजिक स्वीकार्यता की स्थिति में घरवाले भी किसी लोकलाजी ग्रंथि की जकड़ में नहीं होंगे और उन्हें भी पुलिस तक पहुंचने में कोई संकोच नहीं होगा.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिकता के भौतिक लाभों पर तो हम सब लपक रहे हैं लेकिन इसके अभौतिक दुष्परिणामों से निपटने की हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक तैयारी शून्य है. व्यक्तिगत स्तर पर हम लोग इनसे निपटने की सफल-असफल चाहे जैसी कोशिश करें मगर एक समाज के तौर पर संगठित प्रयास गायब हैं. बहरहाल, ये प्रयास जब होंगे तब होंगे, लेकिन इस समय तो सवाल बलात्कारी गिरोह को दंडित कराने का है. अगर 45 बार सामूहिक बलात्कार करने वाला यह गिरोह सिर्फ इस बिना पर बेदाग छूट जाए कि इसके विरुद्ध कोई औपचारिक शिकायत नहीं है तो क्या यह इस देश के नागर समाज और यहां की दंड व्यवस्था के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसी स्थिति नहीं होगी?

विभांशु दिव्याल
लेखक


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