शत प्रतिशत कट ऑफ की मांग के मायने

Last Updated 05 Jul 2015 01:57:45 AM IST

दिल्ली के शिक्षा जगत में क्रांति हो गई है. कॉलेज में दाखिले के लिए जो पहला कट ऑफ निकला, उसमें अनेक विषयों में शत प्रतिशत परीक्षा फल की मांग की गई थी.


शत प्रतिशत कट ऑफ की मांग के मायने

अर्थात जिन विद्यार्थियों ने बारहवीं कक्षा में शत प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं, उन्हें ही दाखिला मिल सकता है. अन्य अनेक विषयों में 90 से 95 प्रतिशत अंकों की मांग की गई थी. इससे लगता है कि 110 प्रतिशत अंकों की मांग करना मूर्खतापूर्ण नहीं समझा जाता, तो पहला कट ऑफ एक सौ से ऊपर का ही होता. और बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में शिक्षा का जो हाल है, उसे देखते हुए आश्चर्य नहीं कि विद्यार्थी दाखिला पाने के लिए ऐसे अंक पत्र प्रस्तुत करते, जिनमें उन्हें सौ में 110 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए हों.

इसमें संदेह नहीं कि अब विद्यार्थी पहले की अपेक्षा ज्यादा मेधावी होने लगे हैं. वे डट कर पढ़ते हैं और जम कर इम्तहान देते हैं. पहले हाईस्कूल से ऊपर के छात्रों के लिए ट्यूशन नहीं था. अब एमए के छात्र भी रिजल्ट बेहतर बनाने के लिए ट्यूशन लेते हैं. अब अंक देने में भी उदारता दिखाई जा रही है. पहले साठ प्रतिशत से ज्यादा अंक पाना घटना थी. जिसने 70-80 प्रतिशत अंक प्राप्त कर लिए वह हीरो बन जाता था. आज किसी विद्यार्थी को साठ प्रतिशत अंक मिलें, तो दिल्ली के किसी भी प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा. अंकों के मामले में उसे बीपीएल की श्रेणी में रखा जाएगा. गांवों में बीपीएल को भले ही सब्सिडी दे दी जाए, पर शहर में बीपीएल अंक पाने वालों के लिए कोई भी कॉलेज नहीं है. कॉलेज शिक्षा से बाहर कर दिए जाने के बाद वे क्या करेंगे, यह वे और उनके मां-बाप जानें, इस मामले में शिक्षा व्यवस्था की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती.

कॉलेजों के नजरिए से यह सही हो सकता है, क्योंकि जिस कॉलेज का रिजल्ट जितना अच्छा होगा, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी और उनमें दाखिला लेने के लिए उतने ही ज्यादा विद्यार्थी लालायित होंगे. लेकिन एक दूसरी दृष्टि से मूल्यांकन की यह पण्राली गलत भी है. जाहिर है, जब आप चुन-चुन कर श्रेष्ठ छात्रों को लेंगे, तब आप का रिजल्ट भी श्रेष्ठ होने को बाध्य है. लेकिन जो सोने को और ज्यादा चमका देता है, उसकी कारीगरी उससे बहुत कम है जो लोहे को सोना बना देता है. फिसड्डी कॉलेजों में फिसड्डी छात्र जाते हैं, इसलिए ये कॉलेज फिसड्डी बने रहते हैं.

इस दृष्टि से देखा जाए तो 90, 95 और 100 प्रतिशत अंकों की मांग करने वाले कॉलेज समाज के साथ बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. वे समाज के सामने एक गलत नजीर रख रहे हैं, जिसका संदेश यह है कि जिसके पास है उसे मिलेगा और जिसके पास नहीं है वह वंचित रहेगा. यह दर्शन समाज में मौजूद बौद्धिक विभाजन को बनाए रखने का है. शिक्षा का अच्छा वातावरण उन्हें मिलेगा जो मेधावी हैं. जो बच्चे पढ़ाई में कमजोर हैं, उन्हें विद्या प्रदान करने में किसी को दिलचस्पी नहीं हैं. क्या शिक्षा का उद्देश्य यही है? वह समाज में व्याप्त बौद्धिक विभाजन को मिटाने की कोशिश करती है या उसे और बढ़ाने की? हमारी वर्तमान शिक्षा पण्राली कम पढ़ों के प्रति एक षड्यंत्र है, जैसे हमारी आर्थिक पण्राली गरीब लोगों के प्रति एक षड्यंत्र है. अगर यह ठीक है, तो इससे जो निष्कर्ष निकलता है, वह यह है :  एक षड्यंत्रपूर्ण आर्थिक व्यवस्था में ही एक षड्यंत्रपूर्ण शिक्षा व्यवस्था चल सकती है.

औद्योगिक व्यवस्था में शिक्षा सिर्फ  ज्ञान प्रदान नहीं करती, वह जीवन में उन्नति करने का एक औजार भी देती हैं. अगर आप पढ़े-लिखे नहीं हैं या कम पढ़े-लिखे हैं, तो आप को चपरासी या गार्ड की नौकरी ही मिल सकती है, जिसमें पैसा और सम्मान, दोनों ही कम हैं. इसके विपरीत, कोई ग्रेजुएट है तो वह ऐसी नौकरी पाने में सफल हो सकता है जिसमें वेतन उसकी वास्तविक योग्यता का दस गुना मिलेगा. आखिर सरकारी नौकरी के प्रति इतना चाव क्यों देखा जाता है? इसलिए कि एक बार नौकरी लग गई तो जिंदगी भर का इंतजाम हो गया. काम कम, तनख्वाह ज्यादा, समाज में रु तबा बढ़ जाना और ऊपरी अलग से मिलनी चाहिए. ताउम्र अच्छा-खासा वेतन. समझ में नहीं आता कि श्रमिक संघों ने कभी भी यह मांग क्यों नहीं उठाई कि सरकारी और गैर-सरकारी कर्मचारियों को एक जैसा वेतन और एक जैसी सुविधाएं मिलनी चाहिए. भारत के संविधान का अनुच्छेद 39 निर्देश देता है कि राज्य को यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्त्री-पुरु ष, दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले. इस स्त्री-पुरु ष समानता में ही निहित है कि समान कार्य के लिए एक पुरु ष को दूसरे पुरुष के बराबर और एक स्त्री को दूसरी स्त्री के बराबर वेतन मिलना चाहिए.

शिक्षा पण्राली का लक्ष्य समाज में शिक्षा की उन्नति और विकास है. जैसे शिक्षक का कर्तव्य है कि वह सबसे कमजोर विद्यार्थी पर ज्यादा ध्यान दे, वैसे ही शिक्षा संस्थानों का कर्तव्य है कि वे पढ़ाई-लिखाई में कमजोर छात्रों को ज्यादा अवसर दें. अच्छा कॉलेज वह नहीं है जो अच्छे-अच्छे छात्र चुन लेता है और उन्हें बेहतर बना कर समाज को लौटा देता है. अच्छा कॉलेज वह है जो कमजोर से कमजोर छात्र को अपनाता है और उसे चमका कर समाज को लौटा देता है. यही बात स्कूलों के बारे में भी सच है. नर्सरी में बच्चों के दाखिले के लिए लॉटरी का प्रावधान किया गया है. इसका अर्थ है, सभी बच्चों में एक जैसी प्रतिभा है, इसलिए दाखिलों में बच्चों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता. चूंकि दाखिला चाहने वालों की संख्या ज्यादा होती है और सीटों की संख्या कम, इसलिए फैसला लॉटरी डाल कर होता है. क्या यही व्यवस्था कॉलेजों में दाखिले के लिए नहीं की जा सकती?



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