खाड़ी देशों में मजदूरों की दुर्दशा

Last Updated 03 Jul 2015 04:27:03 AM IST

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ ऐसे श्रमिकों से लंबी बातचीत करने का मौका मिला जो रोजी-रोटी और रोजगार के सिलसिले में परसियन गल्फ (खाड़ी देशों) में काम करने गए थे और हाल ही में वापस लौटे थे.


खाड़ी देशों में मजदूरों की दुर्दशा

काम करने के लिए खाड़ी मुल्कों में जाने वाले इन श्रमिकों को भर्ती के वक्त भले ही बड़े-बड़े ख्वाब दिखाए गए थे, लेकिन वहां पहुंचने के बाद इन्हें अपने ठगे जाने का कड़वा एहसास हुआ था. कारण, वहां पहुंचते ही इनके पासपोर्ट कंपनियों ने जमा करवा लिए थे इसलिए वे अब वापस अपने वतन भी नहीं लौट सकते थे. इन्हें मजबूरी में अपनी कांन्ट्रैक्ट अवधि पूरी की थी जबकि वेतन से लेकर काम की परिस्थितियों और सुविधाओं के नाम पर इनसे बड़े पैमाने पर धोखा किया गया था. लेकिन खाड़ी देशों में इनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं था. भारतीय दूतावास भी नहीं. भले ही ये श्रमिक अपनी रोजी-रोटी और नौकरी से भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा देश में भेजते रहे हैं लेकिन उनके अंतहीन और अन्यायपूर्ण शोषण पर आवाज उठाने वाला देश की राजनीतिक और सरकारी मशीनरी में कोई नहीं था.

इन श्रमिकों में ज्यादातर विनिर्माण क्षेत्रों में काम कर रहे थे जिनमें वेल्डर, रिगर, पेंटर, मिस्त्री, सिविल वर्कर, इलेक्ट्रिशियन और फिटर आदि प्रमुख थे. बातचीत में एक प्रवासी मजदूर का दर्द तो झलका ही, भरती प्रक्रिया से ही बेइंतहां शोषण शुरू होने की जो आपबीती सुनने को मिली, उसने भी रोंगटे खड़े कर दिए. शोषण की इन लंबी दास्तानों के बाद अरब मुल्कों में नौकरी के ख्वाब की भले ही हवा निकल जाती हो, लेकिन इन श्रमिकों की भरती को लेकर जिस तरह से देश की राजनीति कोई पारदर्शी नियम बनाने से परहेज कर रही है, उसने भी कई गंभीर सवाल पैदा किए हैं.

यह स्थिति कितनी विरोधाभासी है कि जिस अरब मुल्क में ‘मजदूर की मजदूरी उसका पसीना सूखने के पहले दो’ का लोकप्रिय सिद्धांत प्रतिपादित हुआ हो, वहीं पर अगर मजदूर काम करने के बावजूद तीन-चार माह तक तनख्वाह तक न पा सकें तो फिर हालात के भयावह होने का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है. बाजार ने मानवता और श्रमिकों के मानवाधिकारों को किस तरह रौंद डाला है, यह अरब में काम कर रहे श्रमिकों के हालात देखकर पता चल जाता है. यहां यह ध्यान देने लायक है कि पीड़ित मजदूरों में जहां हिंदू भी शामिल थे, वहीं धार्मिंक नजरिए से अरबी प्रशासनिक व्यवस्था को आदर्श रूप में देखने वाले मुसलमान भी. पूंजी के मुनाफे ने दोनों ही वर्गों को समान नजर से देखा था. वे उनके लिए केवल मुनाफा कमाने का एक साधन मात्र थे.
गौरतलब है कि भारत से अकेले लगभग दो लाख श्रमिक अरब मुल्कों में विनिर्माण क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. जहां तक इनके वेतन की बात है, भारतीय श्रमिक आठ घंटे की सामान्य पाली का भारतीय रुपए में औसत तेरह हजार से उन्नीस हजार रुपए तक कमा लेता है. यदि चार घंटे का ओवर टाइम भी इसमें जोड़ दिया जाए तो यह औसत इक्कीस से अट्ठाइस हजार रुपए तक पहुंच जाता है. क्योंकि भारतीय श्रमिक बेहद सस्ते हैं, इसलिए खाड़ी देशों के विनिर्माण क्षेत्र में भारतीय श्रमिकों की मांग ज्यादा है. हालांकि अब वह दौर नहीं रहा जब अरब मुल्क विकास की आरंभिक अवस्था में थे और वहां अंधाधुंध नौकरियां थीं, इसके बावजूद अभी कई मुल्कों में भारतीय श्रमिक सस्ते होने के कारण नौकरी के लिए पसंद किए जाते हैं. खाड़ी देशों के विनिर्माण क्षेत्र में लगी मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए दक्षिण एशिया के भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल आदि देश श्रमिकों की खदानें हैं. भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार विनिर्माण श्रमिकों की मंडी के रूप में जाने जाते हैं.

गौरतलब है कि इंटरव्यू के दौरान रोजी-रोटी की तलाश में खाड़ी देशों का रु ख करने वाले श्रमिकों के शोषण का आरंभ ही भरती प्रक्रिया से शुरू हो जाता है. देश में इन श्रमिकों की भरती करने के लिए कोई सामान्य नियम तक नहीं हैं. न्यूनतम वेतन की कोई गारंटी नहीं है. यही वजह है कि कभी-कभी एक फ्रेशर और अनुभवी के वेतन में कोई खास अंतर नहीं दिखाई देता है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा तराई बिहार में कुकरमुत्तों की तरह खाड़ी देशों में काम पर भेजने के नाम परभरती एजेंसियों के ऑफिस और ब्रांच ऑफिस खुले हुए हैं, जिनका धंधा ही केवल लेबर सप्लाई होता है. बिना इंटरव्यू पक्की नौकरी के वादे से लेकर शर्तिया तनख्वाह और पांच घंटे तक ओवर टाइम करवाने के वादे कराता ठगों का यह गिरोह भरती के नाम पर श्रमिक से लाख रुपए तक वसूलता है. पूरी भरती प्रक्रिया में इतनी जबरदस्त दलाली होती है कि श्रमिक अपना सब कुछ यहीं लुटा चुका होता है. ऐसे कई श्रमिकों ने आपबीती सुनाई जिन्होंने अरब जाने के लिए पांच रुपए सैकड़े पर लाख-लाख रुपए का कर्ज लिया और अपने कांट्रैक्ट का लंबा समय सिर्फ  कर्ज चुकता करने में लगा दिया. कुल मिलाकर वे वहीं खड़े थे जहां से बेहतरी की आशा लिए खाड़ी मुल्कों में काम करने के लिए गए थे.

कुल मिलाकर श्रमिकों के इस बेइंतहा शोषण के पीछे सरकार की यह चुप्पी कई सवाल खड़े करती है. यह सच है कि वैश्विक पूंजीवाद के जिंदा रहते श्रम को भी देश की सीमाओं के अंदर नहीं बांधा जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि श्रम के इस विस्थापन पर हो रहे शोषण का खात्मा कैसे हो? इसे अगर खत्म नहीं किया जा सकता हो तो न्यूनतम ही कैसे किया जाए? आखिर सरकार की ओर से एक पारदर्शी भरती प्रक्रिया का नियमन क्यों नहीं हो रहा है? आखिर यह चुप्पी किसके हित में खड़ी है? क्या यह मान लिया जाए कि सरकार को इसकी जानकारी ही नहीं है? या फिर मामला मजदूरों से जुड़ा होने के कारण सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है? क्योंकि देश की राजनीति भी देशी-विदेशी पूंजी के हित संवर्धन में जी तोड़ से लगी है, लिहाजा मजदूरों की पीड़ा का उससे कोई सरोकार भी नहीं है.

कहने की बात नहीं कि अपने देश में ही मजदूरों के लिए अच्छे दिनों का खात्मा विकास के नाम पर हो चुका है. मजदूरों के अधिकार व इंसाफ का सवाल बाजार के रहमों करम पर छोड़ा जा चुका है. सच यह है कि मजदूरों को इस व्यवस्था से अब कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए. उसे लुटना ही है चाहे अपने देश का मल्टीनेशनल लूटे या विदेश का. पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरों के इंसाफ का सवाल ही नहीं उठता. उन्हे इस व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए. यह व्यवस्था सिर्फ  शोषण और गुलामी दे सकती है. लुटना उनकी नियति है. यही वजह है कि बेहतर जिंदगी का सपना लिए वे खाड़ी देशों में लुटने को तैयार खड़े हैं. सरकार और राजनीति चुप्पी के साथ लुटेरे मल्टीनेशनल के साथ खड़ी है.

हरे राम मिश्र
लेखक


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