झुग्गियों में नरक भोगता जीवन

Last Updated 30 Jun 2015 01:07:10 AM IST

अपने देश के महाशक्ति बनने और स्मार्ट सिटी के भावी सपने जितने चमक लिए हैं, वर्तमान की हकीकत उतना ही अंधकार लिए है.


झुग्गियों में नरक भोगता जीवन

झुग्गी बस्तियों में जिस तरह से बेतरतीब जीवन सिसक रहा है, वो हमारे परिवेश का बहुत ही अफसोसजनका सच है. हाल ही में ये बात फिर चर्चा का विषय बनी कि इटली की आबादी से भी ज्यादा  लोग हमारे यहां झुग्गियों  में नारकीय जीने को मजबूर हैं. शहरी गरीबी उन्मूलन और आवास मंत्रालय के 2011 के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में   6.5 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं. 1981 में झुग्गीवासियों का यह आंकड़ा 2.79 करोड़ था और यह संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है. एक ओर हमारा देश विकास के पायदान पर आगे  बढ़ रहा है और दूसरी ओर रोजगार और उच्च शिक्षा जैसे कारणों के चलते शहरों की ओर हुए  पलायन ने बीते चार सालों में इस आंकड़े में और इजाफा किया है.

अनुमान है कि 2020 तक भारत की शहरी आबादी 59 करोड़ हो जाएगी. सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना  करने पर सामने आता है कि  इस अवधि में  शहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि  ग्रामीण क्षेत्रों  की  जनसंख्या  नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी. अकेले  राजधानी दिल्ली में हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग बसने आ रहे हैं. परिणाम सबके सामने है. वहां जन सुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है. यही हाल देश के दूसरे महानगरों का भी है. इतना ही नहीं, अब तो छोटे-छोटे औद्योगिक शहरों के आसपास भी मलिन बस्तियां विस्तार पा रही हैं. ऐसे में चिंतनीय यह है कि इस असंतुलित भीड़ के चलते आने वाले समय में जीवन से जुड़े कई संकट आ खड़े होंगें जिनमें आवास की समस्या भी बड़ी समस्या होगी.  आज भी 88 फीसद आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को आवास का संकट झेलना पड़ रहा है. 

आज देश में प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं. आंकड़ों के अनुसार देश के शहरों में 44 प्रतिशत परिवार एक कमरे में गुजारा करते हैं और शौचालय की सुविधा सिर्फ  24 प्रतिशत आबादी के पास है. जैसे-जैसे रोजगार के लिए लोगों का गांवों से शहर की ओर  जाना होगा, यह संकट गहराता जायेगा क्योंकि हमारे यहां शहरों का विकास भी योजनागत रूप से नहीं हुआ है. किसी भी शहर के लिए इस बढ़ते जनदबाव को सहने के लिए उपयुक्त रणनीति नहीं बनाई गयी है.

आवास हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है  लेकिन भारत में इस मूलभूत जरूरत को सही प्रारूप बनाकर न तो समझा गया और न समयोचित कदम उठाये गए. यही वजह है कि नगरीय  समाज आने वाले समय में जो समस्याएं झेलेगा, उसका सबसे बड़ा कारण इन नगरों का बेतरतीब विकास ही होगा. इसी बेतरतीब विकास का नतीजा हैं मलिन बस्तियां.  आजादी के छह दशक बाद भी मलिन बस्तियों की समस्या का कोई  समाधान  नहीं निकल सका है. उलटा राजनीतिक हित साधने की सोच के चलते हर बार चुनाव में इन झुग्गियों में बसने वाले लोगों को उनके आवास स्थायी करने जैसे लालच और दिए जाते हैं. जबकि  अमानवीय हालातों में जी रहे यहां के बाशिंदों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा और बिजली-पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने की तो सोच ही नदारद है. यही वजह है कि सरकारें बदलती हैं पर मलिन बस्तियों की तस्वीर नहीं बदलती. न स्वच्छ हवा, न साफ पानी. स्वस्थ जीवन जीने की हर सुविधा से दूर ये बस्तियां किसी भी देश के माथे पर कलंक के समान हैं.

हालांकि दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं जहां मलिन बस्तियों का निराकरण  पूरी तरह कर लिया गया हो लेकिन झुग्गी बस्तियों में स्वास्थ्य समस्याओं और जीवन स्तर का जो भयावह हाल भारत जैसे विकासशील देशों में है वैसा विकसित देशों में नहीं. विकासशील देशों में गंदी बस्ती की समस्या बेहद गंभीर है. नगरीकरण और औद्योगिकीकरण का योजनगत रूप से फैलवा न होना नई-नई गंदी बस्तियों के विस्तार का कारण बन रहा है. भारत में सभी बड़े नगरों और महानगरों के आसपास झुग्गी बस्तियां विकसित हुई है. हमारे यहां बीते बरसों में न केवल जनसंख्या तेजी से बढ़ी है बल्कि लोगों की जीवन प्रत्याशा भी बढ़ी है. ऐसे में करोड़ों लोग इन बस्तियों में नारकीय जीवन व्यतीत करने को विवश हैं. ये हालात हमारी तरक्की के सारे वादों और दावों की पोल खोलते नजर आते हैं.

कैसी विडम्बना है कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई का धारावी स्लम दुनिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती है. झुग्गी बस्तियों के विस्तार का सबसे कारण नगर नियोजन का अभाव है. महानगरों में अगर गंदी बस्तियों का विकास हो रहा है तो इसका उत्तरदायित्व नगरपालिका और सरकार दोनों को जाता है क्योंकि किसी भी नगर का विकास सुनियोजित और योजनाबद्ध ढंग से किया जाए तो गंदी बस्तियों का विकास संभव ही ना हो. मानवता को शर्मसार करने वाली जीवनयापन की ये परिस्थितियां सचमुच भयावह हैं.

सब कुछ प्रदूषित और कचरे से  अटे ये क्षेत्र स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक हैं. बेतरतीब शहरीकरण की त्रासदी  स्वरूप  सौगात में मिली मलिन बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव वहां के बाशिंदों में आपराधिक प्रवृत्ति को भी बढ़ावा देता है. अभावग्रस्त परिवारों के बच्चे काम उम्र में ही नशाखोरी और गैर कानूनी गतिविधियों के चंगुल में फंस जाते हैं. नतीजा, उनका वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी अधेंरे में गुम हो जाता है.

झुग्गी  बस्तियों का सीधा संबंध तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उस हिसाब से आवास व्यवस्था की कमी से है. समय के साथ यह स्थिति और विकराल होती जा रही है. सोचना जरूरी है कि यह कैसी प्रगति है जिसमें देश का बड़ा तबका अन्धकार में डूबा जीवन जीने को विवश है. एक ओर खाली होते गांव और दूसरी ओर शहरों में बढ़ती भीड़. स्थानीय निकाय और सरकार दोनों को इसमें संतुलन लाने के योजनाबद्ध प्रयास करने होंगें. इसके लिए लघु एवं कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित कर गांवों में रोजगार के संसधानों को बढ़ाना एक सकारात्मक पहल होगी.

मोनिका शर्मा
लेखक


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