समय का पाबंद होना कब सीखेंगे!

Last Updated 29 Jun 2015 05:53:28 AM IST

ऐसा लगता है कि वक्त की कीमत नहीं समझने संबंधी भारतीय मानक समय के कुख्यात मुहावरे को हमारे सरकारी कर्मचारियों ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है.


समय का पाबंद होना कब सीखेंगे!

अन्यथा इस बारे में मोदी सरकार की नाराजगी नजर नहीं आती. खबरें आई हैं कि मोदी सरकार सरकारी मंत्रालयों, विभिन्न विभागों और दफ्तरों में कामकाज की लुंजपुंज शैली से बेहद नाराज है. लगातार आग्रह के बावजूद इसमें कोई सुधार होता नहीं देख सरकार ने अब खास तौर से लेटलतीफ कर्मचारियों पर नजर रखने और उन पर कार्रवाई करने का मन बना लिया है.

इस संबंध में डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) की तरफ से जारी एक निर्देश में कहा गया है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए आदतन देर से दफ्तर आना दंडनीय अपराध है और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई की जा सकती है. इसके लिए सर्विस रूल्स (नौकरी संबंधी नियमावली) का हवाला दिया गया है. कर्मचारियों के लिए समय की पाबंदी सुनिश्चित करने का दायित्व मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों का है. उनके अधिकारियों को कर्मचारियों की उपस्थिति का रिकॉर्ड रखने को कहा गया है. देखा गया है कि जिन कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने के आधुनिक तौर-तरीके अपना लिए गए हैं, वहां भी उपस्थिति का रिकॉर्ड नहीं रखा जाता.

इससे कुछ समय बाद यह पता नहीं चलता कि एक निश्चित समयावधि के बीच कौन-सा कर्मचारी आदतन समय पर नहीं आता रहा है. इस निर्देश में यह भी सुझाया गया है कि एक सरकारी कर्मचारी के लिए एक हफ्ते में 40 घंटे (आठ घंटे प्रतिदिन) की उपस्थिति अनिवार्य है. ऐसी स्थिति में यदि कोई कर्मचारी महीने में दो बार 30 मिनट की देरी से आता है, तो उसे छूट मिल सकती है, लेकिन तीसरी बार इतनी ही देरी पर उसकी आधे दिन की छुट्टी काट ली जाएगी. यही नहीं, यदि वह आदतन ऐसा करता रहता है, तो वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट (अप्रेजल) में उसके बारे में नकारात्मक टिप्पणी की जा सकती है.

सरकारी विभागों में काम के वक्त अधिकारियों-कर्मचारियों का नदारद रहना और अपनी कुर्सी पर देर से आना खासकर तब अखरता है, जब उनके जिम्मे सीधे जनता से जुड़े कामकाज हों. ऐसी स्थिति में लोग लंबी लाइन लगाकर कर्मचारी-अधिकारी के दफ्तर और अपनी सीट पर विराजमान होने का लंबा इंतजार करते रहते हैं. दफ्तर आकर अपनी सीट से गायब हो जाना भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों की आदत में शुमार हो गया है. इन मुश्किलों का समाधान क्या है? संभवत: उपस्थिति को दर्ज करने वाले सिस्टम को दुरु स्त करके इस मर्ज का एक हल खोजा जा सकता है.

अभी ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में उपस्थिति दर्ज करने का पुराना सिस्टम चला आ रहा है, जिसमें कर्मचारी टाइम ऑफिस में रखे रजिस्टर में अपने नाम के आगे हस्ताक्षर करते हैं. इसमें प्राय: समय के उल्लेख का कोई प्रावधान नहीं होता. यदि समय दर्ज किया जाता है, तो जरूरी नहीं कि वह एकदम सही लिखा जाए. यही वजह है कि अब सरकार उपस्थिति दर्ज करने के मौजूदा तौर-तरीकों को खत्म कर उनकी जगह ऐसा बायोमीट्रिक सिस्टम लागू करना चाहती है जो सारे मैन्युअल सिस्टम की जगह ले सके.

आधार एनेबल्ड बायोमीट्रिक अटेंडेंस सिस्टम (एईबीएएस) नामक इस प्रणाली में कर्मचारी की उंगलियों व आंखों की पुतलियों की छाप ली जा सकेगी, जिससे उपस्थिति की धांधलियों पर काफी हद तक रोकथाम की उम्मीद है. पर ये सिर्फ  यांत्रिक उपाय हैं. ऐसे में आशंका आगे भी रहेगी कि बेईमान कर्मचारी इनका कोई न कोई तोड़ निकाल लें. इसलिए बड़ा सवाल नीयत या कार्य संस्कृति का है. अगर नियमों का पालन डंडे के बल पर करवाना पड़े, तो इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है. आखिर हमारे देश में ऐसी कार्य संस्कृति क्यों नहीं बन पा रही है जिसमें वक्त पर दफ्तर आना, सौंपे गए काम और जिम्मेदारी का समर्पण के साथ निर्वाह करना और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना लोग जरूरी समझते हों.

देश में जो नई कॉरपोरेट संस्कृति पनप रही है, उसमें देर से दफ्तर आने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती है. वहां लेट-कमर्स के लिए पर्याप्त दंड की व्यवस्था है जिससे कर्मचारी वक्त के पाबंद रहते हैं. अचरज होता है कि सरकारी कर्मचारियों ने इस बदलाव का जरा भी नोटिस नहीं लिया है और वे इंतजार कर रहे हैं कि सरकार जब तक उन पर पाबंदियां नहीं लगाएगी, तब तक वे नहीं सुधरेंगे. हालांकि कोढ़ में खाज वाले बात यह है कि चुनावी लोकतंत्र के कायदों में बंधी कोई सरकार इसमें भी ज्यादा जोर-जबर्दस्ती नहीं कर पाती है, क्योंकि तब उसे अगले चुनाव में हारने की आशंका होती है. इस सिलसिले में एक दावा यह है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस प्रकार सरकारी कार्यालयों में बायोमीट्रिक अटेंडेंस लागू करवाने की बात कही थी, उससे सरकारी कर्मचारियों में काफी नाराजगी थी और इसका बदला उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराकर लिया.

ऐसी सूरत में सरकारी कर्मचारियों को सख्त कायदों के बल पर दफ्तरों में उपस्थित रहने को मजबूर करना सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. इसलिए ज्यादा जरूरत लोगों को यह समझाने की है कि समय को लेकर उनकी काहिली देश और समाज ही नहीं, खुद उनके लिए भी दिक्कतें पैदा करती है. उन्हें बताने की जरूरत है कि कैसे कई छोटे देशों ने मामूली संसाधनों के बल पर पूरी दुनिया में छा जाने के करिश्मे किए हैं, उसमें उनकी कार्य संस्कृति का बड़ा भारी योगदान है. जापान इसी एशिया का मुल्क है जहां लोग सिर्फ देर से दफ्तर जाना अपराध नहीं मानते, बल्कि ऑफिस पहुंच कर दिए गए काम को नहीं कर पाना भी उनके लिए गुनाह है. जापानी तो इसके लिए ज्यादा बदनाम हैं कि वे जरूरत से ज्यादा काम करते हैं और वक्त के पाबंद हैं. वहां तो कर्मचारियों को जबरन छुट्टी पर जाने को कहा जाता है. जापानी वक्त के किस कदर पाबंद हैं, इसका एक उदाहरण भारत में करीब एक दशक पहले देखने को मिला था. वर्ष 2004 में एक जापानी इंजीनियर मत्सू काजू हिरो अपनी कंपनी के काम से भारत आया था. दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरने के एक घंटे बाद तक जब भारत स्थित कंपनी की इकाई की गाड़ी उसे लेने नहीं पहुंची, तो देरी से खफा मत्सू ने फौरन जापान की फ्लाइट पकड़ ली.

ध्यान रहे कि छोटे-छोटे देशों ने घड़ी की सूइयों के साथ कदमताल करके ही विकसित होने की राह खोली है. अब तो ऐसे उदाहरण देश में ही कई निजी कंपनियां पेश कर रही हैं. उन्होंने लगभग हर कायदे में सरकारी प्रतिष्ठानों से आगे निकलकर साबित कर दिया है कि कार्य संस्कृति को बदलने का कितना बड़ा फर्क किसी संस्थान की तरक्की पर पड़ता है. सरकारी और निजी बैंकों के कामकाज में अंतर तो हर व्यक्ति आज महसूस करता है. लगभग ऐसा ही नजारा हर उस क्षेत्र में है, जहां निजी संस्थान सरकारी संस्थानों के मुकाबले में आ खड़े हुए हैं. देखना है कि क्या बायोमीट्रिक सिस्टम सरकारी कर्मचारियों को वक्त का पाबंद बनाता है या फिर सरकारी दफ्तरों में यह उपाय भी आधुनिकीकरण का महज एक पैबंद बनकर रह जाता है.

 

अभिषेक कुमार
लेखक


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