तनातनी, तकरार और जनता परिवार

Last Updated 04 Jun 2015 01:19:38 AM IST

बिहार एक बार फिर देश की राजनीति की दिशा तय कर सकता है.


तनातनी, तकरार और जनता परिवार

राज्य विधानसभा के चुनाव से सिर्फ  यह नहीं तय होना है कि कौन सत्ता में आएगा. चुनाव के नतीजे इससे बड़े राजनीतिक मुद्दों की दिशा तय कर सकते हैं. मंडल की राजनीति करने वाली जमातों का क्या होगा? कमंडल से विकास के रास्ते पर खड़ी भाजपा के लिए दिल्ली की हार का सिलसिला जारी रहेगा या वह अपवाद बन जाएगा? राहुल गांधी का नया उत्साह क्या मतदाताओं को कांग्रेस के खेमे में लाएगा? बिहार जिस मोड़ पर खड़ा है वहां से उसकी आगे की दिशा केवल जाति नहीं तय करेगी. जो जाति और विकास का संतुलन साधने का भरोसा दिला पाएगा वह विजयी होगा.

जनता परिवार के दलों/घटकों की शात समस्या बिहार में एक बार फिर मंडलवादी राजनेताओं का रास्ता रोके खड़ी है. जनता परिवार को साथ आने के लिए हमेशा एक अदद राजनीतिक दुश्मन की तलाश रहती है. यह पहली बार हो रहा है कि उस दुश्मन की तलाश के बावजूद वे एक नहीं हो पा रहे, क्योंकि समय ने बहुत कुछ बदल दिया है. जनता परिवार के घटक दलों के नेताओं की समस्या यह है कि सब भविष्य की ओर देख रहे हैं. कोई इतिहास से सबक लेना तो दूर वर्तमान को स्वीकारने को भी तैयार नहीं है. सब जानते हैं कि  अगर एक होकर नहीं लड़े तो सब खेत रहेंगे. इसके बावजूद मुख्यमंत्री पद को लेकर गाड़ी अटकी हुई है. इस जमात के नेताओं के अहम उनके राजनीतिक कद से बड़े हो गए हैं.

एक विचित्र-सी स्थिति बन गई है. छह पार्टियों के विलय की घोषणा हो गई है. मुलायम सिंह यादव को उसका अध्यक्ष भी घोषित कर दिया गया है. पर बात यहीं रुक गई है. बिहार की बात करें तो असली मसला नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के मिलने का है. पर दोनों की स्थिति ‘मन ना रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा’ वाली है. मन मिल नहीं रहा और जरूरत कहती है कि मिलो. जिसे पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है उसे न तो कोई पंच बनाने को तैयार है और न ही अध्यक्ष जी पंचायत करने में कोई दिलचस्पी दिखा रहे हैं. नीतीश और लालू आपस में बात करने की बजाय अपने सिपहसालारों के जरिए संवाद कर रहे हैं. शुरू में माना गया कि यह सीटों के बंटवारे में मोलभाव के लिए दबाव की राजनीति है. लेकिन यह सिलसिला रु कने की बजाय बढ़ता जा रहा है. इससे नुकसान दोनों का हो रहा है. सीटों के बंटवारे से बड़ा मुद्दा मुख्यमंत्री पद का बन गया है. लालू को मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार मंजूर नहीं हैं और नीतीश को इसके बिना गठबंधन मंजूर नहीं है.

बिहार में गैर भाजपा दलों में दो ही नेता हैं- लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार. एक के पास वोट है और दूसरे के पास छवि. किसी एक के सहारे जीतने की संभावना नहीं के बराबर है. बाजार की भाषा में कहें तो दोनों अपने-अपने गुणों को परिमाणित करना चाहते हैं. वोट वाले का कहना है कि बिना वोट के कोई मुख्यमंत्री कैसे बनेगा. इसलिए जो वोट लाएगा उसी को तय करना चाहिए कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा. छवि वाला कह रहा है कि वोट लेकर भी दस साल से आप सत्ता से बाहर हैं. वोट के साथ जब तक छवि नहीं मिलती सत्ता नहीं आएगी. लालू के करीबियों का कहना है कि नीतीश को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करते ही यादव और महादलित विद्रोह कर देगा.

नीतीश कुमार के समर्थकों का कहना है कि हमारे नेता के नाम पर भाजपा समर्थक अगड़ी जातियों का एक वर्ग आ सकता है. उनका तर्क है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जीती हुई सीटों से भी कम पर चुनाव लड़ें और मुख्यमंत्री पद भी न मिले तो गठबंधन से फायदा क्या. लालू समर्थक कह रहे हैं कि वह नतीजा तो भाजपा के साथ आया था. लोकसभा चुनाव सबसे ताजा चुनाव है. उसके नतीजों के आधार पर सीटों का बंटवारा होना चाहिए. उनका कहना है कि हम लोग नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए तो दस साल से विपक्ष में बैठे नहीं थे.

नीतीश कुमार समझ रहे हैं कि उनका पक्ष कमजोर है. जीतनराम मांझी से झगड़े ने इतनी मेहनत से बनाया महादलित वोट बैंक तोड़ दिया है. उन्हें यह भी पता है कि अलग लड़े तो मुसलमान लालू के साथ जाएगा. इसलिए जब लालू प्रसाद यादव ने कहा कि सबको कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए, तो नीतीश कुमार समझ गए कि किससे और क्या कुर्बानी मांगी जा रही है. लालू यह भी चाहते हैं कि जीतनराम मांझी से समझौता होना चाहिए. यह जानते हुए भी कि यह बात नीतीश कुमार को कतई मंजूर नहीं होगी. लालू के लोगों का तर्क है कि नीतीश तय कर लें कि उन्हें भाजपा से लड़ना है या मांझी से.

दरअसल, दोनों नेता अपने राजनीतिक जीवन के एक अजीब से मोड़ पर खड़े हैं. सत्रह साल की राजनीतिक दुश्मनी के बाद वे साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं. इसके पीछे कोई सैद्धांतिक मसला और नीतिगत सहमति नहीं है. साथ आने के लिए भाजपा को सांप्रदायिक बताना एक मुखौटा है. नीतीश कुमार के लिए इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं होगा कि सांप्रदायिक भाजपा के साथ सत्रह साल उन्होंने क्यों बिताए. उससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि सांप्रदायिक शक्तियों के विरोध का यह गोंद भी इस बार बहुत प्रभावी नहीं हो रहा.

नीतीश और लालू की समस्या यह है कि वे साथ आना नहीं चाहते. लेकिन साथ आए बिना आगे की गली बंद नजर आ रही है. नीतीश कुमार को लालू के भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, परिवारवाद और पंद्रह साल के जंगल राज की छवि से समझौता करना पड़ रहा है. लालू यादव को अपने से कम वोट वाले को ज्यादा देना अच्छा नहीं लग रहा. पर उन्हें नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि, ईमानदारी और परिवारवाद से दूर रहने की छवि की जरूरत है. लेकिन इसके लिए वे गठबंधन में दूसरे नंबर की हैसियत स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. दोनों को अपने राजनीतिक दुश्मन से जितना खतरा है उससे कम एक-दूसरे से नहीं है. दोनों को लग रहा है कि जो इस समय कमजोर पड़ा वह हमेशा के लिए कमजोर हो जाएगा. लालू के दांव की काट के लिए नीतीश कुमार ने कांग्रेस को पासंग के रूप में इस्तेमाल करके अपना पलड़ा भारी करने की कोशिश की है. कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि अगर गठबंधन नहीं होता है तो वह लालू की बजाय नीतीश कुमार के साथ जाएगी. उसे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार मंजूर हैं.

 कांग्रेस की इस चाल से नीतीश कुमार को ताकत मिलेगी. अब लालू को तय करना है कि वह अलग लड़कर क्या मुस्लिम वोटों के बंटवारे का जोखिम लेने को तैयार हैं? अलग-अलग लड़ने की हालत में भाजपा और जद (यू) के गठबंधन के निशाने पर लालू का जंगल राज और भ्रष्टाचार का मुद्दा होगा. एक बात तो लगभग साफ नजर आ रही है कि गठबंधन के लिए लालू को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार को स्वीकार करना पड़ेगा. इसके बिना गठबंधन की संभावना कम ही लगती है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

प्रदीप सिंह
लेखक


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