अनिवार्य मतदान के औचित्य पर बहस

Last Updated 04 Jun 2015 01:12:42 AM IST

पिछले साल नवम्बर में गुजरात राज्य ने एक बिल पारित कर स्थानीय निकाय चुनावों में मतदान को अनिवार्य कर दिया.


अनिवार्य मतदान के औचित्य पर बहस

गुजरात ऐसा कानून बनाने वाला पहला भारतीय राज्य है. गुजरात विधानसभा ने यह बिल 2009 में ही पास कर दिया था, परंतु राज्य की तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल ने इस बिल को दो बार वापस लौटा दिया था. केंद्र में मोदी सरकार के आगमन के उपरांत गुजरात में नवनियुक्त राज्यपाल ओपी कोहली ने अंतत: इस बिल को सहमति दी. इस वर्ष अक्टूबर माह में गुजरात में 315 स्थानीय निकायों के लिये चुनाव होने हैं. संभावना है कि चुनावों से पहले अनिवार्य मतदान के इस विवादास्पद कानून को लागू करने के लिए राज्य सरकार अधिसूचना जारी कर देगी.

पूर्व राज्यपाल की राय से इत्तेफाक रखते हुए बहुत से विशेषज्ञ इस बिल की संवैधानिक वैधता पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं. उनके अनुसार यह कानून भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जो नागरिकों की निजी स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है) का उल्लंघन करता है. दूसरी तरफ अनिवार्य मतदान बिल के समर्थक यह तर्क दे रहे हैं कि इससे लोगों की निजी स्वतंत्रता को कोई खतरा नहीं है और उनके पास ‘नोटा’ (उपरोक्त में से कोई नहीं) को वोट देकर सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार अब भी उपलब्ध है. गुजरात सरकार द्वारा गठित कपूर कमेटी ने मतदान न करने वाले लोगों पर लगाए जाने वाले जुर्माने अथवा सजा के निर्धारण के लिए आम जनता से सुझाव आमंत्रित किए थे. हालांकि हमें इस कानून के अंतर्गत होने वाली सजा के स्पष्ट प्रावधानों के लिये अभी और इंतजार करना होगा.

सवाल उठता है कि क्या इस प्रकार का प्रावधान दुनिया में कहीं और भी मौजूद है? वर्तमान में दुनिया के लगभग 26 देशों में किसी न किसी प्रकार से अनिवार्य मतदान लागू है. इनमें अज्रेटीना, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर व ब्राजील प्रमुख हैं. यद्यपि इन देशों के कानूनों के अनुसार वोट न देना एक दंडनीय अपराध है, फिर भी इनमें से अधिकांश देश इन दंड प्रावधानों को प्रभावी रूप से लागू नहीं कर पाए हैं. इनमें से कुछ देश, जैसे आस्ट्रेलिया व ब्राजील, मतदान न करने के कुछ जायज कारणों को स्वीकार करते हैं- जैसे, बीमार होना अथवा मतदान के दिन शहर में होने में असमर्थता. ब्राजील में अगर आप वोट नहीं डालते तो संभव है कि आपको पासपोर्ट जारी नहीं किया जाए, वहीं बोलीविया में मतदान न करने पर आप तीन महीनों तक बैंक से अपना वेतन नहीं निकाल पाएंगे. 

बहुत से विशेषज्ञों के मुताबिक निकाय चुनावों में होने वाले कम मतदान के कारण गुजरात सरकार को यह कानून बनाने के लिए विवश होना पड़ा. ये लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान में जहां लोग स्थानीय चुनावों में कोई खास रु चि नहीं दर्शाते हैं, वहीं यह अनिवार्य मतदान कानून लागू होने के बाद लोग अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए जागरूक व प्रेरित होंगे. यहां रोचक तथ्य यह है कि कम मतदान वाले देशों की सूची में हम अकेले नाम नहीं हैं. अमेरिका में 2014 के मध्यावधि चुनावों में 72 सालों के इतिहास में सबसे कम वोटिंग हुई. पंजीकृत वोटरों में से मात्र 36.4 फीसद ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. 2010 के मध्यावधि चुनावों में यह आंकड़ा 41 फीसद था.

जो लोग अनिवार्य मतदान का समर्थन करते हैं, उनका कहना है कि अपने मताधिकार का प्रयोग न करने वाले नागरिक सरकार व इसकी नीतियों की आलोचना करने का नैतिक अधिकार खो देते हैं, क्योंकि मूल रूप से सरकार गठन की प्रक्रिया में उनकी भागीदार थी ही नहीं. उधर, लिबरल विश्लेषक कहते हैं कि एक नागरिक द्वारा वोट न डालने का निर्णय भी तो उसका नकारात्मक (नेगेटिव) वोट डालने का पहलू दर्शित करता है. जैसे कि लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार कहा था कि जो लोग बिना किसी वैध औचित्य के अपने इस संविधान प्रदत्त मूल्यवान अधिकार (मताधिकार) का प्रयोग नहीं करते हैं, वे अनजाने में न चाहते हुए भी सभी उम्मीदवारों के खिलाफ एक प्रकार से नकारात्मक मतदान कर देते हैं.

इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि गुजरात सरकार द्वारा गठित कपूर कमेटी इस कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए नाममात्र के जुर्माने की सिफारिश करेगी. परंतु इस देश और संबंधित राज्य की विशाल जनसंख्या को देखते हुए इस जुर्माने की वसूली कोई आसान काम नहीं होगी. अंततोगत्वा आप जुर्माने की राशि से अधिक तो इसकी वसूली में खर्च कर देंगे.
मनुष्य का स्वभाव नैसर्गिक रूप से उन सभी बातों का विरोध करता है जो ‘अनिवार्य’ हैं, या उस पर थोपी जाती हैं. ब्राजील का उदाहरण लेते हैं- अनिवार्य मतदान वाले इस देश में लोगों ने 1959 में एक निकाय चुनाव में ‘केसार्को’ नामक एक गैंडे को चुनाव जितवा दिया था. चुनावों में अच्छे उम्मीदवारों की कमी से क्षुब्ध लोगों ने विरोध का यह अनोखा तरीका चुना.

नकारात्मक प्रोत्साहन अथवा दंड की अपेक्षा, सकारात्मक प्रोत्साहन अधिक प्रभावी तरीका है. उदाहरण के लिए दिल्ली में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में बहुत से रेस्त्राओं, जिम व सैलूनों ने ‘मतदाता स्याही’ लगी हुई उंगली दिखाने वाले ग्राहकों के लिये छूट (डिस्काउंट) की घोषणा की थी. इस तरह के अभियानों से मतदान प्रतिशत पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसका अध्ययन अभी बाकी है. फिर भी इसे एक सकारात्मक पहल तो कहा ही जा सकता है.

हालिया वर्षो में देश में हुए चुनावों में मतदान प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है. यह वृद्धि देश में हो रही साक्षरता दर में वृद्धि की समानुपाती कही जा सकती है. इस बात को कोई नहीं नकारेगा कि मतदाता जागरूकता का मतदान प्रतिशत बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान है. लोगों को उनके वोट का महत्व समझाने के लिए चुनाव आयोग जगह-जगह बहुत से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर रहा है. इस अभियान को और आगे बढाते हुए सन् 2011 में सरकार ने 25 जनवरी को ‘राष्ट्रीय मतदाता दिवस’ घोषित किया था. पिछले कुछ सालों में बहुत-सी नामी हस्तियों ने भी मतदाता जागरूकता का बीड़ा उठाया है. मतदान का निरंतर बढ़ता प्रतिशत इस बात का प्रमाण है कि उनकी मेहनत रंग भी ला रही है.

अब देखना यह है कि गुजरात में लागू होने वाला अनिवार्य मतदान का यह कानून देश की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक बनता है अथवा सरकार व उसके अधिकारियों की गलफांस बनता है!

डॉ. मुनीश रायजादा
लेखक


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