नीतिगत दरों में कटौती के आसार
आर्थिक विकास के मानकों में से एक प्रमुख मानक जीडीपी का वित्त वर्ष 2014-15 में 7.3 प्रतिशत रहना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए निश्चित रूप से अच्छा संकेत है.
नीतिगत दरों में कटौती के आसार |
इसे अच्छा इसलिए भी माना जा रहा है, क्योंकि यह 7.4 प्रतिशत के अग्रिम आकलन के लगभग करीब है. साथ ही, यह चीन की 2014 की विकास दर (7.4 प्रतिशत) के भी लगभग बराबर है. जीडीपी के नये आंकड़े नये आधार वर्ष 2011-12 के आधार पर जारी किये गये हैं. नई गणना प्रणाली के आधार पर वित्त वर्ष 2013-14 में जीडीपी दर 6.9 प्रतिशत रही थी.
बहरहाल, जीडीपी के ताजा आंकड़े ने साफ कर दिया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हो रहा है. इस बात की पुष्टि विनिर्माण क्षेत्र में आई तेजी से भी होती है. वित्त वर्ष 2014-15 में विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर 6.8 प्रतिशत के आकलन से अधिक (7.1 प्रतिशत) रही, जिसे अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर माना जा सकता है. इधर, औद्योगिक उत्पादन दर भी 4.5 प्रतिशत से बढ़कर 4.8 प्रतिशत हो गयी है. सेवा क्षेत्र में वृद्धि दर दो अंकों में है, जो अनुमान के आसपास है. हां, कृषि क्षेत्र में 0.2 प्रतिशत की वृद्धि दर जरूर चिंता की बात है, क्योंकि चालू वित्त वर्ष में मानसून खराब रहने की आशंका है.
इन आंकड़ों के आधार पर सरकार वित्त वर्ष 2015-16 में 8.1 से 8.5 प्रतिशत विकास दर की उम्मीद कर रही है. ऐसा सोचने का कारण राजकोषीय घाटे में उल्लेखनीय कटौती करना भी है. वित्त वर्ष 2015 में सरकार राजकोषीय घाटे को 4.1 प्रतिशत के लक्ष्य के बनिस्पत घटाकर 4.00 प्रतिशत के स्तर पर ले आई. इससे उत्साहित होकर सरकार ने वित्त वर्ष 2015-16 में राजकोषीय घाटे को 3.9 प्रतिशत के स्तर पर लाने का लक्ष्य रखा है. ऐसे सकारात्मक माहौल में सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक नीतिगत दरों में कटौती करे, ताकि अर्थ प्रणाली में नकदी की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके. प्रणाली में नकदी आने से बैंक कारोबारियों को कर्ज देने में समर्थ हो सकेगी, जिससे औद्योगिक उत्पादन एवं उत्पादों की बिक्री में तेजी आयेगी. साथ ही, इससे औद्योगिक विकास दर में वृद्धि, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, विकास दर में तेजी आदि आ सकती है. रिजर्व बैंक रेपो एवं रिवर्स रेपो द्वारा बाजार की मौद्रिक स्थिति को संतुलित रखता है. केंद्रीय बैंक बाजार में नकदी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए रेपो दर में कटौती करता है. इसी तरह रिवर्स रेपो दर की मदद से रिजर्व बैंक बाजार में उपलब्ध अतिरिक्त नकदी को सोख लेता है. दोनों का इस्तेमाल बाजार में नकदी पर नियंत्रण के लिए किया जाता है.
संपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट के चलते विगत कुछ सालों से सरकारी क्षेत्र के बैंक पूंजी की कमी का सामना कर रहे हैं. गैर निष्पादित आस्तियां (एनपीए) ने बीते सालों में सरकारी बैंकों के मुनाफे में जबर्दस्त सेंध लगायी है. बेसल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को भारी भरकम पूंजी की जरूरत है. इस तरह बैंकों को फिलवक्त लाखों करोड़ रुपये की जरूरत है. ऐसे में बिना रेपो दर में कटौती किये बैंकों के लिए कर्ज दर में कटौती करना संभव नहीं होगा. इस आलोक में कारोबारी लंबे समय से नीतिगत दरों में कटौती की मांग कर रहे हैं. कर्ज दर में कमी आने से लोग गृह, वाहन, कंज्यूमर, पर्सनल आदि कर्ज लेने में समर्थ हो सकेंगे, जिससे वाहनों एवं अन्य उत्पादों की बिक्री में तेजी आयेगी. दरअसल, आज की तारीख में कर्ज के बिना महंगे उत्पादों को खरीदना मुश्किल हो गया है. इधर, बैंक जमा पर मिलने वाला रिटर्न आज इतना कम हो गया है कि उसे महंगाई एक झटके में निगल जा रही है.
मौजूदा समय में ग्राहक को बचत राशि पर बैंक द्वारा महज चार प्रतिशत की दर से ब्याज दिया जा रहा है. आवर्ती या सावधि जमा पर बैंक औसतन 8 से 9 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है. कम रिटर्न के कारण ग्राहक बैंक में अपनी जमा पूंजी रखने से कतरा रहे हैं. माना जा रहा है कि नीतिगत दरों में कटौती से बैंक के पास पूंजी की कमी दूर होगी, जिससे वे कर्ज की दर में कटौती करने के लिए प्रोत्साहित होंगे. मानसून के गड़बड़ होने की आशंका से अनाज एवं खाद्यान पदाथोर्ं के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में बढ़ोतरी होने से महंगाई में इजाफा हो रहा है. अगर महंगाई में इसी तरह बढ़ोतरी होती रही तो मुद्रास्फीति में इजाफा होना लाजिमी है.
रिजर्व बैंक की मुख्य चिंता महंगाई एवं मुद्रास्फीति को लेकर है. इसके गर्वनर रघुराम राजन चाहते हैं कि मुद्रास्फीति को जनवरी, 2016 तक कम करके छह प्रतिशत के स्तर पर लाया जाये. उनके अनुसार सतर्क मौद्रिक नीति समय की मांग है. उनका मानना है कि महंगाई दर में स्थिरता लाकर नीतिगत दरों में कटौती की जा सकती है. इसलिए, राजन की प्राथमिकता महंगाई पर लगाम लगाने की है, क्योंकि महंगाई पर नियंत्रण करके ही देश की अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाई जा सकती है. महंगाई दर कम होने से निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बढ़ेगा, बचत को प्रोत्साहन मिलेगा एवं विकास की रफ्तार को गति मिलेगी. अर्थव्यवस्था में सुधार से कारोबारी माहौल बेहतर होने की उम्मीद है. एफडीआई के नियमों को सरल बनाने, बड़ी योजनाओं की मंजूरी प्रक्रिया को आसान करने, रक्षा एवं बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा बढ़ने से अर्थव्यवस्था में तेजी का आना लाजिमी है.
लब्बोलुबाव के रूप में कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में सुधार होने से देश की प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी, कर्ज की दर पर लगाम लगेगी, बचत की प्रवृति को प्रोत्साहन मिलेगा, रोजगार के अवसर बढ़ेगे, विकास की रफ्तार तेज होगी और आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार आएगा, लेकिन यह सब तभी संभव हो सकेगा, जब अर्थव्यवस्था में चल रही वर्तमान सुधार प्रक्रिया को आगे भी इसी तरह जारी रखा जाये. यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि जीडीपी की गणना नये आधार वर्ष के आधार पर की गई है और नई प्रणाली की विश्वसनीयता को साबित किया जाना बाकी है. इतना ही नहीं, विनिर्माण क्षेत्र के विकास दर की प्रामाणिकता पर अभी भी सवाल उठाये जा रहे हैं.
अत: यह कहना कि देश की अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से बाहर निकल गई है, गलत होगा. अर्थव्यवस्था में अच्छे दिन लाने के लिए सरकार को अभी लंबा सफर तय करने की जरूरत है. लिहाजा, सरकार को खुश होने की बजाए, इस दिशा में लगातार प्रयास करते रहना चाहिए. हां, इस दिशा में नीतिगत दरों में कटौती करने से अर्थव्यवस्था में मजबूती का आना निश्चित है, क्योंकि कर्ज दर में कमी आने से औद्योगिक विकास दर में तेजी, रोजगार के अवसर में वृद्धि एवं विकास दर में इजाफा होना स्वाभाविक है. बैंक फिलहाल पूंजी की कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए नीतिगत दरों में कटौती के बाद ही वे इस दिशा में सकारात्मक कदम उठा सकते हैं.
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