जारी है भूमि अधिग्रहण पर घमासान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में एक बार फिर जमीन अधिग्रहण बिल संबंधी अध्यादेश के फैसले पर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है.
जारी है भूमि अधिग्रहण पर घमासान |
सरकार के इस फैसले की जहां कुछ लोग फिर से कड़ी आलोचना कर रहे हैं, वहीं कुछ समर्थन में भी बोल रहे हैं. पिछले साल दिसम्बर में लोकसभा ने इसे संशोधनों के साथ पारित कर दिया था लेकिन राज्यसभा में संख्या बल की कमी की वजह से सरकार इसे पारित नहीं करा सकी. इस साल मार्च में अध्यादेश दोबारा जारी किया गया था जिसकी अवधि 3 जून को समाप्त हो रही है. संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून संसद की संयुक्त समिति के समक्ष विचाराधीन है. संसद के इस बार के बजट सत्र में भी इसे कानून में नहीं बदला जा सका था लिहाजा सरकार ने एक बार फिर अध्यादेश का रास्ता अख्तियार किया है.
कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल मोदी सरकार के इस जमीन अधिग्रहण कानून के विरोध में हैं और इसके खिलाफ अभियान चला रहे हैं. सोनिया गांधी के नेतृत्व में पूरा विपक्ष इसके विरोध में एकजुट है. विपक्षी दलों की मांग है कि यूपीए शासनकाल में पारित भूमि अधिग्रहण विधेयक को ही मौजूदा सरकार पारित करे जबकि सरकार का कहना है कि संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल वक्त की मांग है. सरकार की राय में अध्यादेश का मकसद धीमी पड़ी विकास दर को तेज करना और उन परियोजनाओं को शुरू करना है जो ‘भू-अधिग्रहण समस्याओं’ के कारण रुकी हुई हैं लेकिन विरोधियों का कहना है कि हकीकत में अधिकांश परियोजनाएं फंड या बाजार के प्रभावों का शिकार हैं. फिर क्यों अध्यादेश को ‘विकास के लिए जरूरी परियोजनाओं का रास्ता’ बता देश के गरीब, किसानों और मजदूरों के साथ अन्याय किया जा रहा है?
‘राइट्स एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव’ और ‘सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट’ के मुताबिक आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की आशंका है. रिपोर्ट के मुताबिक गरीब ग्रामीण भारत के संसाधनों का दोहन जारी है और इसकी वजह से पूरे भारत के लगभग सभी राज्यों में संघर्ष की स्थितियां पैदा हो रही हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भी चीन, दक्षिण कोरिया और सऊदी अरब जैसे देशों की कतार में शामिल हो गया है, जहां ‘जमीन का संकट’ है. ये देश विकासशील देशों की मुख्य आजीविका के स्रोत खेती की जमीन छीन रहे हैं.
भारत में लगातार हो रहे भूमि अधिग्रहण पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011 के बाद से 130 जिलों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं जो देश में विकास की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक के रूप में उभर रहा है. हर राज्य और क्षेत्र में आदिवासी जमीन संबंधी विवादों में उलझे हैं और तमाम विवाद अनसुलझे पड़े हैं.
बहरहाल, भारत में विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक पर हंगामा बढ़ता ही जा रहा है. विपक्ष इस विधेयक को भारतीय किसानों के हितों के खिलाफ बता रहा है. नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो खास परियोजनाओं के लिए कानून को आसान बनाते हैं. मोदी सरकार का कहना है कि इससे देश भर में अरबों डॉलर की रुकी पड़ी परियोजनायों को शुरू किया जा सकेगा.
भारत में आधी से ज्यादा आबादी के लिए रोजी-रोटी का प्रमुख साधन भूमि है. एक दशक पहले तक एक किसान के पास औसतन तीन एकड़ जमीन होती थी, जो और भी घट गई है. केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है. इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमेरिका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में इससे भी अधिक है. भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है. देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 13.7 फीसद है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है. इस तरह जमीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है. यह एक गंभीर समस्या है जो भारत की गरीबी के मूल कारणों में से एक है.
एक अनुमान के मुताबिक, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसद हिस्सा यानी पांच करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है. इस अधिग्रहण से पांच करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं. भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को जमीन की काफी कम कीमत मिली. कई को तो अब तक कुछ नहीं मिला और जमीन के सहारे रोजी-रोटी कमाने वाले भूमिहीनों की इस मामले में कोई सुनवाई ही नहीं है. इस मामले में सबसे ज्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ.
कल तक भूमि अधिग्रहण विधेयक में जरूरी संशोधन किए जाने का राग अलापने वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी ने अब उसे वाजिब और किसानों के हक में बताने का बीड़ा उठा लिया है. लेकिन उनकी दलील किसी भी किसान के गले नहीं उतर रही. विरोधाभास यह है कि जहां किसान इस विधेयक को अपने लिए विपत्ति बता रहे हैं, वहीं सरकार इसे किसान हितैषी बता रही है. सवाल है कि आखिर यह कैसा हित है, जो किसानों को नजर नहीं आ रहा है. इसमे दो राय नहीं कि जमीन किसान की संपत्ति है, सरकार द्वारा उसे उसकी इजाजत के बगैर क्यों अधिग्रहीत किया जाना चाहिए. हमारे देश में पूंजीपतियों और औद्योगिक घरानों के पास अकूत संपत्ति है, क्या उनकी इजाजत के बगैर सरकार उसका अधिग्रहण कर सकती है? जाहिर है नहीं. तब किसानों की संपत्ति का अधिग्रहण करने के लिए इतनी उतावली क्यों है.
बहरहाल, असली समस्या यह है कि कृषि एक घाटे का सौदा बन चुकी है और अधिकांश किसान खेती छोड़ना चाहते हैं. अगर सरकार वास्तव में किसानों का भला करना चाहती है, तो उसे एक ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए, जिससे किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिल सके. इसके अलावा सिंचाई की व्यवस्था, बाजार तक पहुंच व कृषि संबंधी अधिसंरचना तैयार करना जरूरी है. लेकिन मौजूदा सरकार का ध्यान इस ओर न होकर केवल भूमि अधिग्रहण पर टिका है.
यह स्थिति किसानों के लिए दोहरी मुसीबत का सबब बन रही है. एक ओर उको उनकी फसल का वाजिब दाम नहीं मिला रहा है और दूसरी ओर उनकी बची-खुची जमीन भी अधिग्रहण के नाम पर लेने का कुचक्र चल रहा है. ऐसे में छोटे और मंझोले किसानों के सामने दिहाड़ी मजदूर बनने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाएगा, जिससे आखिरकार बेरोजगारी ही बढ़ेगी. कृषि हमारे देश का एक ऐसा क्षेत्र है, जिससे लगभग 33 करोड़ लोग रोजगार पाते हैं. क्या सरकार के पास ऐसा कोई तंत्र है, जिसके जरिए इतने लोगों को रोजगार दिया जा सके? भूमि अधिग्रहण विधेयक में सबसे अहम सवाल यही होना चाहिए कि जो भी किसान या काश्तकार अपनी भूमि से बेदखल किया जाए, सबसे पहले उसकी रोजी-रोटी का माकूल बंदोबस्त किया जाए.
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