प्रचार की सीमा

Last Updated 31 May 2015 01:24:47 AM IST

निश्चय ही यह मीडिया का असर है या कि मीडिया जनित पारदर्शिता का नया दबाव है या कि जनता को हर समय अपने किए धरे को बताने का बढ़ता आग्रह है कि आजकल हर सरकार दिनों के हिसाब अपने किए के बारे में बताने लगी है.


सुधीश पचौरी, लेखक

यह शायद सरकारों के ऑनलाइन होने, रहने और बताने की आकुलता का परिणाम है कि अब हर सरकार अपने कामकाज का लेखाजोखा देने को तत्पर रहने लगी है.

यह अच्छा भी है क्योंकि सब समझ गए है कि अब कुछ भी चुपके-चुपके नहीं किया जा सकता. ये गा-बजाकर बताने के दिन हैं, अपने किए को ‘प्रदर्शित’ ही नहीं ‘समारोहित’ करने के दिन हैं. ये सरकारों के ‘पीआर’ करने के दिन हैं. यह सरकार और जनता के बीच ‘तीखी सम्मुखता’ का दौर है. मीडिया ने हर चीज को एक ‘बाइट’ एक सूचना, एक चिह्न, एक दृश्य में ढालने की सुविधा दी है. यह मीडिया निर्मित ‘पब्लिक डोमेन’ का नया इलाका है जिसमें सरकार अपने डॉट कॉम और ट्विटर हैंडिल के साथ अगर मौजूद नहीं है तो चाहे वह दफ्तर में हो और लाख कमेरी हो, वह न होने बराबर होती है. ‘पब्लिक डोमेन’ ही आज सरकारों का ‘मुखपृष्ठ’ है, वही नेताओं का ‘चेहरा’ है जिससे वे सबके लिए ‘अपने’ बन सकते हैं. शायद इसीलिए इन दिनों हर समय सूचित रहने का दबाव इतना है कि अब सरकारें अपने किए धरे के बारे में बढ़-चढ़ कर बताने में यकीन करती है. मीडिया के दबाव के कारण सरकारों को हर समय अपना हिसाब-किताब लिए हुए तैयार रहना पड़ता है. इसीलिए वे सुविज्ञप्त रहना चाहती हैं. इसीलिए विज्ञापन पर जोर देती हैं.

अब तक हमारे सामने नेता और सरकार तभी आया करती थी जब कहीं किसी योजना का शिलान्यास होता था, किसी भवन, सड़क या पुल आदि का उद्घाटन होता था. उसका एक सूखा-सा विज्ञापन होता और अगले रोज खबर बनती. लेकिन अब अगले रोज खबर बनाने से काम नहीं चलता. हर रोज हर समय खबर देने से काम निकलता है. इसीलिए हर कामकाज की सूची विज्ञापनों में दी जाती है. इसी महीने हमने दो-तीन घटनाएं ऐसी देखी हैं जो सरकारों और मीडिया के नए संबंधों के बारे में कुछ नया बताती हैं. सरकारें अब हर दिन का हिसाब देने को बाध्य हैं और नेता अपने हर कामकाज को सबको बताने के लिए मजबूर हैं.

लेकिन सब सरकारें समान भाव से ‘मीडिया सावी’ नहीं है. अब भी बहुत-सी सरकारें प्रिंट पर ज्यादा निर्भर हैं, जबकि कुछ सरकारें ऑनलाइन हो गई हैं. इस क्रम में केंद्र सरकार सबसे आगे है. हम देखते हैं कि केंद्र सरकार अपनी सालभर की उपलब्धियों को बताने के लिए ‘मीडिया ब्लिट्जकीग’ की रणनीति अपना रही है. पांच सौ जनसभाएं, मीडिया में चौतरफा विज्ञापनों की आंधी, टीवी और रेडियो में उपलिब्धयों को गिनाने वाली ‘जिंगलें’ और एक नए चैनल ‘किसान चैनल’ की शुरुआत हो रही है ताकि आम जनता और खासकर किसान तक समझें कि पिछले एक बरस में जनता जनार्दन के लिए क्या-क्या किया गया है. यह नया आइडिया है. प्रिंट से लेकर रेडियो, टीवी और तमाम सोशल नेटवकरे पर यह सरकार अपने कामकाज के साथ मौजूद है और उनके औचित्य को बताने के अपने दर्जनों प्रवक्ताओं और सैकड़ों साइबर योद्धाओं के साथ मौजूद है.

प्रसंगवश बता दें कि ‘ब्लिट्जकीग’ शब्द हिटलर द्वारा शुरू की गई एकदम नई ‘रणनीति’ के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है जिसके अंतर्गत हिटलर जल, थल, नभ, कूटनीति और सूचना संजाल से एक साथ दुश्मन पर हमला करता था और दुश्मन हक्का-बक्का रह जाता था. जब तक वह होश संभालता था तब तक हिटलर की सेनाएं आगे बढ़ कर उसके राज्य को जीत लेती थीं.

बहरहाल, बहुत से लोग अभी तक पुराने ढंग के संकोची नेताओं को अपना आदर्श समझते हैं जो सरकारों के इस कदर ‘नित्य प्रदर्शन प्रिय’ होने के आदी नहीं है, जो सरकार से अपने काम का तमाशा बनाने की उम्मीद नहीं करते और हर तमाशे को छिछोरापन मानते हैं. वे शायद इस नए ‘मीडिया ब्लिट्जकीग’ की ताकत और महत्व को नहीं समझ पाते. लेकिन यह तो होना है क्योंकि मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया ने मिलजुल कर ऐसा वातावरण बना डाला है कि अब हर चीज ‘प्रदर्शनीय’ और ‘रूपंकरी’;परफारमेटि यानी ‘लीला’ बन गई है,‘तमाशा’ बन गई है. यह लीला भी नित्य की लीला है. रीयल टाइम की लीला है.

इस निरंतर रूपंकरता में रहने के अपने ‘फायदे’ और ‘नुकसान’ हैं. फायदा यह है कि आप कामकाज को दिखा कर, उसे गा-बजा कर अपने आलोचकों को न केवल निरुत्तर करते रह सकते हैं, बल्कि शर्मिदा तक कर सकते हैं. नुकसान यह है कि इसके लिए आपको दिन-रात काम करना होगा और हर समय जनता को बताना होगा कि हमने ये किया, वो किया. जबकि जनता ‘साक्षात उपलब्धि’ यानी हमें क्या मिला, हमारे हाथ क्या आया, हमने क्या पाया, जो मिला क्या हम उसे दूसरे को दिखा सकते हैं कि हमें यह मिला-इत्यादि में यकीन करती है.

नीतियों के बारे में बताना, योजनाओं के बारे में बताना एक बात है और उनके लाभ ठोस रूप में हरेक तक पहुंचे कि नहीं, इसको पक्का करना और बात है. अगर एक लाभ न पहुंचा तो जनता कहेगी कि नहीं मिला, नहीं मिला, नहीं मिला. और एक रिस्क और भी है कि जनता यह भी कह सकती है कि हमें यह इस रूप में तो नहीं चाहिए था, हमें तो उस रूप में चाहिए था. यानी लालची राजनीति द्वारा लालची उपभोक्ता बना दी गई जनता को हर समय तुष्ट करना एक असंभव-सा कार्य है.

इसलिए अधिक प्रचार के जितने फायदे हैं, उतने ही नुकसान भी हैं. अति प्रचार करने वालों को इसे समझना जरूरी है.



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