ये पागल और सिरफिरे लोग

Last Updated 31 May 2015 01:17:21 AM IST

क्या ये सचमुच पागल और सिरफिरे लोग हैं? ये लोग जो इस निहायत ही बदचलन और बेहूदे वक्त में भी कुछ अच्छा और भला हो जाने की उम्मीद लगाए रहते हैं.


विभांशु दिव्याल, लेखक

जो सोचते हैं कि इस देश और समाज से भ्रष्टाचार मिट जाएगा, यहां के नेताओं और अफसरों में विचार-व्यवहार की ईमानदारी पैदा होगी, लोगों के अंदर अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के प्रति जागरूकता आएगी, आम आदमी के हितों के नाम पर भद्दे, फूहड़, अश्लील और बेशर्म नाटक नहीं होंगे बल्कि सार्थक और संवेदनशील प्रयास होंगे और एक दिन सचमुच ऐसा समाज स्थापित होगा जिसमें जाति-धर्म के नाम पर दंगे-फसाद नहीं होंगे, अभद्र भेदभाव नहीं होंगे, एक-दूसरे की वास्तविक समस्याओं के प्रति समझदारी पैदा होगी और ऐेसी आपसदारी पैदा होगी जिसमें क्षुद्र पहचानें नहीं बल्कि मनुष्यत्व की विराटता सवरेपरि होगी. क्या ये लोग मूर्ख हैं जो जब-तब उठने वाली बदलावकारी आवाजों पर भरोसा कर लेते हैं, उन्हें अपनी आवाज बना लेते हैं और उनके पीछे चल देते हैं.

जब किसी जिम्मेदार पदासीन व्यक्ति को नंगा दुराचरण करते देखते हैं तो उसके विरुद्ध न केवल आवाज उठाते हैं बल्कि इस भ्रष्ट व्यवस्था के मजबूत पायों के बावजूद उसे दंडित कराने का प्रयास करते हैं. ये लोग जो अपनी सुविधा और सुरक्षा की कीमत पर दूसरों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते हैं, सेवा के ढोंग-पाखंड से इतर दूसरों के दुख-दर्द में शामिल होने को अपना नागर कर्तव्य समझते हैं और नफरत-विद्वेष के हजार प्रवाहों के बीच भी अपनी संवेदनाओं को मरने नहीं देते, क्या नाकारा-नासमझ-नादान हैं?
आप चाहें तो अपनी भिन्न राय रख सकते हैं, लेकिन आम, प्रचलित और व्यावहारिक राय यही है.

ऐसे लोगों को कुछ महामनाओं की ओर से प्रशस्ति जरूर मिल जाती होगी मगर इनके मित्रों, रिश्तेदारों, परिचितों या शुभचिंतकों से पूछिए तो उनकी नजरों में ये लोग मूर्ख हैं जो उनके किसी काम के नहीं. आधुनिक भारतीय समाज का यही मुहावरा है. मतलब यह कि लोग ऐसे व्यक्तियों को ही योग्य, कुशल, सक्षम और सफल मानते हैं जो अपने बुद्धिबल या अपने बाहुबल से पर्याप्त प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं, पर्याप्त धन अर्जित कर लेते हैं और अपने परिवार के साथ-साथ अपने भाई-भतीजों, मित्रों-परिचितों, चमचों-चाटुकारों को लाभ पहुंचा सकते हैं, भले ही आम समाज को उनकी स्याह-सफेद करतूतों की भारी कीमत चुकानी पड़ रही हो.

ऐसे व्यक्तियों की समूची नैतिकता येन-केन-प्रकारेण सत्ता अर्जित करने में निहित होती है और सत्ता अर्जन की प्रक्रिया में जो सबसे बड़ा बाधक तत्व होता है यानी संवेदनशीलता, उसे वे सबसे पहले काटकर किनारे कर देते हैं. उस संवेदनशीलता को जिसमें दूसरों के प्रति चिंताएं शामिल होती हैं. मौजूदा भारतीय समाज इन सत्ताकामी व्यक्तियों और समूहों का खुला और नंगा अखाड़ा बना हुआ है जिसमें किसी भी सभ्य, संवेदनशील, उदार और परहित चिंतक व्यक्ति के लिए जगह कम से कमतर होती जा रही है.

दूसरी ओर, किसी भी सामाजिक निर्मिति की अवधारणा इन्हीं जीवन मूल्यों पर यानी उदारता, करुणा, परहित, सहकार जैसे जीवन मूल्यों पर टिकती है. कोई समाज-सक्रिय व्यक्ति, समूह या संगठन इनकी बात किए बिना अपने अस्तित्व को समाज सापेक्ष सिद्ध नहीं कर सकता. चाहे कोई धर्म हो या राजनीतिक विचार या इनके आधार पर खड़ी की गई कोई भी संस्था या गठित किया गया कोई भी राजनीतिक दल, लोगों के कल्याण की बात किए बिना, गरीबों के हित की दुहाई दिए बिना, दीन-दुखियों के दर्द दूर करने के प्रवचनों के बिना और स्वयं को इंसानियत का प्रवक्ता या पैरोकार घोषित किए बिना अपने होने को सही नहीं ठहरा सकता.

लोगों के बीच अपनी स्वीकृति नहीं बना सकता. क्या आपने किसी धर्म-मजहब के ऐसे गुरु, आचार्य, ग्रंथी, मौलाना को देखा-सुना है जो अपने अनुयाइयों के भले की बात न करता हो या उन्हें लोक-परलोक सुधारने की सीख न देता हो, क्या आपने किसी भी राजनीतिक दल के किसी ऐसे नेता को देखा-सुना है जो जनता और देश के हित की बात न करता हो और खुद को आपाद आम लोगों के लिए जीने वाला न बताता हो, क्या आपने किसी ऐसे व्यवसायी या कंपनी मालिक के बारे में सुना है जो अपने उत्पाद को राष्ट्रहित में या उपभोक्ता के सुख के लिए बना हुआ न दिखाता हो. लेकिन क्या सचमुच सच वही होता है जो ये लोग सुनाते और दिखाते हैं.

दरअसल, इन सारी जमातों ने उदात्त जीवनमूल्यों का एक विषैला आडंबर और पाखंड खड़ा कर दिया है. उदात्त जीवन मूल्यों के नाम से इनका जो अलग-अलग और संयुक्त महानाट्य चलता है उसके पीछे वास्तविक इरादे निजी स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के होते हैं. और इनका यह वह चरित्र है जिसे सामान्य लोग भलीभांति पहचानते हैं लेकिन इसके विरोध में कुछ कर नहीं पाते. इस परिस्थिति में ज्यादातर लोग आडंबर और पाखंड को अपने जीवन का हिस्सा बना लेते हैं.

अपने-अपने धर्म-मजहब, अपने-अपने चहेते राजनीतिक दल के पाखंड-प्रणोताओं के साथ अपने आपको जोड़ देते हैं, क्योंकि इसमें उनके स्वार्थ की भी सिद्धि होती है. यह वह भ्रष्ट और विकृत जनचेतना होती है जिसके बल पर पाखंडपालकों और मुखौटाधारियों की सत्ता कायम रहती है. मगर इसके चलते ईमानदार-संवेदनशील लोगों, शारीरिक-सामाजिक तौर पर कमजोर वगरे और शांति-सद्भाव के साथ जीने की कामना रखने वाले लोगों का जीवन दूभर हो जाता है, जैसा कि इस समय हो गया है.

वर्तमान दौर में इन पाखंडजनित भ्रष्ट और जनविरोधी समूहों और व्यक्तियों के विरुद्ध सही और सार्थक आवाजों का उठना बंद हो गया है, और अगर यदाकदा ऐसी आवाजें उठती भी हैं तो या तो उनका समावेशन कर लिया जाता है या फिर उन्हें कुचल दिया जाता है. फिर भी कुछ पागल और सिरफिरे लोग ऐसे होते हैं जो अन्याय के विरुद्ध अपनी वाणी को मुखर रखते हैं और अपने कर्म द्वारा सत्ताभोगी भ्रष्ट और अपराधी तत्वों को चुनौती देते रहते हैं. और ये सिरफिरे लोग ही बार-बार यह प्रमाणित करते हैं कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, आग अभी बाकी है.



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