परत दर परत : लोकतंत्र के गढ़ में एक बेतुका विवाद

Last Updated 31 May 2015 01:09:21 AM IST

देश की राजधानी दिल्ली में एक ऐसी बेतुकी बहस चल रही है जो हमारी लोकतांत्रिक राजनीति की अपरिपक्वता को साबित करने के लिए पर्याप्त है.


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एवं दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग (फाइल फोटो)

मुख्यमंत्री या दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर यह रस्साकशी दिल्ली के प्रबुद्ध मतदाताओं का अपमान है जिन्होंने भारी बहुमत देकर अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के प्रशासन का नेतृत्व करने के लिए चुना. सच्चे अर्थों में केजरीवाल ही दिल्ली की जनता के प्रतिनिधि हैं- उपराज्यपाल नजीब जंग नहीं.

कहा जा रहा है कि चूंकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिए दिल्ली सरकार के अधिकारों की तुलना राज्य सरकारों से नहीं की जा सकती. दिल्ली के मामले में केंद्र सरकार ने बहुत-से महत्वपूर्ण हथियार अपने हाथ में रख छोड़े हैं, जैसे पुलिस और जमीन. ये हथियार केंद्र के हाथ में होने चाहिए या नहीं, यह एक अलग प्रश्न है. बहुत-से लोगों की राय में और मैं भी इसी राय का हूं कि शासन के संघात्मक ढांचे को देखते हुए केंद्र सरकार को दिल्ली सरकार के कामों में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए अर्थात दिल्ली को प्रशासनिक मामलों में अन्य राज्यों की तरह ही स्वायत्त होना चाहिए. जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, वैसे ही एक राज्य या शहर या शहर-राज्य में दो सत्ताएं एक साथ नहीं चल सकतीं.

यह बात उसी समय स्पष्ट हो जानी चाहिए थी जब दिल्ली प्रशासन को विधानसभा का अधिकार दिया गया था. कायदे से विधानसभा देते हुए केंद्र को चाहिए था कि वह दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दे देता, जिससे दिल्ली सरकार को वे सभी अधिकार हासिल हो गए होते जो अन्य राज्यों को संविधान द्वारा दिए गए थे. अगर यह मंजूर नहीं था, तो दिल्ली में चुनाव कराने की जरूरत ही नहीं थी. केंद्र सरकार दिल्ली को अपना उपनिवेश मान कर जैसे पहले चला रही थी, वैसे ही अब भी चला रही होती.

कहने की जरूरत नहीं कि यह दिल्ली सरकार को नगर निगम का दर्जा देने जैसा होता. अब भी केंद्र यही चाहता है कि दिल्ली सरकार पानी, बिजली, सफाई आदि के काम ही देखे तथा शेष महत्वपूर्ण काम केंद्र के हाथ में बने रहें. लेकिन यह व्यवस्था बहुत दिनों तक चल नहीं सकती, क्योंकि दिल्ली में विधानसभा नाम का एक प्रेत पैदा हो गया है, जिसे अपने लिए संविधान का एक पाव मांस चाहिए. सांप पर अधूरा हमला और इच्छा की आंशिक तृप्ति एक जितने खतरनाक हैं. इसलिए खूब सावधानी बरतते हुए भी यह भविष्यवाणी आसानी से की जा सकती है कि दिल्ली पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल किए बिना नहीं मानेगी. इसलिए उसी राह पर चलते जाना उपयुक्त होगा- उसकी रफ्तार को तोड़ने की कोशिश बेकार साबित होगी. इसलिए भविष्य केजरीवाल के पक्ष में है, नजीब जंग या नरेंद्र मोदी के हाथ में है.

जहां तक अफसरों की नियुक्ति और उनका तबादला करने का अधिकार किसे है, इस विवाद का संबंध है, वर्तमान द्वंद्व बहुत बचकाना है या फिर आम आदमी पार्टी की सरकार को निष्फल बनाने की कोशिश का अंग. जैसे मुख्यमंत्री को उपराज्यपाल से सामंजस्य बना कर चलना चाहिए, वैसे ही उपराज्यपाल का यह फर्ज है कि वह मुख्यमंत्री की भावनाओं का सम्मान करें. आखिरकार उपराज्यपाल स्वयं एक अफसर हैं, जबकि केजरीवाल नेता और जनप्रतिनिधि हैं. केजरीवाल दिल्ली की जनता के प्रति सीधे जिम्मेदार हैं, जबकि जंग की सीधी जिम्मेदारी केंद्र के प्रति है. इसीलिए उपराज्यपाल दिल्ली का आदमी ही हो, यह जरूरी नहीं है- वह किसी भी राज्य का आदमी हो सकता है, जबकि मुख्यमंत्री के लिए यह अनिवार्य है कि उसका रजिस्ट्रेशन दिल्ली की मतदाता सूची में होना चाहिए.

बिना इस रजिस्ट्रेशन के कोई भी व्यक्ति दिल्ली विधानसभा के लिए चुनाव नहीं लड़ सकता. इस दृष्टि से देखा जाए तो दिल्ली का मुख्यमंत्री उपराज्यपाल की तुलना में दिल्ली की जनता के ज्यादा करीब है. उसकी जिम्मेदारियां बहुत ज्यादा है, इसलिए उसके पास अधिकार भी ज्यादा होने चाहिए. अपने अफसरों पर उसका नियंत्रण नहीं होगा, तो वह सरकार कैसे चलाएगा? क्या वह वोट जनता से मांगेगा और सेवा उपराज्यपाल की करेगा? उपराज्यपाल और केंद्र केजरीवाल को बबुआ बना कर रखना चाहते हैं. यह लोकतंत्र को घरतंत्र में बदलने की इच्छा है, जिसके कुंठित होने में ही दिल्ली और देश दोनों की भलाई है.

स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद जो द्वंद्व पैदा हो रहे हैं, वे पहले क्यों नहीं उठे? यह सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह पहले के मुख्यमंत्रियों और केजरीवाल के मुख्यमंत्रित्व के बीच एक बुनियादी फर्क को रेखांकित करता है. वास्तव में पहले के मुख्यमंत्री- वे चाहें कांग्रेस के रहे हों या भारतीय जनता पार्टी के- राजनीतिक दृष्टि से महत्वाकांक्षी नहीं थे, इसीलिए अपने आप को एक बड़े शहर के महापौर से ज्यादा नहीं समझते थे. दोनों ही दल विपक्ष में होते थे तब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग करते थे और सत्ता में आते ही इस मांग को असुविधाजनक मान लेते थे. उन्हें बड़ी सत्ता नहीं चाहिए थी, वे छोटी सत्ता के मालिक बन कर संतुष्ट थे. लेकिन आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल परंपरागत किस्म के राजनीतिज्ञ नहीं हैं. वे लंका में रहने नहीं, लंका को ध्वस्त करने आए हैं. इसलिए उस केंद्र के साथ उनका टकराव स्वाभाविक ही नहीं, उचित भी है जो समय-समय पर दिल्ली सरकार की राह में रोड़े लगा कर दिल्ली की जनता के बहुमत का अपमान करना चाहता है.

राजकिशोर
लेखक


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