आत्मीयता प्रकृति है क्रूरता विकृति
आत्मीयता प्रकृति है और क्रूरता मानसिक विकृति. संपूर्ण प्रकृति के प्रति आत्मभाव और आचरण संस्कृति है.
हृदयनारायण दीक्षित, लेखक |
गाय अहिंसक प्राणी है. प्रीतिपूर्ण आत्मीय और मानव समाज की परिजन. संविधान के नीति निदेशक तत्वों में गोवंश संरक्षण के निर्देश हैं. गो-संरक्षण समाज की संवैधानिक जिम्मेदारी है. लेकिन इस प्रश्न पर मतभिन्नता है. यह प्रश्न राजनीतिक या धार्मिक नहीं. इसे संवेदना के तल पर समझने की गहन आवश्यकता है. 2014 में पशु वधशालाओं में जानवरों के मारे जाने के तरीके पर सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका थी. सरकार की तरफ से कहा गया था कि कानून में मांस के लिए पशुओं को मारने और काटने का तरीका सुनिश्चित है. बूचड़खानों में मांस के लिए पशुओं को मारने से पहले उन्हें बेहोश किया जाना अनिवार्य है. इससे पशुओं को कष्ट नहीं होता. सरकारी जवाब में मारने के पहले बेहोशी के लिए पशुओं के सिर पर बिजली का करेंट देने आदि के उल्लेख किए गए थे.
जानवर कटते हैं. व्यथित मन पशु वधशाला में चला जाता है. वे पंक्तिबद्ध हैं. हमारे जैसे संवेदनशील, असहाय और लाचार हैं. लगता है कि हम सब भी उसी कतार में खड़े हैं. अपनी बारी की प्रतीक्षा में. सिर पर करेंट है. आरा चला कि रक्त धारा बह रही है. सूख गई हैं आंखें. पशुओं, पक्षियों को देखना आनंददायी है. देखने की अपनी-अपनी दृष्टि होती है. किसान उन्हें प्यार करते हैं, उनसे काम भी लेते हैं. यह उपयोगितावादी दृष्टि है, लेकिन पशु अपनी जीवनयात्रा पूरी कर लेते हैं. आधुनिक समाज में भी हरेक कर्मकांड में गाय, कुत्ते, चींटी और पक्षियों को भोजन देने की परंपरा है. सब जिएं. अपने रस छंद और अपने प्रवाह में.
हम भी जिएं. पशु, पक्षी भी क्यों न जिएं? राम और कृष्ण भारत के मन के महानायक हैं. राम गो-उपासक हैं, पशुधन रक्षक हैं. श्रीकृष्ण सीधे गोपाल हैं. उनके ही देश में पशुधन पर आरे चल रहे हैं. ऋग्वेद के समय हमारे पूर्वज सतर्क थे. उन्होंने कहा गाय अबध्य है, जो गोहंता हैं, उन्हें दंडित करो. गोशाला बनाओ. आदर करो गाय का, गोवंश का. सभी प्राणियों का. संवेदनहीन भौतिकवादी इसे धर्म भाग कहेंगे. अहिंसा धर्म है तो बुरा क्या है. प्राणिरक्षा लोकजीवन की अपनी प्राथमिकता भी है. पशु संरक्षण कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है. हम परंपरा से ही सभी प्राणियों के हितैषी हैं. आखिरकार प्राण और शरीर का योग ही प्राणी है. प्राण-शरीर का योग जीवन है और वियोग मृत्यु.
प्राणियों में असुरक्षा बोध होता है. सभी प्राणी जीना चाहते हैं. स्नानगृह में जमा तिलचट्टे साधारण आहट पर भी भागते हैं. भयग्रस्त. वे आत्मरक्षार्थ ही भागते हैं. भागमभाग में उनमें कई उलट जाते हैं, मैं उन्हें धीरे से उलट कर सीधा करता हूं. कौआ बहुत दूर से उठे हाथ को देखकर उड़ जाता है. जीने की इच्छा को समझने में जीवन दर्शन के रहस्य हैं. मूलभूत प्रश्न है कि हमारे साथ वे सब भी क्यों नहीं जी सकते? प्रकृति में उनके लिए भी आश्रय और आवासीय अवसर क्यों नहीं हैं? हमारी क्षुधा असीम है. हमको पूरी धरती चाहिए. जल, जंगल, जमीन और आकाश, ग्रह, उपग्रह भी चाहिए.
व्यथित प्रश्न यह है कि हम धरती, आकाश, वनस्पति, जल, अग्नि, ऊर्जा आदि सारे भूत हड़पने के बावजूद सुंदर अस्तित्व के जीवों के भी सर्वनाश पर क्यों तुले हैं? वे भी अपना जीवन यहां क्यों नहीं पूरा कर सकते? अस्तित्व गलती नहीं करता. सभी जीव अस्तित्व का ही भाग हैं. अस्तित्व के हरेक जीव को जीवन का मौलिक अधिकार क्यों नहीं है? निसंदेह विराट प्राणि जगत में तमाम अंतर्विरोध हैं. बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है. भारतीय चिंतन में इसे ‘मत्स्य न्याय’ कहा गया है. इसकी निंदा की गई है. जंगल में भी ताकतवर कमजोरों को निगल जाते हैं. इसे जंगलराज कहा जाता है. जंगलराज बुरा है. जंगल में भी मंगल हमारी सनातन अभिलाषा है.
गांधी जी ने ठीक लिखा था कि पृथ्वी के पास सबको सुखी जीवन देने की क्षमता है, लेकिन कामनापूर्ति की क्षमता नहीं. कामनाएं अनंत हैं. दूसरों के जीवन अधिकार की सीमा में ही अपनी कामनाएं पूरी करने का प्रयास उचित है. प्रकृति के अन्य घटकों के मौलिक अधिकार भी ध्यान में रखने चाहिए.
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