जरूर आएंगे अच्छे दिन!

Last Updated 30 May 2015 05:16:11 AM IST

ये बाल की खान निकालने वाले भी हद करते हैं. अपनी सरकार के पहले बर्थ डे पर नरेंद्र भाई ने बुरे दिनों के खत्म होने का जरा विस्तार से बखान क्या कर दिया.


जरूर आएंगे अच्छे दिन!

पट्ठों ने उसमें भी अच्छे दिनों का वनवास खोज लिया. कह रहे हैं कि अब अच्छे दिन नहीं आने वाले. अब तो खुद पीएम जी ने भी मान लिया कि अच्छे दिन न आए हैं और न आएंगे. पब्लिक तो पब्लिक, खुद अच्छे दिन लाने वालों को अच्छे दिन दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं. सो पब्लिक को अब इतने से ही बहलाने की कोशिश की जा रही है कि कम से कम पहले वाले बुरे दिन तो नहीं रहे. अच्छे दिनों का न आना मत देखो, बुरे दिनों का जाना देखो. गिलास आधा खाली मत देखो, आधा भरा देखो. अच्छे दिन लाने के वादों को भूल जाओ!

लेकिन हम तो यही कहेंगे कि बाल की खाल निकालने वाले बिना बात के बतंगड़ बना रहे हैं. माना कि पीएम जी ने अपने बर्थ डे भाषण में अच्छे दिनों का जिक्र नहीं किया. माना कि पीएम जी ने सिर्फ और सिर्फ बुरे दिनों पर ही ध्यान दिया. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि वह अब अच्छे दिनों को पहचानते ही नहीं हैं या उन्हें अच्छे दिनों की परवाह ही नहीं है. बुरे दिनों को याद करने का मतलब अच्छे दिनों को भुला देना ही क्यों मान लिया जाए.

उल्टे हमारे हिसाब से तो बुरे दिनों को याद रखना, अच्छे दिनों की पहचान के लिए भी जरूरी है. बुरे दिन सामने ही नहीं रहेंगे तो अच्छे दिन, अच्छे हैं यही कैसे पता चलेगा. कहीं ऐसा न हो कि अच्छे दिन आ भी जाएं और पब्लिक को पता ही नही चले. डेमोक्रेसी में पब्लिक सब जानती है, यह तो ठीक है. पर उसको अपना भला-बुरा तो सरकार को बताना ही पड़ता है. वर्ना मामला लेंड बिल वाला हो जाता है. बेचारी सरकार नमक देना चाहती है और किसान कह रहे हैं कि उनकी दोनों आंखें फोड़ने की कोशिश हो रही है.

फिर पीएम जी के एक भाषण में अच्छे दिनों का जिक्र न करने से क्या होता है. विज्ञापन दर विज्ञापन तो देश को अच्छे दिनों की ओर अग्रसर बताया जा रहा है. हमें पता है कि हर चीज में मीन-मेख निकालने वाले बेचारे ‘अग्रसर’ के भी पीछे पड़ गए हैं.

कह रहे हैं कि पहले तो कहा जा रहा था कि अच्छे दिन आ रहे हैं बल्कि आ गए हैं. अब कहा जा रहा है कि अच्छे दिन बस अग्रसर हैं. हमारी रेलों की तरह, बस अग्रसर हैं. कब पहुंचेंगे, इसका भरोसा नहीं है. इससे तसल्ली कर सको तो कर लो कि बिल्कुल रुके हुए नहीं खड़े हैं, चल पड़े हैं. लेकिन क्या हमारी रेलों की तरह चलने में भी, एक न एक दिन पहुंचने की भी उम्मीद नहीं छुपी हुई है. देर-सबेर भले पहुंचे, पर रेलगाड़ी पहुंचती जरूर है. रेलवे के घर भी देर है, अंधेर नहीं है. अच्छे दिनों के आने में डिले तो हो सकता है. साल भर बाद भी नहीं पहुंचे हैं, यह लंबे वाले डिले का मामला भी हो सकता है. पर है यह डिले का मामला ही. अच्छे दिनों की गाड़ी कैंसिल हरगिज नहीं हुई है.

हमें तो लगता है कि पीएम जी बुरे दिनों की याद दिलाकर इस डिले की ही सफाई दे रहे थे. अच्छे दिन हुए तो क्या हुआ, उन्हें लाने वाले फैसले करने के महारथी हुए तो क्या हुआ, आखिरकार यात्रा में कितना टैम लगेगा, यह तो दूरी से ही तय होगा. अच्छे दिन अगर ज्यादा दूर से आ रहे हैं, तो टैम भी तो ज्यादा लगेगा. बेचारे अच्छे दिन लाने का वादा करने वालों को पूरा पता थोड़े ही था कि पहले वाले दिन कितने बुरे थे. हो गई गलती इसका अंदाजा लगाने में कि अच्छे दिनों को आने में कितना सफर करना पड़ेगा. हो गई टाइम टेबुल में गड़बड़. सालगिरह पर भी अच्छे दिन अग्रसर के अग्रसर ही रह गए. खैर! यात्रा लंबी हो तो थोड़ा-बहुत डिले तो हो ही जाता है.

फौजियों की पेंशन का ही मामला ले लीजिए. रक्षामंत्री जी कहते हैं कि सब तय हुआ पड़ा है. पर एक रैंक, एक पेंशन के लागू होने में देरी हो रही है तो हो रही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि फौजियों के अच्छे दिन ही नहीं आएंगे. आएंगे, फौजियों के ही नहीं, बाकी सबके भी अच्छे दिन आएंगे. अच्छे दिन, अच्छे दिन हैं, कोई विदेशी बैंकों में जमा कालाधन नहीं कि उनके आने का वादा सिर्फ जुमलेबाजी हो. चाहे जितनी देर से आएं, पर अच्छे दिन जरूर आएंगे. हां! तब तक पब्लिक ही बुरे दिनों को भूल जाए और अच्छे दिनों को पहचान ही नहीं पाए, तो बात दूसरी है.

कबीरदास
लेखक


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