चेहरा देखकर न्याय बांटने वाला लोकतंत्र

Last Updated 28 May 2015 01:13:39 AM IST

गत वर्ष पांच सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया था कि उन सभी विचाराधीन कैदियों को दिसम्बर 2014 तक छोड़ दिया जाए, जो खुद पर लगे आरोप में तय अधिकतम सजा की आधी अवधि जेल में काट चुके हैं.


चेहरा देखकर न्याय बांटने वाला लोकतंत्र

हर जिले के चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट, जिलाधीश और एसएसपी को अपनी जेल का निरीक्षण कर 31 दिसम्बर 2014 तक इस आदेश पर अमल करने का हुक्म था. अब सरकार ने अदालत को बताया है कि अमल की समय सीमा बीत जाने के बाद भी हजारों कैदी जेल में हैं.

आज देशभर की जेलों में बंद 2.78 लाख कैदी मात्र आरोपी हैं, अपराधी नहीं. यह कुल कैदियों की संख्या का दो तिहाई से अधिक है. यह आंकड़ा हमारी मौजूदा व्यवस्था की पोल खोलता है. ब्रिटिश शासनकाल के दौर में बंदियों में दो तिहाई अपराधी होते थे और एक तिहाई आरोपी. आजाद हिंदुस्तान में यह आंकड़ा उलट गया है. खतरनाक बात यह है कि इन कैदियों में अनेक ऐसे हैं जो खुद पर लगे आरोप के लिए तय अधिकतम कैद की अवधि से ज्यादा समय जेल में काट चुके हैं. कई तो ऐसे हैं जो लंबे समय से केस शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. इस बदहाली का कारण केवल उनकी गरीबी है.

दूसरी तरफ बड़े लोग हैं जिनका मामला आते ही कानून की चाल बदल जाती है. हाल में गैर इरादतन हत्या जैसे गंभीर अपराध के दोषी अभिनेता सलमान खान को सजा सुनाए जाने के मात्र तीन घंटे के भीतर जमानत मिल गई थी. अपने पैसे के बल पर रसूखदार लोग नामी वकीलों की फौज खड़ी कर निचली अदालत का निर्णय ऊंची अदालत में पलटवा देते हैं. उनके रुतबे से न्यायालय प्रभावित हो जाते हैं. उनके वकील कानून के पेचीदा नुक्तों की आड़ में न्याय को धता बता देते हैं. उनके हित से जुड़े मुकदमे उच्च अदालत में तुरंत ‘एडमिट’ हो जाते हैं, तारीख फटाफट मिल जाती है और झट से निर्णय भी आ जाता है. जहां सजा का डर होता है, वहां केस जान-बूझकर लंबा घसीटा जाता है. फैसला आने में बरस नहीं, दशक लग जाते हैं.

सलमान को तो तुरंत जमानत मिल गई जबकि इससे कहीं कमजोर केस के लाखों आरोपी आज देशभर की जेलों में सड़ रहे हैं. कारण केवल एक है- उन गरीबों की हैसियत तीस लाख रु पए प्रतिदिन फीस लेने वाले वकीलों का खर्च उठाने की नहीं है. भूले-भटके जब कभी अदालत उनकी जमानत मंजूर कर लेती है तब उनके पास मुचलका भरने लायक पैसा भी नहीं होता, इसलिए जेल में पड़े रहना पड़ता है.

संविधान का आर्टकिल-21 हर नागरिक को त्वरित न्याय प्राप्त करने का अधिकार देता है, लेकिन हमारी अदालतें ऐसा मैदान-ए-जंग हैं जहां आम आदमी को इंसाफ पाने के लिए जानलेवा लड़ाई लड़नी पड़ती है. दक्ष नामक संस्था ने अपने ‘रूल ऑफ लॉ’ प्रोजेक्ट में भारत के 24 में से 10 हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमों के आंकड़े जमा कर न्याय मिलने में हो रही देरी का कारण जानने का प्रयास किया. इस अध्ययन से पता चला कि इन दस अदालतों में 56,66,000 केस लंबित हैं.

प्रत्येक बेंच में प्रति दिन 22,000 मामलों की सुनवाई होती है और एक जज को एक दिन में 70 तथा एक हफ्ते में 350 केस सुनने पड़ते हैं. इस हिसाब से एक केस को औसतन छह मिनट का समय मिल पता है, जिस कारण फैसला आने में औसतन 1000 से 1600 दिन यानी तीन से पांच साल लग जाते हैं. प्रतिदिन जितने मुकदमों पर निर्णय आता है और जितने नए केस एडमिट होते हैं, उनका अनुपात तो और भी चिंताजनक है. अध्ययन से पता चला कि यदि एक फैसला आता है तो 50 नए मामले एडमिट हो जाते हैं. कहीं- कहीं तो यह अनुपात 1:2000 का है. इस हिसाब से भविष्य में न्याय मिलने में और देरी होना तय है. यह सब जानकर भी सरकार न जाने क्यों सोयी हुई है.  

हमारे संविधान के अनुच्छेद 39-ए में सभी नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने का प्रावधान भी है. इस पर अमल के उद्देश्य से संसद ने 1987 में लीगल सर्विस अथारिटी एक्ट पास किया, जिस पर सात बरस बाद 1995 से अमल शुरू हो सका. देश के गरीबों को न्याय सुलभ कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने ऐतिहासिक योगदान दिया था, लेकिन उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद आम आदमी के लिए न्याय व्यवस्था तक पहुंचना निरंतर कठिन होता जा रहा है.

त्वरित और सस्ता न्याय प्रदान करने के लिए लोक अदालतों का गठन किया गया, लेकिन इससे न तो लंबित मुकदमों का अंबार कम हुआ और न ही फैसला आने का औसत समय घटा. कहने को हमारा संविधान देश के हर नागरिक को समान दर्जा, समान अधिकार और समान कानूनी संरक्षण प्रदान करता है, लेकिन ये बात रोजी-रोटी के लिए दिन-रात खट रहे लोगों के लिए मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसी है. किसी झंझट में फंस जाने पर न तो अदालती खर्चा उठाने की उनकी हैसियत होती है और न ही कानून की पेचीदगियों से वे वाकिफ होते हैं. इसीलिए अदालत का दरवाजा खटखटाने से पहले सौ बार सोचते हैं.

मौजूदा व्यवस्था में न्यायालय की दहलीज पर दस्तक देने वाले तीन तरह के लोग हैं. पहले वे जिनके मुकदमे बड़ी-बड़ी लॉ फर्म और नामी वकील लाखों-करोड़ों रुपए लेकर लड़ते हैं. इस वर्ग में मुट्ठीभर धन्ना सेठ, राजनेता और प्रभावशाली लोग हैं. बड़े वकील बाल की खाल निकालने में माहिर होते हैं. ऐसे-ऐसे तर्क गढ़ते हैं कि सुनने वाला दंग रह जाता है, अदालत गुमराह हो जाती हैं. इसीलिए रसूखदार सड़क पर सोते लोगों को कुचलने के बावजूद कम से कम सजा पाते हैं और कई बार तो बेदाग छूट जाते हैं. दूसरी श्रेणी उच्च मध्य और मध्य वर्ग की है. ये लोग अपनी हैसियत के मुताबिक दोयम दर्जे के वकील करते हैं. न्याय पाने की उम्मीद में बरसों मुकदमा लड़ते हैं, किंतु कानूनी पचड़ों में पड़कर अक्सर अपना सुख-चैन, धन-संपत्ति खो देते हैं. इस चक्रव्यूह में फंसकर अक्सर इंसाफ पाने की उनकी उम्मीद चकनाचूर हो जाती है. यदि कभी न्याय मिलता भी है तो इतनी देर से कि उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता.

तीसरा तबका बहुत गरीब है जो वकील और अदालत का खर्च उठाने की कल्पना भी नहीं कर सकता. इसीलिए गांव या शहर का यह आम आदमी न्याय के लिए अदालत की अपेक्षा खाप पंचायत, नक्सली अदालत, अपने इलाके के रसूखदार लोगों और माफिया के पास जाने में भलाई समझता है. इंसाफ के लिए उसे ऐसे संस्थानों पर विश्वास करना पड़ता है, जिनकी कोई कानूनी हैसियत नहीं होती. हां, फौजदारी का केस दर्ज होने पर अदालत जाना ही पड़ता है. तब उनकी जिंदगी पर मानो ग्रहण लग जाता है.

आम आदमी को न्याय सुलभ कराने के लिए तुरंत कुछ प्रभावी कदम उठाए जाने जरूरी हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार देश के हर जिले में गरीब विचाराधीन कैदियों के मामलों पर विचार करने के लिए समिति गठित की जानी चाहिए. समिति गठित करने का जिम्मा नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी को उठाना चाहिए. साथ ही विचाराधीन कैदियों को उनके अधिकारों के बारे में सचेत करना होगा. समस्या का हल कैदियों को जल्दी जमानत पर रिहा करने मात्र से नहीं होगा. उन्हें लंबे समय तक जेल में रखा जाना और फैसला आने में बरसों लग जाना, पूरी न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाता है. सबसे पहले इसे सुधारा जाना जरूरी है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

धर्मेन्द्रपाल सिंह
लेखक


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