इतना भी आसान नहीं मैली गंगा का उद्धार

Last Updated 28 May 2015 01:04:13 AM IST

गंगा दशहरा के मौके पर आज समाज गंगोत्सव मनाने में व्यस्त है और गंगा की मंत्री, ‘नमामि गंगे’ की उपलब्धियों का जश्न मनाने में.


इतना भी आसान नहीं मैली गंगा का उद्धार

दूसरी ओर, गंगा रक्षा के लिए आंदोलनरत एक संत इच्छा मृत्यु का अधिकार मांग रहा है. 1998 से चले रहे तमाम विरोध और अदालती आदेश के बावजूद हरिद्वार में रेत खनन जारी है. बाढ़ नियंतण्रके नाम पर 19 अप्रैल को प्रशासन ने गंगा तल से रेत खुदाई का आदेश पुन: दे दिया है. आरोप है कि प्रशासन, खनन माफिया के संग मिल गया है.

मातृसदन, इस विरोध में पहले ही स्वामी निगमानंद और गोकुलानंद को खो चुका है. खबर आई कि गंगा के प्रति समाज, सरकार और प्रशासन की असंवेदनशीलता देखते हुए मातृसदन के परमाध्यक्ष स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्वयं को कमरे में बंद कर राष्ट्रपति, उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय को लिखकर मरने की अनुमति चाही. हालांकि प्रशासन के अनुरोध से वह कमरे से बाहर निकल आये हैं, लेकिन अनशन जारी है. संवेदना के इन प्रश्नों को सामने रखें, तो कह सकते हैं कि इस एक साल में न गंगा को लेकर समाज की संचेतना लौटी है और न सरकार के भीतर, गंगा रक्षक संतानों को लेकर कोई वात्सल्य पैदा हुआ है.

गंगा की बीमारी सदी से अधिक पुरानी है. ‘नमामि गंगे’ के आधार पर साल भर में उसके स्वस्थ होने की उम्मीद प्रयासों के साथ अन्याय होगा. गंगा से छेड़छाड  का इतिहास करीब पौने दो सौ साल पुराना है. राजस्व कमाने हेतु 1839 में गंगा पर ऊपरी और निचली गंग नहर योजना बनी. इसी के लिए 1847 में भारत का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित हुआ- थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग, रुड़की. प्रवाह बाधित करने का पहला औपचारिक प्रयास वर्ष-1912 में भीमगौड़ा बांध (हरिद्वार) के रूप में सामने आया. विरोध भी उसी समय शुरू हो गया. गंगा प्रदूषण की शुरुआत 1932 में तब हुई, जब कमिश्नर हॉकिन्स ने बनारस का एक गंदा नाला गंगा में जोड़ने का आदेश दिया. गंगा प्रदूषण मुक्ति की औपचारिक शुरुआत जनवरी, 1986 में गंगा कार्य योजना से हुई. 2014 तक खर्च मात्र 4,168 करोड़ ही हुए, किंतु इस दौरान 25 हजार करोड़ से अधिक रुपये गंगा को अविरल-निर्मल बनाने के नाम पर जारी हुए. खर्च पैसे से 927 परियोजनाओं के जरिए  2,216 एमएलडी की क्षमता हासिल हुई फिर भी गंगा साफ नहीं हुई.

बीते 29 वर्ष और पांच महीनों को सामने रख यह जांचना मौजूद होगा कि ‘नमामि गंगे’ के प्रयासों की दिशा ठीक है अथवा इसमें सुधार होना चाहिए. ताजा जानकारी के मुताबिक गंगा संरक्षण के नाम पर 13 मई, 2015 को 20,000 करोड़ रुपये का बजट मंजूर हुआ है और समयावधि है पांच साल. गौरतलब है कि 20,000 करोड़ में से 7,272 करोड़ पहले से जारी परियोजनाओं की देनदारी में जाएंगे. शेष, 12,728 करोड़ में से 8,000 करोड़ 118 शहरों के 144 नालों पर मल शोधन संयंत्र लगाने पर खर्च होंगे.

गंगा संरक्षण के लिए जारी धनराशि के नाम पर गंगा के पानी, पर्यावरणीय प्रवाह और रेत खनन आदि के  अध्ययन के लिए 600 करोड़, गंगा किनारे 1657 ग्राम पंचायतों के सौ प्रतिशत स्वच्छता हासिल करने के लिए 1750 करोड़, जाजमरु और काशीपुर में औद्योगिक कचरा निष्पादन हेतु एक हजार करोड़ की लागत वाला सामुदयिक अवजल शोधन संयंत्र, गंगा घाटों पर कचरा प्रबंधन के लिए 50 करोड़,  केदारनाथ, हरिद्वार, दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना के घाटों के सौंदर्यीकरण के लिए 250 करोड़,  चारधाम व गंगासागर यात्रा के दौरान जनसुविधा विकास पर 150 करोड़, गंगा किनारे औषधीय पौधे व डॉल्फिन, कछुआ, घड़ियाल संरक्षण हेतु 150 करोड़, गंगा किनारे के ढाई करोड़ लोगों के बीच जन-जागरूकता अभियान पर 128 करोड़, घाटों पर निगरानी हेतु टास्क फोर्स की चार बटालियन के लिए 400 करोड़ और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के क्षेत्रीय कार्यालय खोलने, परियोजना रिपोर्ट तथा अन्य काम के लिए 250 करोड़ रखे गये हैं.

गौर करें तो पाएंगे कि इसमें कार्यों के पांच प्रकार हैं- जहां शौचालय नहीं, वहां शौचालय बनाना; जहां शौचालय हैं, वहां मल शोधन संयंत्र लगाना, फैक्टरी इलाके में अवजल शोधन संयंत्र लगाना; घाटों की सफाई-सुंदरता-निगरानी व जैव-विविधता बढ़ाने के प्रयास. निस्ंसदेह, जैव विविधता की बढ़ोतरी  नया और अच्छा कदम है लेकिन 1657 ग्राम पंचायतों में सौ फीसद स्वच्छता का मतलब शत-प्रतिशत घरों को शौचालय मुहैया कराने तक सीमित है, तो यह अंतत: नदी का कष्ट बढ़ाने वाला कदम ही साबित होगा. हां, यदि  इसका मतलब, ग्रामीण कूड़े का सौ फीसद स्वावलंबी और वैज्ञानिक निष्पादन है, तो प्रस्ताव की तारीफ होनी चाहिए.

घाटों की सफाई और निगरानी से नदी को मदद मिलती है; सो मिलेगी किंतु सौंदर्यीकरण से स्थानीय लोग व पर्यटक आकषिर्त होते है, नदी को कोई मदद नहीं मिलती. जन सहभागिता सुनिश्चित करने का ऐलान इस योजना में भी है, लेकिन स्पष्ट और ठोस प्रस्ताव सामने नहीं है. गंगा में जल परिवहन के लिए इलाहाबाद से कोलकोता तक हर सौ किमी पर बैराज बनाने का मूल प्रस्ताव यदि अब भी कायम है, तो गंगा पलटकर वार करेगी. नदी जोड़ परियोजना नदी विनाश के साथ-साथ विवाद बढ़ायेगी.

कहना होगा कि गंगा संरक्षण के अन्य कदम आशा नहीं जगाते. उनका मकसद, शौचालय बढ़ाना, कचरा शोधन क्षमता बढ़ाना व निवेशकों के लिए पैसा कमाने के रास्ते खोलना मात्र साबित होने वाला है. नदी को बयान, पैसा व कार्यक्रम से पहले नीति चाहिए. क्या एक साल में कोई नीति बनी, कोई सिद्धांत तय किए गये? बांध, बैराज, तटबंध, नदी की जमीन, नदी के प्रवाह और प्रदूषण के मामले में कोई नीति नहीं है. इसीलिए नदी कार्यक्रमों को लेकर विरोध हैं, विवाद हैं और असफलताएं हैं.

गंगा के तीन मूल संकट शोषण, प्रदूषण, अतिक्रमण हैं. चौथा संकट, जलवायु परिवर्तन के असर के रूप में तापमान बढ़ना, ग्लेशियर पिघलना और वष्रा का अनियमित होना है. इनके मद्देनजर गंगा नीति की मांग है कि गंगा की जमीन चिह्नित कर अधिसूचित की जाये. उसका भू-उपयोग बदलने की अनुमति न हो और उसे बांध-बैराज-तटबंधों से न बांधा जाये. रेत खनन, पत्थर चुगान और गाद निकासी को लेकर तट से दूरी, गहराई और परिस्थिति पर स्पष्ट नीति हो. ताजा पानी नहर में डालने की बजाय, नदी में आने दिया जाये. शोधन पश्चात का खेती-बागवानी के उपयोग योग्य पानी, नहरों में डाला जाये.

गंगा जलग्रहण क्षेत्र में कुछ काल बाद अजैविक खेती की अनुमति न हो. क्षेत्र को जैविक और बागवानी क्षेत्र में बदलने के लिए सरकार प्रोत्साहन का नीतिगत निर्णय करें. जलसंचयन ढांचों की सुरक्षा तथा भूजल निकासी की अधिकतम गहराई सुनिश्चित करने हेतु ठोस नीति पर काम हो. नदियों को जोङने की बजाय, समाज को नदियों से जोड़ने की नीति पर काम हो. ये सभी बिंदू गंगा और उसकी सहायक नदियों पर ही नहीं, भारत की प्रत्येक नदी पर लागू हों. इसी से नदियों को पानी मिलेगा और कचरा, नदियों से दूर रखा जा सकेगा.

अरुण तिवारी
लेखक


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