अच्छे दिनों की चिंता में ’बुरे‘ का शोर
अच्छे दिन आए या नहीं, का जवाब देने की जगह वे बुरे दिन बीते का राग बजाते नजर आए.
अच्छे दिनों की चिंता में ’बुरे‘ का शोर |
बला के तेज और तत्पर नेता नरेंद्र मोदी ने अगर अपनी सरकार की पहली वर्षगांठ का जश्न मनाने के लिए मथुरा के नगला चंद्रभान गांव का चुनाव किया तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह पंडित दीनदयाल उपाध्याय का गांव है. यह भी निश्चित रूप से एक वजह होगी, पर मुख्य वजह कुछ और लगती है. अपनी सरकार की कारपोरेट समर्थक, शहरी और सूट-बूट वाली छवि बनती देख उन्होंने इसे बदलने की जरूरत महसूस की और इस छवि को बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाले भूमि अधिग्रहण विधेयक को ठंडे बस्ते में डालने के साथ ही आयोजन को देहात में ले जाने का फैसला किया. इस सभा में उनका भाषण भी इस बात की पुष्टि करता है कि वे अपनी सरकार की बनती छवि को लेकर कितने सावधान हैं. उन्होंने पीएफ के पैसों, गरीबों को स्वच्छता की जरूरत, बारह रुपए में बीमा, जन धन योजना, गरीबों की चिंता को ही सबसे ऊपर रखा. लोगों से सीधे संवाद बनाने की शैली में उन्होंने इन बातों पर मोहर लगवाने की कोशिश भी की. भीषण गर्मी की वजह से ज्यादा भीड़ तो नहीं आई, पर टीवी और रेडियो जैसे माध्यमों के जरिए उनका संदेश देश भर में फैला.
पर इस लेखक जैसे काफी सारे लोगों को प्रधानमंत्री के भाषण में बड़प्पन और दूरदर्शिता की जगह चतुराई ही प्रमुख तत्व लगा. अच्छे दिन आए या नहीं, का जवाब देने की जगह वे बुरे दिन बीते का राग बजाते नजर आए. यह एक चालाकी हो सकती है लेकिन वे अगर रोजगार, कालाधन लाने जैसे मुद्दों पर ही नहीं, भूमि अधिग्रहण और महंगाई जैसे मुद्दों पर अपनी सरकार के कामकाज और उठाए गए कदमों का हिसाब बताते तो उनका कद काफी बड़ा हो जाता. आखिर उन्होंने चुनाव के समय जो उम्मीदें जगाई थीं, वे सब तो पूरी नहीं ही हुई हैं. इतना बड़ा और आदरणीय व्यक्ति इस तरह की चालाकियां करके अपनी जान छुड़ाने के अंदाज में बोले तो यह उसका कद छोटा करता है. बेहतर होता कि इस आयोजन के अवसर पर वे कोई बड़ा और छाप छोड़ने वाला नया कार्यक्रम घोषित करते, जैसे उन्होंने गांधी से जुड़े आयोजन में स्वच्छता और पटेल से जुडे आयोजन में भारत जोड़ो जैसा कार्यक्रम घोषित किया था.
दूसरे लोग मोदी सरकार के पहले साल का मूल्यांकन क्या करते हैं या लोगों ने क्या कहा है, इससे बेखबर होकर भी प्रधानमंत्री को तीन आधार पर बात करनी चाहिए थी. सबसे पहला तो यही कि अगर देवता ने उन्हें शासन चलाने और देश सुधारने का जिम्मा दिया था तो देवता का आशीर्वाद तेल के दाम की गिरावट भर पर आकर क्यों जवाब दे गया. और अब दाम चढ़ने लगे हैं तो सरकार इस बीच बढ़ाए करों को वापस क्यों नहीं ले रही है. इसी श्रेणी में विदेशों में पड़े कालेधन से पंद्रह-पंद्रह लाख रु पया हर भारतीय के खाते में लाने और हर साल करोड़ों नौकरियां देने जैसे चुनावी सभाओं के वायदों को भी रख सकते हैं.
हम-आप भले ही यह बहस करें कि किसी नेता के चुनावी भाषण और वायदों को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए, पर इस मामले में ज्यादा बड़ा सच अमित शाह और अरविंद केजरीवाल जैसों का ही है कि ये सब ‘चुनावी जुमले’ थे और इन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है. नए दौर की चुनावी राजनीति के यही स्टार हैं, इसलिए इनकी बात को नजरंदाज करना भी मुश्किल है, सो दैवीय आशीर्वाद और चुनावी भाषणबाजी को फिलहाल किनारे ही करके मूल्यांकन करना होगा.
मूल्यांकन का दूसरा आधार चुनाव घोषणापत्र में बाजाप्ता लिखत-पढ़त में आए वायदे हैं.
उसके आधार पर सरकार के कामकाज की दिशा और शुरु आती नतीजों को देख सकते हैं. पर व्यावहारिक रूप से यह भी होता है कि किस काम की तात्कालिक जरूरत हो, क्या कुछ नया आ जाए, यह तय नहीं रहता. सो, सरकार को यह छूट दी जा सकती है कि वह व्यावहारिक जरूरतों के लिए घोषणापत्र से कुछ छूट ले- पर कुछ ही छूट और इसे न भूल जाने की अनिवार्यता के साथ. और फिर यह भी माना जाता है कि किसी राज्य सरकार के लिए तो तत्काल लाभ वाले फैसले करना आसान है, केंद्र की योजनाओं को जमीन पर उतरने में अपेक्षाकृत ज्यादा वक्त लगता है. यह बात जब विशेषज्ञ कहते हैं तो खुद प्रधानमंत्री कबूल लेते तो क्या पहाड़ टूट पड़ता.
अपने चुनाव को दैवीय आदेश और संसद के दरवाजे पर माथा टेककर संसदीय जीवन की शुरुआत करने वाले मोदी इन सभी और पचासों अन्य वायदों को भूल गए होंगे, यह कहना गलत होगा. राष्ट्रपति का अभिभाषण हो या वित्त मंत्री का पहला बजट, काफी कुछ घोषणापत्र के वायदों और नारों से भरे थे. कई मोचरे पर दनादन काम शुरू हुए. कानून बनाए गए और बनाए जा रहे हैं. जहां मामला किसी वजह से अटका, अध्यादेश लाने में भी सरकार नहीं हिचकी. यह रिपोर्टंिग अगर प्रधानमंत्री जनता को करते तो उनका कद बढ़ता ही. पर बहुत साफ लगता है कि एक खास एजेंडे वाले कामों में ही यह तेजी और बेचैनी है, बाकी चीजों को सुविधा से भुला दिया गया है. अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासियों के साथ ही गांव तथा खेती-किसानी से जुड़े किसी वायदे की याद नहीं लगती.
मूल्यांकन का तीसरा आधार है कि सरकार ने एक साल में सचमुच क्या किया, देश में क्या-क्या हुआ और जो किया उसमें प्रदर्शन और नतीजे कैसे थे. भूमि अध्यादेश और स्मार्ट सिटी जैसी योजनाओं के पक्ष और विपक्ष में काफी कुछ कहा-सुना जा रहा है. यहां ज्यादा विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है. पर यह जरूर गौर करने की चीज है कि इतने सारे वायदों में यही क्यों याद रहे और सरकार को दांव पर लगा कर और साल भर में ही मुर्दा कांग्रेस को जीवन का अवसर देकर भी नरेंद्र मोदी इसी सवाल पर क्यों अड़े हैं. यह सही है कि मोदी राज में महंगाई का प्रकोप कम हुआ है, पर उसमें मोदी सरकार का कितना योगदान है, कहना मुश्किल है.
पेट्रोलियम पदाथरे के दाम कम होने का असर जरूर है, पर सरकार ने अंतरराष्ट्रीय बाजार की गिरावट का पूरा लाभ ग्राहकों तक आने देने की जगह कर बढ़ाकर अपना खजाना भरने का काम भी किया है. मोदी सरकार के समय स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों की नीलामी ढंग से हुई और सरकारी खजाने में लाखों करोड़ रु पए आने की स्थिति बनी. पर इसका कुछ श्रेय तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी को भी दिया जाना चाहिए. मोदी इस बात का श्रेय भी ले सकते हैं कि उनके शासन के पहले साल में सरकार या किसी मंत्री के भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने नहीं आया. रक्षा और रक्षा उत्पादन के कई बड़े सौदे हुए, पर इन सबमें कोई लेनदेन हुआ हो, यह नजर नहीं आया है. मोदी ने इन चीजों का जिक्र सीना ठोककर किया, पर कुल मिलाकर लगा कि वे खुद को और सरकार को बड़ा साबित करने का अवसर चूक गए. इसकी भरपाई विज्ञापनों और पांच हजार सभाओं से नहीं की जा सकती.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
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