ऑनलाइन शॉपिंग का बुलबुला!
एक खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के जो फायदे-नुकसान होते हैं, आने वाले वक्त में कुछ वैसा ही हिसाब-किताब देश में ऑनलाइन खरीदारी के संबंध में होने जा रहा है.
ऑनलाइन शॉपिंग (फाइल फोटो) |
कुछ बरस पहले देश में ई-कॉमर्स से जुड़े कारोबार की शुरुआत हुई और जल्द ही इसका एक चेहरा ऑनलाइन शॉपिंग के रूप में सामने आया. तेज होती मोबाइल और इंटरनेट क्रांति ने फिलहाल तो ऑनलाइन खरीदारी को देश में पंख लगा रखे हैं, लेकिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण बंपर सेल में चार का माल दो रुपए में बेचने की मजबूरी ने इन कंपनियों का घाटा आसमान पर पहुंचाना शुरू कर दिया है. इससे यह संकट अवश्यंभावी लग रहा है कि जल्द ही ऑनलाइन शॉपिंग का यह बुलबुला फूट सकता है.
अभी तो भारी-भरकम देसी-विदेशी निवेश के बल पर ऑनलाइन शॉपिंग कराने वाली कंपनियां किसी तरह अपना धंधा खींच रही हैं, लेकिन हर दूसरे दिन कोई नई ऑनलाइन शॉपिंग कंपनी सामने आने और ग्राहक बटोरने के लिए भारी-भरकम डिस्काउंट देने की नीति ने उनके पसीने छुड़ा दिए हैं. हालात ये हैं कि कारोबार बढ़ने के साथ-साथ उनका घाटा भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. यूं तो खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में देश और समाज को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि कोई कंपनी घाटे के कारण बंद हो जाए, क्योंकि प्रतिस्पर्धी माहौल में ऐसा होना स्वाभाविक है और बाजार में वही टिकेगा जो सबसे ज्यादा भरोसेमंद और मजबूत होगा. लेकिन यह देखते हुए कि फैलते कारोबार के साथ जिस तरह से इन कंपनियों ने ऊंचे वेतन पर हजारों युवाओं को आईटी से लेकर डिलिवरी ब्वॉय जैसे रोजगार दिए हैं, इनका बंद होना एक बड़ी समस्या पैदा कर सकता है. आशंका है कि कंपनियों की बंदी के बाद इनसे जुड़े युवाओं को लंबे अरसे तक कोई कामकाज न मिले और वे कुछ ऐसे कदम उठा लें जो देश और समाज के लिए सही न हों.
दो-तीन बरसों में ही ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियों के सामने बंद हो जाने का संकट पैदा हो जाएगा- इस आशंका पर आसानी से संदेह किया जा सकता है. क्योंकि अभी तो जो माहौल है उसमें इनके कामकाज में विस्तार होने की ही ज्यादा संभावना लगती है. जैसे, ज्यादातर प्राइवेट नौकरियों में युवाओं को दस से बारह घंटे काम करना पड़ता है. ऐसे में उन्हें जरूरी खरीदारी का भी वक्त नहीं मिल पाता है. इसके अलावा खरीदारी के जितने अधिक विकल्प ऑनलाइन शॉपिंग की वेबसाइटों या उनके एप्लिकेशनों पर मिलते हैं, किसी दुकान या बाजार में दुकानदार उतने विकल्प नहीं दे पाता है. साथ में, अच्छे-खासे डिस्काउंट का लालच भी है जो ये कंपनियां फिलहाल अपना ग्राहक-बेस तैयार करने के लिए दे रही हैं. लेकिन सवाल है कि क्या अपने घाटे और कारोबार चलाते रहने की मजबूरी के लिए ये ज्यादातर कंपनियां लंबा इंतजार कर सकती हैं. क्या ये तब तक बाजार में टिकी रह सकती हैं, जब तक कि फायदे में न पहुंच जाएं?
इस अहम सवाल के जवाब में हाल में आए एक आंकड़े को देखा जा सकता है. कपड़ों और लाइफ स्टाइल वस्तुओं की खरीदारी कराने वाली एक ऑनलाइन शॉपिंग कंपनी से जुड़े कारोबारी आंकड़ों का हाल में खुलासा हुआ है जिससे पता चला है कि 2013 के मुकाबले इसकी बिक्री 2014 में दोगुना होकर करीब 811 करोड़ रुपए तक पहुंच गई. कायदे से तो यह एक सकारात्मक आंकड़ा है, पर विडंबना यह है कि इसी के साथ संलग्न आंकड़े में तस्वीर का दूसरा पहलू उजागर हो रहा है. इस कंपनी ने अपनी जो सालाना बैलेंस शीट पेश की है, उसके अनुसार समान अवधि में उसका घाटा बढ़कर पांच गुना हो गया है. मुद्दा यह है कि बिक्री बढ़ने मात्र से किसी ऑनलाइन शॉपिंग कंपनी की सेहत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि हो सकता है कि उसकी बिक्री में यह इजाफा खुद को भारी खतरे में डालने की वजह से हुआ हो. घाटा उठाकर सामान बेचने की नीति लंबे अरसे तक नहीं चलाई जा सकती क्योंकि तब यह बहुत मुमकिन है कि जिस देसी-विदेशी निवेश स्रेतों के बल पर ये कंपनियां ग्राहकों को सस्ते में सामान मुहैया करा रही हैं, वे सभी एक झटके में सूख जाएं. कोई भी निवेशक लंबे समय तक घाटा नहीं सहन कर सकता, ऐसी स्थिति मे उसका निवेश से हाथ खींच लेना अस्वाभाविक नहीं होगा.
समस्या सिर्फ इन कंपनियों का घाटा नहीं है. ग्राहकों की आदतों में आने वाले परिवर्तन से भी इनकी कमाई पर भारी फर्क पड़ने की संभावना है. इस बारे में कुछ रिसर्च कंपनियों व संगठनों ने जो अध्ययन किए हैं, उनमें ऑनलाइन खरीदारों की आदतों में बदलाव की बात कही गई है. जैसे यह पाया गया है कि वर्ष 2012 में तीन महीने की अवधि के भीतर एक बार ऑनलाइन शॉपिंग करने वालों की तादाद कुल ऑनलाइन खरीदारों का 70.90 फीसद थी, जो वर्ष 2014 में बढ़कर 94 फीसद हो गई. इस खरीदारी का एक अहम पहलू यह भी रहा कि ज्यादातर ग्राहकों ने ऐसे सामान खरीद लिए, जिनकी उन्हें कतई जरूरत नहीं थी.
उन्होंने ऐसा सिर्फ इसलिए किया क्योंकि उन्हें वह सामान दिए जा रहे डिस्काउंट के कारण काफी सस्ता लग रहा था. इससे कंपनियां तो अपना सामान बेचने में सफल रहीं, पर खरीदे गए ऐसे फालतू सामान धीरे-धीरे ग्राहकों को बोझ प्रतीत होने लगे हैं और वे इन कंपनियों द्वारा वापसी की मुफ्त सुविधा का इस्तेमाल करने लगे हैं. यह बदलाव इन कंपनियों पर भारी पड़ रहा है. इसलिए वे सामान वापसी की नीति में परिवर्तन करना चाहती हैं. जैसे, अब वे यह देखने लगी हैं कि वे ग्राहक कौन से हैं जो खरीदे गए ज्यादातर सामान या तो बदलते हैं या फिर वापस ही कर देते हैं. इन ग्राहकों पर अंकुश लगाने की नीति वे लागू करना चाहती हैं, पर ग्राहक टूटने के भय से अभी वे ऐसा करने से हिचक रही हैं और भारी घाटा सहन कर रही हैं.
लेकिन तय है कि ग्राहक मजे में रहें और कंपनियां घाटा उठाती रहें- यह हमेशा के लिए नहीं चल सकता है. ऐसे में या तो लगातार घाटा सहने वाली कई ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियां बंद हो जाएंगी या फिर वे ऑफलाइन या आम बाजार या शॉपिंग मॉल्स में दी जाने वाली कीमतों के इर्दगिर्द ही अपना सामान बेचने लगेंगी. दोनों ही सूरतों में उनके ग्राहक उजड़ने और बिक्री पर ग्रहण लग जाने का खतरा है जो अंतत: इन कंपनियों के हजारों कर्मचारियों की रोजी-रोटी की समस्या पैदा करेगा. पर यहां अहम सवाल यह है कि क्या इन कंपनियों को बचाने के लिए सरकार को कोई दखल देना चाहिए या फिर इस खेल को अपने कायदे खुद तय करने देना चाहिए.
उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष दिल्ली विधानसभा चुनावों के वक्त ऑनलाइन शॉपिंग का विरोध करने वाले व्यापारियों के हितों पर विचार करने का आासन अरविंद केजरीवाल ने दिया था. साफ है कि महज एक बटन दबाकर होने वाले इस कारोबार के भविष्य के सामने जो खतरे हैं, वे अनजाने नहीं रह गए है. इसलिए अच्छा होगा कि देश में एक स्वस्थ कारोबारी माहौल बने जिसमें ग्राहकों समेत हजारों कर्मचारियों के हितों का भी ख्याल रखा जाए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो ऑनलाइन शॉपिंग का बुलबुला अपने फूटने के साथ कई नए संकट खड़े करेगा जिनकी काट बाद में खोजना काफी मुश्किल होगा.
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