इनसे तो और बेजार हो जाएंगी उम्मीदें

Last Updated 24 May 2015 03:28:13 AM IST

नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया के विवादास्पद ब्लाग ने केंद्र सरकार के समक्ष नई मुसीबत खड़ी कर दी है.


इनसे तो और बेजार हो जाएंगी उम्मीदें

उनका कहना है कि कृषि में संवृद्धि लाने की संभावनाएं सीमित हैं. अत: किसान औद्योगिक गतिविधियों और सेवा क्षेत्र की संभावनाओं को समझें. उनका यह मंतव्य ऐसे समय आया है, जब भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ किसान आंदोलित हैं. उनके मन में यह धारणा घर कर गई है कि सरकार यह विधेयक उनकी जमीन छीनने के लिए ला रही है.

वह उद्योगपतियों के लिए उनकी पुश्तैनी जमीन छीनना चाहती है. इस ब्लाग ने किसानों के शक को यकीन में बदल दिया है. सवाल उठ रहे हैं : क्या कृषि क्षेत्र की उपेक्षा कर सरकार औद्योगिक विकास चाहती है? क्या यह किसानों की खेती से विलुप्त करने की गंभीर साजिश है? क्या विकास दर बढ़ाकर सरकार आम आदमी की बेपनाह उम्मीदों को पूरा कर पाएगी? नौकरियां पैदा होंगी? महंगाई पर अंकुश लगेगा? मध्य वर्ग की खुशहाली की उम्मीद को पंख लगेगा? आदि. इसका भाजपा लोक सभा चुनाव में वादा कर चुकी है.

सरकार औद्योगिक विकास के जरिये देश में खुशहाली लाने का सपना देखते आगे बढ़ रही है. पनगढ़िया उसकी इसी नीति की वकालत कर रहे हैं. स्वयं पीएम मोदी एक साल में 18 देशों की यात्रा कर ज्यादा से ज्यादा विदेशी पूंजी लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं. फलत: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रति विदेशी निवेशकों का नजरिया बदला है. मोदी देश में पूंजी का प्रवाह बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा विदेशी निवेश चाहते हैं.

सरकार का तर्क है कि विकास दर के दहाई में पहुंचने के साथ ही महंगाई थमेगी और नौकरियां बढ़ेंगी. पर यह अकेले औद्योगिक विकास से संभव है या कृषि क्षेत्र की उपेक्षा कर चहुंमुखी विकास को साकार किया जा सकता है; इसमें संशय है. इसीलिए अर्थव्यवस्था के विकास के इस मॉडल का उनकी ही पार्टी के चिंतक आलोचना कर रहे हैं. वह सरकार की इस सोच को अर्थव्यवस्था के लिए घातक मान रहे हैं. इसलिए कि पहले भी विकास दर बढ़ने के बावजूद नौकरियां नहीं बढ़ी थीं, बल्कि निजी और असंगठित क्षेत्रों में नौकरियां चली गई थीं. इतना ही नहीं, सरकारी नौकरियों में भी ठहराव आ गया था. रिक्त पदों तक को भी अर्थव्यवस्था पर बोझ न बढ़ाने के नाम पर भरा ही नहीं गया था.

फलत: तत्कालीन सरकार के कार्यकाल के अंतिम दो वर्षो में देश में चहुंतरफा नकारात्मक और निराशा का ऐसा माहौल तैयार हुआ, कि यूपीए को बुरी तरह सत्ता से बाहर होना पड़ा. आज मोदी सरकार भी विकास के उसी सिद्धांत पर अपनी पींगे बढ़ा रही है. सवाल है कि जब आर्थिक विकास दर के सहारे विकास का मॉडल पहले नाकाम हो चुका है तो अब वह कैसे कारगर हो सकता है? कृषि क्षेत्र की उपेक्षा कर तो बिलकुल भी नहीं.

उदारीकरण के दौर में कृषि क्षेत्र की बड़ी उपेक्षा हुई है जबकि जीडीपी का 14 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है और देश के 60 से 70 प्रतिशत लोग खेती से जुड़े हैं. लेकिन इसके विकास के लिए सार्थक पहल नहीं हुई. उल्टे खेती को घाटे का सौदा बताकर किसानों को हतोत्साहित किया जा रहा है. उन्हें खेती छोड़कर शहरों में भविष्य तलाशने के सपने दिखाये जा रहे हैं, यह खतरनाक साजिश है. पनगढ़िया का कथन उसी साजिश का हिस्सा है. उन्होंने गैर सरकारी संगठन ‘लोक नीति’ के एक

सर्वेक्षण का हवाला देकर कहा है कि 62 प्रतिशत किसान शहर में नौकरी मिलने की दशा में खेती छोड़ने को तैयार है. इतना ही नहीं, उनके 76 प्रतिशत बच्चे खेती छोड़कर दूसरा पेशा अपनाना चाहते हैं. यह उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन को औने-पौने दाम में बेचने और भूस्वामी से श्रमिक बनाने की साजिश है ताकि कृषि क्षेत्र में भी औद्योगिक घरानों का दबे पांव प्रवेश हो जाए और भूस्वामी अपनी ही जमीन पर कृषि श्रमिक बन जाए. इस आशंका के पीछे ठोस तथ्य है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.

हालिया एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2007 के बाद से 3.7 करोड़ से ज्यादा किसानों ने खेती छोड़कर शहरों को पलायन किया था. किंतु वर्ष 2012 से 2014 के बीच जब देश की आर्थिक विकास की गति धीमी हुई तो रोजगार न मिलने की दशा में लगभग 3.5 करोड़ लोग गांवों को लौट आए और अब वह कृषि श्रमिक बन गये हैं. इसके उलट, वर्ष 2004 से 2009 के बीच जीडीपी विकास दर आठ प्रतिशत से ज्यादा रही थी. ऐसे में नौकरियां बढ़नी चाहिए थीं. किंतु ऐसा नहीं हुआ जबकि देश में हर वर्ष तकरीबन 1.2 करोड़ नौकरियां पैदा होनी चाहिए. सच तो यह है कि जब देश की जीडीपी तेजी से बढ़ रही थी तो देश में ‘रोजगारविहीन विकास’ की स्थिति थी. पिछले 10 वर्षो में उद्योगों को 42 लाख करोड़ रुपयों की कर राहत दी जा चुकी है. इसलिए यह सोचना कि उद्योग क्षेत्र नौकरियां पैदा करने में सक्षम होगा, बेमानी लगता है. इतना ही नहीं, विनिर्माण क्षेत्र में भी नौकरियों में कमी आई है.

इसलिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष का बयान गले नहीं उतर रहा है. सरकार को इस सच्चाई को स्वीकारते हुए विकास के अपने आर्थिक मॉडल में कृषि क्षेत्र को शामिल करना चाहिए. अन्यथा रोजगार सृजन की बढ़ती चुनौती आगे चलकर उसकी अलोकप्रियता का सबब बन सकती है. उसे शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिए कृषि क्षेत्र के बारे में अपनी धारणा बदलनी होगी. खेती को आकर्षक बनाने के लिए नई कोशिशें होनी चाहिए ताकि किसान खेती छोड़ने को मजबूर न हों. किंतु दुखद तो यह है कि अभी मनरेगा का बजट ही कृषि-बजट से अधिक है. यह लगातार कृषि को घाटे का सौदा बनाने की कोशिश है, जो तत्काल बंद होनी चाहिए.

भाजपा जनअपेक्षाओं की लहर पर सवार होकर सत्ता में आई है. समाज के हर वर्ग को पीएम मोदी से उम्मीदें हैं. हर कोई अपने सपने को हकीकत में बदलते देखना चाहता है. वह अब इंतजार के मूड में नहीं है. इसीलिए मोदी सरकार की विश्वसनीयता दांव पर है. ऐसे में किसानों की उपज का समर्थन मूल्य ढाई गुना करने की जगह सरकार ने उसमें 50 रुपये की वृद्धि की है. तो भूमि अधिग्रहण विधेयक ने किसानों को आंदोलनरत कर दिया है.

तो युवा रोजगार न मिलने से मोहभंग की स्थिति में हैं. फुटकर महंगाई मध्य वर्ग के जीवन में पहले की तरह ही खलल डाले हुई है. अभी सर्विस टैक्स की बढ़ोत्तरी महंगाई के रंग को और तीखा बनाने वाली है तो श्रमिक भी उदास है. आरएसएस के संबद्ध भारतीय मजदूर संघ भी सरकार की कार्यशैली और नीति पर सवाल खड़ा कर रहा है. इन सबके बीच सरकार की शुरू की गई लोककल्याण की योजनाओं की चमक मद्धम दिख रही है. लिहाजा, वादे पूरा करने के लिए सरकार पर बड़ा दबाव है. इसलिए सरकार को अपने कुछेक कामों का ढोल पीटने के बजाय आमजन में तेजी से घर करती निराशा और जमते आक्रोश को कमतर करने के बारे में सोचना चाहिए. यह ध्यान में रखते हुए कि सरकार ने अपने शासनकाल का एक साल पूरा कर लिया है.

ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा दैनिक


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