इस साझेदारी में छिपे इंफ्रा क्रांति के बीज

Last Updated 23 May 2015 01:33:42 AM IST

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की यात्रा संपन्न की.




इस साझेदारी में छिपे इंफ्रा क्रांति के बीज

उनकी चीन यात्रा पर खूब चर्चा हुई, पर दक्षिण कोरिया यात्रा को कम महत्व मिला. जबकि कोरिया यात्रा के विषय में दो बातें महत्वपूर्ण लगीं. पहली यह कि चीन के मुकाबले दक्षिण कोरिया के साथ कूटनीतिक रिश्तों से जुड़े विषय पर सरकार का होमवर्क ज्यादा दिखा और दूसरा दक्षिण कोरिया के साथ भारत के सामरिक और आर्थिक रिश्ते चीन से कहीं अधिक लाभदायक और उपयोगी साबित हो सकते हैं.

सियोल पहुंचकर प्रधानमंत्री ने अपने एक संबोधन में कहा कि आइए मिलकर हमारी विरासत, प्राचीन बुद्धिमता और युवा ऊर्जा का उपयोग अपने और विश्व के लिए समान उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए करें. यदि इस प्रकार की सांस्कृतिक-राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक-कूटनीतिक साझेदारी वास्तव में एक व्यावहारिक स्थिति प्राप्त ले तो संभव है एशिया 21वीं सदी की दुनिया में वह हैसियत प्राप्त कर सकता है जिससे अब तक वह वंचित रहा है लेकिन क्या ऐसा संभव हो पाएगा?

सियोल में प्रधानमंत्री के भाषण में जो विषयवस्तु दिखी, उसमें एक बात तो खास थी, वह यह कि भारत की विदेश नीति में उस पक्ष का पिछले एक दशक में काफी अभाव रहा है जिसे प्रधानमंत्री अब शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं. ध्यान रहे कि भारत के पास संस्कृति और संवाद की परंपरा प्राचीन और समृद्ध रही है और यही वह विरासत है जिसके जरिए भारत दुनिया को कुछ दे सकता है. लेकिन पिछले कुछ वर्षो से संवाद की परंपरा कमजोर पड़ी और संस्कृति को किन्हीं कारणों से नेपथ्य की ओर धकेला गया.

इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय विदेश नीति इतनी निशक्त हुई कि भारत को सॉफ्ट स्टेट अथवा फ्लॉपी स्टेट के रूप में देखा जाने लगा. दुनिया के 125 करोड़ से अधिक मानव संसाधन वाले नाभिकीय ताकत से संपन्न और दुनिया की तीसरी या चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था (पीपीपी पर) वाले देश के लिए इससे अधिक शर्मिंदगी वाली बात और कोई नहीं हो सकती थी. अब विदेश नीति में संवाद और संस्कृति, दोनों मौजूद दिख रहे हैं, इसलिए यह उम्मीद तो जग ही रही है कि भारत इस क्षेत्र में एक प्रभावशाली मुकाम हासिल कर सकता है.

हालांकि अभी इसे उपलब्धि के रूप में नहीं सिर्फ एक प्रस्तावना के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि अभी परिणाम आने बाकी हैं. इन्हीं प्रतिमानों के साथ प्रधानमंत्री ने कोरिया को इतिहास की ओर ले जाकर जिस ‘कल्चरल  डिप्लोमेसी’ व ‘अतीत के जुड़ाव’ का प्रयोग किया, उसने कोरियाई हृदय को स्पंदित अवश्य किया होगा. अगर वास्तव में ऐसा हुआ तो संभव है कि आने वाले समय में भारत के साथ दक्षिण कोरिया की बेहतर आर्थिक और सामरिक साझेदारी सुस्थापित होगी.

दक्षिण कोरिया डिजिटल, ऑटोमोबाइल और स्टील उत्पादन के साथ-साथ भवन बनाने के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में अपना स्थान रखता है. उसकी कंपनियों की दुनिया में एक साख है और भारत में तो कोरियाई उत्पादों ने खासी पैठ बना रखी है. ऐसे में दक्षिण कोरिया यदि भारत के आर्थिक विकास में रणनीतिक साझेदारी सुनिश्चित करता है तो न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को नई स्फूर्ति दे सकता है बल्कि कोरियाई कंपनियों के लिए भी और अधिक स्पेस तैयार कर सकता है. दक्षिण कोरिया ने वैीकरण का हिस्सा बनने के बाद बड़ी तेजी से आर्थिक क्षेत्र में छलांग लगाई.

1962 में 2.3 बिलियन की अर्थव्यवस्था वाला यह देश 2013 में एक ट्रिलियन से अधिक की अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया जिसकी प्रति व्यक्ति आय 23,800 डॉलर है. अपने इस आर्थिक कायाकल्प के कारण ही दक्षिण कोरिया 1996 में ओईसीडी (आर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोआपरेशन एंड डेवलपमेंट) का 29वां सदस्य बन गया. यही नहीं, 2012 में उसका विदेशी व्यापार एक ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया. दक्षिण कोरिया का गंगनम शहर दुनिया के सबसे आधुनिकतम सुविधाओं से संपन्न शहरों में एक है. संभवत: यही देखते हुए प्रधानमंत्री ने सियोल भाषण में इच्छा व्यक्त की  कि दक्षिण कोरिया अब तक जो उपलब्धियां हासिल कर चुका है, उन्हें भारत भी हासिल करे.

प्रधानमंत्री चाहते हैं कि भारत में जल, परिवहन, रेलवे, बंदरगाह, जहाज निर्माण, नवीकरणीय ऊर्जा सहित विद्युत, सूचना प्रौद्योगिकी, आधारभूत ढांचा और सेवाएं, इलेक्ट्रॉनिक्स, निर्माण उद्योग क्षेत्रों में जो उभरती हुई संभावनाएं हैं, दक्षिण कोरिया उसमें अपनी निर्णायक भागीदारी निभाए. दक्षिण कोरिया भारत के सामाजिक अधिसंरचनात्मक क्षेत्र में भारी निवेशों के जरिए सक्रिय भागीदारी भी निभा सकता है जिससे प्रधानमंत्री की 2022 तक 50 मिलियन घर बनाने की योजना को तो स्फूर्ति मिलेगी ही, साथ ही स्मार्ट सिटी एवं इकोनॉमिक कॉरिडोर्स के निर्माण में भी सहयोग मिल सकता है.

दक्षिण कोरिया ने चार दशक से कम समय में ही असाधारण आर्थिक प्रगति हासिल की है. निर्यात हब में तब्दील हो चुकी दक्षिण कोरियाई अर्थव्यवस्था के लिए यह आवश्यक होगा कि उसके निर्यातों की मांग वृद्धिशील बनी रहे और इसके लिए यह जरूरी होगा कि भारतीय बाजार में कोरियाई उत्पादों के लिए और अधिक स्पेस बने. इसके लिए दक्षिण कोरिया को भारत में निवेश बढ़ाने की जरूरत होगी. यदि वह मेक इन इंडिया के तहत निवेश करता है तो भारत में रोजगार में वृद्धि के साथ-साथ भारतीय बाजार की सकल मांग में वृद्धि होगी जिसका फायदा कोरियाई कंपनियों को भी मिलेगा.

भारत-दक्षिण कोरिया के बीच सहयोग के कई क्षेत्र हो सकते हैं, विशेषकर भारत का सॉफ्टवेयर और कोरिया का हार्डवेयर उद्योग, कोरियाई कार निर्माण और भारतीय डिजाइन क्षमता, कोरियाई स्टील निर्माण क्षमता और भारतीय लौह अयस्क के संसाधन, कोरियाई  जहाज निर्माण की क्षमता और भारतीय बंदरगाहों पर आधारित विकास. वैसे सेपा (कंप्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट) के बाद से भारत और दक्षिण कोरिया के बीच आर्थिक साझेदारी तेजी से बढ़ रही है और उम्मीद है कि आगे और गति पकड़ेगी.

भारत के प्रशांत महासागर में आर्थिक हित लगातार बढ़ रहे हैं. दक्षिण कोरिया इस लिहाज से भी भारत के अनुकूल हो सकता है. बीते सोमवार को भारत और दक्षिण कोरिया ने द्विपक्षीय ‘स्पेशल स्ट्रैटेजिक साझेदारी’ का उन्नयन किया. खास बात यह है कि पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया के बीच परमाणु संबंध को लेकर दोनों देश गुप्तचर जानकारियों के आदान-प्रदान पर भी सहमत हुए हैं. इससे भारत को चीन-पाकिस्तान-उत्तर कोरिया नाभिकीय त्रिकोण की जानकारी मिल सकेगी और भारत कुछ हद तक चीन की ताकत को काउंटर भी कर सकेगा. यह त्रिकोण काफी ताकतवर है और बेहद खतरनाक भी.

संयुक्त बयान में प्रधानमंत्री ने कहा है कि भारत अपनी ‘एक्ट ईस्ट’ रणनीति में दक्षिण कोरिया को एक अपरिहार्य भागीदार के रूप में में देखता है. दोनों पक्ष एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शांति, स्थिरता और सुरक्षा लाने के उद्देश्य से भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ और कोरिया की ‘नार्थईस्ट एशिया पीस एंड कोऑपरेशन इनीसिएटिव’ के बीच संपूरकताओं को खोजने हेतु कार्य करने के लिए सहमत हुए हैं. इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि भारत और दक्षिण कोरिया आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ रक्षा और वैदेशिक क्षेत्र में एक व्यापक साझेदारी कायम करेंगे.

डॉ. रहीस सिंह
लेखक


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