बालश्रम कानून के दांत मत तोड़िए

Last Updated 23 May 2015 01:19:42 AM IST

भारत ने अब तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता है.


बालश्रम कानून के दांत मत तोड़िए

1992 में उसने संयुक्त राष्ट्र में यह जरूर कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था देखते हुए हम बाल मजदूरी को खत्म करने का काम रुक-रुककर करेंगे क्योंकि इसे एकदम से नहीं रोका जा सकता है. परंतु 22 साल बीत जाने के बाद हम बाल मजदूरी तो खत्म नहीं कर पाए हैं, इसके विपरीत केंद्रीय कैबिनेट ने बाल श्रम पर रोक लगाने वाले कानून को कुछ नरम बनाने की मंजूरी दे दी है. इस पर अंतिम मुहर संसद में संशोधित बिल पास होने के बाद लगेगी. इसमें सबसे विवादास्पद संशोधन पारिवारिक कारोबार या उद्यमों, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री और स्पोर्ट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखने का है.

यह संशोधन एक तरह से ‘बाल श्रम को आंशिक रूप से कानूनी मान्यता देता है, हालांकि इसमें यह बात जोड़ दी गई है कि ऐसा करते हुए अभिभावकों को ध्यान रखना होगा कि बच्चे की पढ़ाई प्रभावित न हो और उसकी सेहत पर काम का कोई विपरीत असर न पड़े. इस संशोधन को लेकर विशेषज्ञों और बाल अधिकार संगठनों की चिंता है कि इससे बच्चों के लिए स्थितियां और बदतर हो जाएंगी क्योंकि व्यावहारिक रूप से यह साबित करना मुश्किल होगा कि कौन सा उद्यम पारिवारिक है और कौन-सा नहीं. इसकी आड़ में घरों की चारदीवारी के भीतर चलने वाले उद्यमों में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को बाल मजदूर के तौर पर झोंके जाने की संभावना बढ़ जायेगी.

फिलहाल, तमाम सरकारी-गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद देश में बाल मजदूरी बड़ी चुनौती बनी हुई है. नगरों-महानगरों से लेकर गांव कस्बों तक घरों से लेकर छोटे-बड़े ढाबों, दुकानों और सार्वजनिक संस्थानों में बड़ी संख्या में बच्चों को काम करते देखना आम बात है. यह स्थिति समाज में बालश्रम की व्यापक स्वीकार्यता दर्शाती है और यह भी कि समाज में कानून का कोई डर नहीं है. सरकारी मशीनरी इसे नजरअंदाज करती नजर आती है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 साल के बच्चों  की आबादी  25.96 करोड़ है. इनमें से करीब एक करोड़ बच्चे मजदूरी करते हैं. इनमें 5 से 9 साल की उम्र के करीब 25 लाख और 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75 लाख बच्चे शामिल हैं. राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तर प्रदेश (21.76 लाख) में हैं जबकि दूसरे नम्बर पर बिहार है जहां 10.88 लाख बाल मजदूर हैं. राजस्थान में 8.48 लाख, महाराष्ट्र  में 7.28 लाख तथा, मध्यप्रदेश में 7 लाख बाल मजदूर हैं. यह सरकारी आंकड़े है और यह स्थिति तब है जब 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे बाल श्रम की परिभाषा के दायरे में शामिल थे.

वैश्विक स्तर पर देखें तो सभी गरीब और विकासशील देशों में बाल मजदूरी बड़ी समस्या बनी हुई है. इसकी मुख्य वजह यही है कि मालिक सस्ता मजदूर चाहता है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने विस्तर पर 130 ऐसी चीजों की सूची बनाई है, जिनके निर्माण में बच्चों से काम करवाया जाता है. इस सूची में सबसे ज्यादा बीस उत्पाद भारत में बनाए जाते हैं. इनमें बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईट, जूते, कांच की चूड़ियां, ताले, इत्र, कालीन कढ़ाई, रेशम के कपड़े और  फुटबॉल बनाने जैसे काम शामिल हैं. भारत के बाद बांग्लादेश का नंबर है जिसके 14 ऐसे उत्पादों का जिक्र किया गया है जिनमें बच्चों से काम कराया जाता है.

इसमें दो राय नहीं कि भारत जैसे देश में जहां मजदूर तबका अपने बच्चों को स्कूल भेजने की स्थिति में नहीं होता है, वहां दो जून की रोटी के लिए बारह चौदह साल के बच्चों का मजदूरी के काम में माता-पिता का हाथ बंटाना किसी हद तो तक स्वीकारा जा सकता है लेकिन सरकार की मंशा के मुताबिक बाल श्रम के रूप में घरेलू स्तर पर काम को सुरक्षित मान लेना सही नहीं होगा क्योंकि इस आड़ में बच्चों के शोषण के खतरे बढ़ जाएंगे. उदारीकरण के बाद असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, काम का साधारणीकरण हुआ है. अब बहुत सारे ऐसे काम घरेलू के दायरे में आ गये हैं जो वास्तव में औद्योगिक हैं. आज देश में बड़े स्तर पर छोटे घरेलू धंधे असंगठित क्षेत्र में चल रहे हैं जो संगठित क्षेत्र के लिए उत्पादन कर रहे हैं. जैसे बीड़ी उद्योग में बड़ी संख्या में बच्चे काम कर रहे हैं लेकिन यह बड़े स्तर का उद्योग है. यही नहीं, लगातार तंबाकू के संपर्क में रहने से ज्यादातर बच्चों को इसकी लत पड़ जाती है और इससे फेफड़े संबंधी रोगों का खतरा बना रहता है.

ऐसे ही बड़े पैमाने पर अवैध रूप से चल रहे पटाखा और माचिस कारखानों में लगभग 50 प्रतिशत बच्चे होते हैं जिन्हें दुर्घटना के साथ-साथ सांस की बीमारी का भी खतरा बना रहता है. इसी तरह से चूड़ी निर्माण में भी बाल मजदूरों का ही पसीना होता है जहां 1000-1800 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाली भट्टियों के सामने बिना सुरक्षा इंतजामों के बच्चे काम करते हैं. देश के कालीन उद्योग में भी लाखों बच्चे काम करते हैं. आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कालीन उद्योग में जितने मजदूर काम करते हैं, उनमें से तकरीबन 40 प्रतिशत बाल श्रमिक होते हैं. वस्त्र और हथकरघा खिलौना उद्योग में भी, भारी संख्या में बच्चे खप रहे हैं. पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में लाखों की संख्या में बाल मजदूर काम करते हैं. इनमें से अधिसंख्य का तो कहीं कोई रिकॉर्ड ही नहीं होता. कुछ बारीक काम जैसे रेशम के कपड़े बच्चों के नन्हें नाजुक हाथों से बनवाए जाते हैं.

विडम्बना देखिए कि पिछले साल ही बाल मजदूरी के खिलाफ उल्लेखनीय काम करने के लिए ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के प्रणोता कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था जिनका कहना है कि बच्चों से उनके सपने छीन लेने से ज्यादा गम्भीर अपराध और क्या हो सकता है. जब बच्चों को उनके माता-पिता से जुदा कर दिया जाता है, उन्हें स्कूल से हटा दिया जाता है या उन्हें तालीम हासिल करने के लिए स्कूल जाने की इजाजत न देकर कहीं मज़दूरी के लिए मजबूर किया जाता है या सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है, ये सब तो पूरी इंसानियत के माथे पर धब्बा है.’ लेकिन लगता है कैलाश सत्यार्थी की यह आवाज अभी हमारे नीति निर्माताओं के कानों तक नहीं पहुची है. बेशक कहा जा रहा है कि बच्चों की सेहत और शिक्षा बाधित किये बिना वे घरेलू श्रम में हाथ बंटा सकते हैं  बालश्रम के विरुद्ध लागू कानून में यह संसोधन बाल श्रम और शोषण को सीमित करने के बजाय उसे बढ़ावा ही देगा.

जावेद अनीस
लेखक


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