मकान के मकड़जाल में मध्य वर्ग

Last Updated 07 May 2015 03:19:34 AM IST

एक तरफ देश में मकानों की कमी है, तो दूसरी तरफ दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरी इलाकों में लगभग एक करोड़ मकान खाली पड़े हैं.


मकान के मकड़जाल में मध्य वर्ग

माना जाता है कि देश में 1.9 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके सिर पर छत नहीं है. यदि ये खाली पड़े मकान उन्हें मिल जाएं तो आधे से ज्यादा आवास समस्या एक झटके में हल हो जाए. पर ये मकान उन्हें नहीं मिल सकते क्योंकि ये तो निवेश के लिए खरीदे गए हैं. भारी मुनाफा कमाने की उम्मीद में बंद पड़े इन मकानों ने कमाई के कुछ सपनों को साकार किया हो या नहीं, पर उस मिडिल क्लास के सपने को ध्वस्त जरूर किया है जो किसी शहर में एक अदद छत की कल्पना लिए पूरी उम्र का कर्ज झेलने तक को तैयार है.

आवास समस्या का यह बदशक्ल चेहरा ऐसा है जिसने शहरी मध्य वर्ग की दुारियां काफी ज्यादा बढ़ा दी हैं. मुश्किल यह है कि यह समस्या दिनोंदिन गहरा रही है, लेकिन सरकार के स्मार्ट सिटी जैसे आह्वान भी इसका कोई हल सुझाते नहीं प्रतीत हो रहे हैं. इधर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने रियलिटी बिल को बिल्डरों का हितैषी बताते हुए सरकार को कोसा जरूर है, पर लगता नहीं कि वे भी इस मध्यवर्गीय त्रासदी का कोई हल सुझा पाने में कामयाब हो पाएंगे.    

यह अक्सर बताया जाता है कि पिछले एक-डेढ़ दशक से भारत में मिडिल क्लास का दायरा तेजी से बढ़ रहा है. न केवल आबादी के प्रतिशत में उसका आंकड़ा बदला है, उसकी सोच में भी बदलाव के संकेत हैं. कई मामलों में तो इस मध्य वर्ग को देश की ताकत के रूप में देखा जाता है, लेकिन देश की शक्ति माने जा रहे इस तबके की कुछ मामलों में ऐसी अनदेखी हो रही है जिससे यह आशंका सच होती लग रही है कि आगे चलकर कहीं इस विशाल तबके की कमर ही न टूट जाए. समस्या अफोर्डेबल हाउसिंग जैसी अहम जरूरत की है. देखा जा रहा है कि अफोर्डेबल हाउसिंग का सच यह है कि इसमें निचले तबकों की जरूरतों को तो कुछ हद तक ध्यान में रखा जा रहा है, लेकिन मध्य वर्ग उसमें कोई जगह नहीं हासिल कर पाया है. 

नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के आकलन के अनुसार देश की कुल आबादी में मध्य वर्ग का हिस्सा 20 प्रतिशत है, मोटे तौर पर यह संख्या 17 से 20 करोड़ के आसपास ठहरती है. लंबे अरसे से सरकारी आवासीय योजनाओं में जिस एमआईजी (मिडिल इनकम ग्रुप) फ्लैट या मकान का जिक्र होता रहा है, वह इसी मिडिल क्लास की जरूरत को संबोधित रहा है. लेकिन उल्लेखनीय है कि अब दिल्ली-मुंबई ही नहीं, लखनऊ, कानपुर, चंडीगढ़, हैदराबाद, इंदौर, भोपाल जैसे शहरों में एमआईजी श्रेणी का एक अदद मकान खरीद पाना मिडिल क्लास के बूते के बाहर की बात हो गई है. 

मध्यवर्गीय मकान का आशय दो कमरे के ऐसे घर से लगाया जाता है जिसमें पति-पत्नी और दो बच्चों के रहने के लिए पर्याप्त स्थान हो. ऐसे फ्लैटों और मकानों की कीमत दिल्ली जैसे शहरों में न्यूनतम 50-70 लाख रु पए है, जबकि दूसरी श्रेणी के शहरों में भी यह कीमत 35-45 लाख रुपए के बीच है. एक औसत मध्यवर्गीय परिवार के लिए इतनी कीमत का घर ले पाना तकरीबन असंभव हो गया है. इसकी दो अहम वजहें हैं. एक तो एनसीएईआर के मुताबिक, इस मिडिल क्लास में ज्यादा संख्या उन परिवारों की है जिनकी सालाना आमदनी 3.40 लाख से छह लाख रु पए के बीच है.

इस वर्ग को न तो बैंक 50 लाख जितनी बड़ी रकम आसानी से दे पाते हैं और न ही यह वर्ग अपने स्तर पर इतने पैसे का इंतजाम कर पाता है. दूसरे, सरकारी आवासीय योजनाओं में इस वर्ग की जरूरतों का अब कतई ध्यान नहीं रखा जा रहा है. मिसाल के तौर पर पिछले साल दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) अफोर्डेबल हाउसिंग के नाम पर 25 हजार फ्लैटों वाली जो योजना लाया था, उसमें दो कमरे के फ्लैटों की संख्या महज 561 थी. उनमें भी ज्यादातर की कीमत ऐसी थी कि जिसे सुनकर होश उड़ जाएं. निजी बिल्डरों द्वारा बनाए जा रहे 2-बीएचके श्रेणी के मकानों की कीमतें तो सरकारी आवासीय योजनाओं के मुकाबले कई गुना ज्यादा हैं. 

इस मामले में देश का मिडिल क्लास सरकारों से ही कुछ उम्मीद कर सकता है, लेकिन इधर सरकार की घोषित इच्छा ले-देकर गरीबी रेखा तक सिमटी हुई है, जिसके नीचे देश का सबसे बड़ा और सबसे आसानी से लुभाया जा सकने वाला वोट बैंक बसता है. कुछ ही समय पहले एशियन डवलपमेंट बैंक (एडीबी) द्वारा एशियाई मिडिल क्लास को लेकर जारी रिपोर्ट में सरकारों की इस आर्थिक समझ की जम कर खिंचाई की गई थी.

एशियाई अनुभवों के आधार पर रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि गरीबी से लड़ने का सबसे भरोसेमंद और टिकाऊ तरीका गरीबों को सीधे राहत पहुंचाने का नहीं, बल्कि मध्य वर्ग की ओर उन्मुख आर्थिक नीतियां बनाने का है. इस रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय मध्य वर्ग की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसकी आमदनी भले पक्की न हो, लेकिन टैक्स कटना पक्का है. नौकरी चली जाने या किसी बड़ी बीमारी की गिरफ्त में आ जाने का डर हमेशा उसके हाथ बांधे रखता है, क्योंकि ऐसा एक भी झटका उसे मुख्यधारा से बाहर कर देने के लिए काफी होता है.

वैसे तो कहा जाता है कि अगर देश की विकास दर को स्थाई बनाना है तो सरकार को सबसे पहले इस निम्न मध्यवर्ग की जड़ें मजबूत करनी होंगी. लेकिन जिस तरह से उसे मकान जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित रखा जा रहा है, उन हालात से उससे किसी बेहतरी की उम्मीद करना बेमानी होगा. यह तबका फिलहाल भारत में उपभोक्ता सामानों, वाहन उद्योग और हाउसिंग सेक्टर की बुनियाद है और अगले पांच सालों में इसके दो-तिहाई से भी ज्यादा बढ़ जाने की सूचना इन सारे क्षेत्रों का भविष्य उज्ज्वल बताती है. लेकिन इसका चिंताजनक पहलू यही है कि इतने बड़े मध्य वर्ग की जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा कर पाने के लिए देश की तैयारियां सही रफ्तार से आगे नहीं बढ़ रही हैं. 

ध्यान रहे कि हमारे देश में उदारीकरण के बाद अर्थव्यवस्था में जो गति आई है, उसका सूत्रधार यही मिडिल क्लास है. इसने ही भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया मोड़ दिया है. इसी ने खतरे उठाए, जी तोड़ मेहनत की और भूमंडलीकरण के नए अवसरों का लाभ उठाते हुए सफलता की नई कहानियां लिखीं. जाहिर है, इसका रहन-सहन बदला, उपभोग के स्तर में बढ़ोतरी हुई.

इसी को ध्यान में रखकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत की ओर कदम बढ़ाए. इन कंपनियों को इसी वर्ग से न सिर्फ  उपभोक्ता मिले, बल्कि उन्हें तेजतर्रार पेशेवरों की फौज भी मिली है. मिडिल क्लास के इस नए अवतार को एक महत्वपूर्ण सामाजिक परिघटना के रूप में देखा जाना चाहिए. ऐसे में यदि इस वर्ग की अपेक्षाओं को हाशिये पर धकेलने की नीतियां इसी तरह जारी रहीं, तो उसका बुरा असर देश की अर्थव्यवस्था और तरक्की पर भी पड़ सकता है.

अभिषेक कुमार
लेखक


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