हिमालयी क्षेत्र के लिए जरूरी राष्ट्रीय नीति

Last Updated 06 May 2015 01:29:18 AM IST

पर्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है.


हिमालयी क्षेत्र के लिए जरूरी राष्ट्रीय नीति

इस कारण वहां के लोगों को राजनीति में प्रतिनिधित्व मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा कम मिलता है. लेकिन इस मामले में ध्यान रखना जरूरी है कि पर्वतीय क्षेत्रों के पर्यावरण का सघन आबादी वाले मैदानी क्षेत्रों पर बहुत महत्वपूर्ण असर पड़ता है. पर्वतीय क्षेत्रों के परिवेश की रक्षा वहां के लोगों की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, इसका अधिक व्यापक महत्व भी है. अत: केवल जन-घनत्व कम होने की दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्रों को कम महत्व देने की गलती कभी नहीं होनी चाहिए.
यह सिद्धांत जितना सामान्य पर्वतीय क्षेत्रों पर लागू होता है, उससे कहीं अधिक हिमालय क्षेत्रों पर लागू होता है. हिमालयी पर्वत श्रृंखला के विस्तार, ऊंचाई और विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के कारण हिमालय क्षेत्र की गतिविधियों का दक्षिण एशिया के बड़े क्षेत्र के लिए अत्यधिक महत्व है.

हिमालय में भी कहीं-कहीं बहुत सघन आबादी है जो दुनिया के कई पर्वतीय क्षेत्रों से अधिक है. मैदानी क्षेत्रों से कम जन-घनत्व के बावजूद इसका दुनिया के सबसे सघन आबादी के एक बड़े क्षेत्र के लिए अपार महत्व है. विश्व में बढ़ते जल संकट के बावजूद ध्यान रखना जरूरी है कि हिमालय में ग्लेशियरों, नदियों, वनों और झीलों का बहुत बड़ा जल-भंडार है. इन्हें सावधानी से संजो कर रखा जाए तो कल-कल बहते झरनों व छोटी-बड़ी नदियों का पानी करोड़ों लोगों की प्यास बुझाता रहेगा. पर यदि इनका दोहन-शोषण अनुचित ढंग से किया गया तो यह जल-भंडार रौद्र रूप लेकर बाढ़ की विनाशलीला को विकट बनाएगा.

हिमालय क्षेत्र का जन-जीवन यहां के वनों से नजदीकी तौर पर जुड़ा है. वन अच्छी हालत में होते हैं तो लोगों की टिकाऊ  आजीविका का बड़ा आधार इससे प्राप्त होता है. कई आपदाओं से एक सीमा तक रक्षा भी होती है. पर साथ में पूरे देश की बहुपक्षीय भलाई के लिए भी यहां के वनों का बहुत महत्व  है. अत: हिमालय के वनों को राष्ट्रीय धरोहर मानकर इनकी रक्षा के लिए केंद्र सरकार को हिमालय क्षेत्र की राज्य सरकारों को विशेष संसाधन उपलब्ध करवाने चाहिए. हिमालय की कृषि का भी राष्ट्रीय स्तर पर विशेष महत्व है. एक छोटे क्षेत्र या एक पंचायत में तरह-तरह की ऊंचाई पर खेत होने के कारण खेती व बागवानी की जैव-विविधता की रक्षा के लिए हिमालय क्षेत्र खासतौर पर जाना जाता है.

इन विशिष्ट स्थितियों के महत्व को देखते हुए हिमालय में जैव-विविधता की रक्षा को उच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए जिसके लिए केंद्र सरकार को विशेष बजट उपलब्ध  कराना चाहिए और इसके माध्यम से वन व खेतों की जैव-विविधता की रक्षा में हिमालय के लाखों गांववासियों- विशेषकर महिलाओं व युवाओं को रचनात्मक रोजगार मिलने चाहिए. दुर्भाग्यवश नीति-निर्धारकों ने जब हिमालय के वनों के महत्व को पहचाना है तब भी वन व जल के रिश्तों को वे ठीक से नहीं समझ पाए हैं. उन्होंने वनों व वन्य जीवों की रक्षा के नाम पर ऐसी नीतियां अपनाईं जिससे हिमालयी क्षेत्र की ग्रामीण आबादी की आजीविका मजबूत होने के स्थान पर छिनने  लगी व कई जगहों से वे विस्थापित भी होने लगे. पार्को व अभ्यारण्यों व टाइगर रिजर्व आदि के नाम पर प्राय: ऐसी ही जन-विरोधी नीतियां अपनाई गई हैं. इनके स्थान पर ऐसी जन-पक्षीय नीतियां बन सकती हैं जिनसे स्थानीय लोगों को वन व वन्य जीवों की रक्षा में रोजगार मिल सकते हैं. इस कार्य को व खेती में जैव-विविधता की रक्षा के कार्य को स्थानीय लोग बाहरी विशेषज्ञों की अपेक्षा बेहतर ढंग से कर सकते हैं.

इसी तरह जल-विद्युत के क्षेत्र में हाल के वर्षो में विस्थापन वाली व ग्रामीण क्षेत्रों के पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने वाली नीतियां अपनाई गई हैं. इसके स्थान पर गांववासियों की भागेदारी से विकेंद्रित अक्षय ऊर्जा के विकास नीति अपनायी जानी चाहिए. इस संबंध में पर्याप्त जानकारियां गांववासियों को उपलब्ध करवानी चाहिए ताकि गांववासी स्वयं अपने गांव के लिए विकेंद्रित अक्षय ऊर्जा की योजना तैयार कर सकें. ऐसी योजनाओं में विभिन्न गांवों की विशिष्ट भौगोलिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए वहां लघु पनबिजली, घराट, मंगल टरबाईन, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, बायो गैस व बायोमास की समग्र योजना बनाई जानी चाहिए. इस तरह गांव ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बन सकते हैं तथा अनेक कुटीर उद्योगों के लिए भी नियमित ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं. विभिन्न तरह के परंपरागत व नए कुटीर उद्योगों तथा सेवा क्षेत्र के रोजगारों को आगे बढ़ाना चाहिए. शिक्षा व पर्यटन क्षेत्र में विकास की बड़ी संभावनाएं यहां हैं पर यह विकास पर्यावरण रक्षानुकूल होना चाहिए.

इस तरह के विकास का एक मुख्य लाभ यह है कि गांववासी पर्यावरण के विनाश व विस्थापन की संभावनाओं को दूर रखते हुए ऐसी योजना बना सकते हैं जिससे गंभीर प्रतिकूल परिणामों के बिना ही विकास की जन-पक्षीय सही राह निकल सके. जल-संसधानों का ऐसा विकास हो तो पन-बिजली की संभावनाओं को इस तरह प्राप्त किया जाएगा जिससे नदियों, खेतों व वनों की कोई क्षति न हो. जहां ऐसी नीतियां स्थानीय लोगों के लिए लाभप्रद हैं, वहीं इससे गंगा-यमुना व ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी सदानीरा नदियों की रक्षा में भी सहायता मिलेगी जो एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय उद्देश्य है.

दूसरी ओर नदियों की रक्षा के प्रयास हिमालय क्षेत्र में उपेक्षित हुए तो देश के अन्य बड़े भाग में भी नदियों की रक्षा करना या बाढ़ की समस्या को नियंत्रित करना बहुत कठिन होगा. हिमालय नीति का आधार होना चाहिए टिकाऊ आजीविका की रक्षा व पर्यावरण की रक्षा. इसके अतिरिक्त महिलाओं के हितों की रक्षा, नशे की समस्या को कम करने व समाज-सुधार के अन्य मुद्दों को समुचित महत्व मिलना चाहिए. इस तरह की राष्ट्रीय नीति बनाने के साथ हिमालय क्षेत्र के पड़ोसी देशों के साथ ऐसे जन-हितकारी कार्यों में आपसी सहयोग के अवसर भी बढ़ाये जाने चाहिए.

विषमता व निर्धनता को कम करना, सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को टिकाऊ  तौर पर पूरा करना ऐसे उद््देश्य हैं जो सभी क्षेत्रों की तरह हिमालय क्षेत्र में भी उच्च प्राथमिकता के उद्देश्य हैं. जरूरत इस बात की है कि इन उद्देश्यों को हिमालय क्षेत्र की भौगोलिक, पर्यावरणीय व सामाजिक स्थितियों के संदर्भ में ठीक से समझा जाए ताकि इन्हें प्राप्त करने में व्यापक स्तर पर जन-भागीदारी भी प्राप्त हो सके. हिमालय क्षेत्र में मानवाधिकारों की रक्षा करना व शान्ति तथा सद्भावना के सतत प्रयास बेहद जरूरी हैं.

भारत डोगरा
लेखक


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