नेपाल त्रासदी में निहित सबक

Last Updated 03 May 2015 02:50:15 AM IST

प्रकृति ने एक बार फिर चेतावनी दी. समय-समय पर छोटी-मोटी चेतावनियां वह जारी करती ही रहती है जिन्हें हम आसानी से नजरंदाज कर जाते हैं.


नेपाल में भयंकर भूकम्प

लेकिन इस बार उसने बड़ी चेतावनी दी, डरावनी चेतावनी दी, विनाशक चेतावनी दी. बड़ी-बड़ी इमारतें रेत के घरौंदों की तरह ढह गई, सुरक्षा देने वाले घर कब्रगाह बन गए, ऐतिहासिक स्मारक इतिहास बन गए, बिजली-पानी-संचार की व्यवस्थाएं चरमरा गई और व्यवस्था की गोद में पलने-बढ़ने वाली जिंदगी अव्यवस्थित होकर बुरी तरह लड़खड़ा गई.

हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए, हजारों घायल होकर मौत के मुंह से निकल आए, हजारों को राहत और बचाव कार्यों ने बचा लिया. मगर नेपाल भूकंप त्रासदी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि भूकंप ध्वस्त क्षेत्र में अब भी ऐसे पहाड़-गांव हैं जहां 21वीं सदी की अधुनातन तकनीक से लैस राहत-बचाव की भुजा अभी तक नहीं पहुंच पाई है. और जब तक यह भुजा वहां पहुंचेगी, तब तक मौत का आंकड़ा शायद 10 हजार को भी पीछे छोड़ जाए.

प्रकृति ने चेतावनी दी है कि 21वीं सदी की करिश्माई प्रौद्योगिक शक्ति संपन्नता के बावजूद उसके प्रकोप के आगे मनुष्य असहाय है. त्रासदी क्षेत्र के स्थानीय लोगों की बात तो दूर, नेपाल जैसे देश की समूची राजशक्ति भी इस प्रकोप का मुकाबला नहीं कर सकती. भारत सहित दुनिया के बहुत से देश भरपूर सहायता के साथ दौड़ पड़े, फिर भी यह सहायता कम पड़ रही है. आपदा से बचे लोगों के जीवन को फिर से खड़ा करने संबंधी जरूरतें व्यापक हैं, बहुआयामी हैं और बहुत ज्यादा मांगकारी हैं.

इनकी जीवन-मरण की मांगों की आपूर्ति आसान नहीं है. जो मौत के आगोश में चले गए वे चले गए, लेकिन जो बच गए हैं उनमें न जाने कितने आजीवन विकलांग रहेंगे, न जाने कितने अपना सब कुछ गंवाकर सड़क पर आ जाएंगे और न जाने कितने जिंदा रहने के बावजूद मर जाएंगे. ऐसा उस तमाम सहायता के बावजूद होगा जो दुनियाभर से पहुंच रही है. सहायता की सीमा है लेकिन भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा के दूरगामी मानवीय दुष्परिणामों की कोई सीमा नहीं.

भारत के बहुत से शहर भूकंप प्रभावी क्षेत्र में हैं. यह सोचकर ही सिहरन होने लगती है कि अगर कभी दिल्ली जैसा महानगर भूकंप की चपेट में आया तो क्या होगा. जिस शहर में और जिसके आसपास के इलाकों में सामान्य परिस्थितियों में भी परिवहन, संचार और बिजली-पानी जैसी व्यवस्थाएं निरंतर बाधित रहती हैं, अकर्मण्यता-अराजकता-भ्रष्टाचार के कारण लोगों को निरंतर कठिनाइयों-परेशानियों के मलबे में दबाए रखती हैं और जिनकी स्वास्थ्य सेवाएं कभी डेंगू तो कभी स्वाइन फ्लू जैसी नियंत्रणीय बीमारियों के आगे बौनी, पंगु और लाचार नजर आती हैं, उस शहर में आया हुआ नेपाल जैसा भूकंप क्या कहर बरपा करेगा इसकी कल्पना ही डरावनी लगती है. लाखों लोग तो सिर्फ इसलिए मर जाएंगे कि न कोई उनकी सुध लेने वाला होगा और न उन तक पहुंचने वाली कोई सेवा होगी और न सेवाओं को संभालने वाली कोई प्रशासनिक व्यवस्था. त्रासदी अकल्पनीय तौर पर बड़ी होगी तो भूकंप के कारण नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य द्वारा बरती गयी अनियंत्रित असावधानियों के कारण और प्रकृति की खुली अवमाननाओं के कारण.

भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए हमारे पास अभी तक कोई उपाय नहीं हैं, भविष्य में होंगे इसकी भी कोई संभावना नहीं है. जैसे-जैसे प्रकृति के बीच मनुष्य का हस्तक्षेप बढ़ रहा है, वैसे-वैसे प्रकृति अधिक उग्र, आक्रामक और विनाशक हो रही है. वह कभी बाढ़, कभी सुनामी, तो कभी भूकंप के माध्यम से मनुष्य निर्मित सारी व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर देती है. इन आपदाओं का सबक है कि हम प्रकृति के साथ आत्मघाती छेड़छाड़ न करें, उसका सम्मान करें और उसे नष्ट करके नहीं, बल्कि उसके साथ संतुलन बिठाकर अपना विकास करें. लेकिन क्या आपदाओं से यह सबक सीखा है मनुष्य ने?

मनुष्य अपने आपको चाहे जितना अपराजेय समझे, मगर आपदाएं समझाती हैं कि वह अब भी अपराजेय नहीं है. मनुष्य चाहे जिस ईर-अल्लाह को पुकारे लेकिन आपदाओं के देवता हर पुकार को अनसुना कर देते हैं. भूकंप जैसी आपदा न किसी धर्म का लिहाज करती है, न किसी मजहब का. वह नहीं देखती कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान, कौन सिख है, कौन ईसाई. वह किसी को ऊंचा-नीचा नहीं मानती, किसी को छोटा-बड़ा नहीं ठहराती. मनुष्य अपनी-अपनी पहचानों को लेकर, अपनी-अपनी श्रेष्ठताओं के दावों को लेकर भले ही एक-दूसरे के विरुद्ध युद्धनाद करता रहे, लेकिन आपदा एक झटके में सबको सबकी औकात बता देती है, सबको सपाट-समतल कर देती है. नेपाल की त्रासदी ने हमें एक बार फिर यह सबक सिखाया है.
नेपाल त्रासदी का एक सबक यह भी है कि विनाशक आपदा हमें एक झटके से एक पाले में खड़ा कर देती है.

हमें यकायक अपनी सारी क्षुद्रताओं से ऊपर उठा देती है- सबको नहीं तो उन्हें जरूर जो सचमुच मनुष्य हैं. हमें आपदाग्रस्त इंसानों के प्रति सहानुभूति से भर देती है. हमें उनकी सहायता के लिए प्रेरित करती है, उनके साथ खड़ा होने को बाध्य करती है. हमें हमारे सारे मतभेदों को, सारी कटुताओं को और सारी शत्रुताओं को भुलाकर उदार इंसानों में बदल देती है. नेपाल के प्रति सारी दुनिया की सहानुभूति और सारी दुनिया के सहायता के लिए बढ़े हाथ दरअसल उस धर्म के हाथ हैं जिसे हम मानव धर्म कहते हैं, जिसे इंसानियत कहते हैं. यह धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ा कर्म है और सबसे बड़ा कर्तव्य है.

इसके आगे बाकी सब छोटा है, बौना है और अर्थहीन है. यह धर्म तोड़ता नहीं, जोड़ता है. यह मनुष्यता का विस्तार करता है, उसका संकुचन नहीं करता. मनुष्य को उसके क्षुद्र दायरों से बाहर निकालकर एक विशाल और विराट दायरे में स्थापित करता है. फिर क्या वजह है कि हम इंसानियत के इस उभार और उफान के लिए किसी विनाशक त्रासदी का इंतजार करते हैं. क्यों हम शांतिकाल में इस धर्म का निर्वाह नहीं कर पाते, अगर कर पाते तो शायद हम बहुत-सी त्रासदियों से बच पाते और उनका दर्द बहुत कम कर पाते.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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