सोशलिस्ट खेती के बारे में सोचने का वक्त
किसान मर रहे हैं, इस शोर में यह तथ्य छिप कर रह गया है कि मरने वाले किसान कौन हैं और नहीं मरने वाले किसान कौन हैं.
सोशलिस्ट खेती के बारे में सोचने का वक्त |
किसान वे मर रहे हैं या आत्महत्या कर रहे हैं जिनकी खेती का रकबा छोटा है. बड़े किसानों की अर्थव्यवस्था इतनी कमजोर नहीं है कि मौसम की थोड़ी-सी मार पड़ते ही वे बिलबिला उठें. यह स्थिति छोटे किसानों की है जिनके पास औसतन दो एकड़ से कम जमीन है. इनकी संख्या किसानों की कुल संख्या की दो-तिहाई है. ये गरीब किसान हैं और इनकी गरीबी जाती दिखाई नहीं देती. इनकी आर्थिक सामथ्र्य इतनी नहीं है कि वे किसी भी चीज को प्रभावित कर सकें. ये बाजार पर हावी नहीं हैं, बल्कि बाजार इन पर हावी है. ये बाजार से लाभ नहीं उठा पाते, बाजार इनका शिकार करता है.
भारत में खेती चूंकि उद्योग नहीं है, बल्कि जीविका है, इस बात के मद्देनजर कृषि योग्य भूमि की अधिकतम सीमा सरकार द्वारा निर्धारित कर दी गई है. इसके बावजूद सभी राज्यों में ऐसे किसान हैं जो तरह-तरह की तिकड़म कर इस सीमा से ज्यादा जमीन पर कब्जा किए हुए हैं. जमींदारी प्रथा तो गई, पर छोटे-छोटे जमींदार अस्तित्व में आ गए हैं. वैसे तो खेती इनके लिए भी अलाभकर है, पर इनके खेतों का फैलाव इतना ज्यादा है कि कुल मिलाकर इनकी संपन्नता बनी रहती है. लेकिन धीरे-धीरे वह सीमा-बिंदु आ ही जाएगा जब खेती की लागत इतनी बढ़ेगी और उपज की कीमत इतनी गिरेगी कि वे भी खेती से अलग होने की सोचने लगेंगे. वे आय के वैकल्पिक साधन खोज लेंगे. पर छोटा किसान अपने खेत से अलग होता है, तो उसके पास और रद्दी विकल्प हैं- रिक्शा चलाना, सड़क पर मजदूरी करना, कुली बन जाना आदि. ये काम हीन नहीं हैं और उचित पारिश्रमिक देकर इन्हें सम्मानजनक बनाया जाना चाहिए. परंतु जब तक ऐसा नहीं होता, इन कामों में लगे व्यक्तियों की संख्या बढ़नी नहीं चाहिए.
क्या पूंजीवादी व्यवस्था के पास इस संकट का कोई हल है? खेती में पूंजी के तत्व बढ़ते जा रहे हैं, फिर भी छोटे और मझोले किसानों की अवस्था बिगड़ती जा रही है. पूंजीवादी खेती अधिक से अधिक निवेश, खेतों के बड़े आकार और नवीनतम यंत्रों तथा अन्य सामग्री के प्रयोग पर निर्भर है. पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र आदि कुछ राज्यों में ऐसा हो भी रहा है, पर खेती का आकार एक सीमा से अधिक न बढ़ पाने की वजह से यह प्रक्रिया बहुत दूर तक नहीं जा सकती. यही वजह है कि यद्यपि पूंजीवाद हमारे कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है, पर पूंजीवादी खेती की वकालत करता कोई दिखाई नहीं पड़ता. छोटे किसानों के लिए उसके पास कोई नुस्खा नहीं है.
लेकिन छोटे किसान चाहें तो इस पूंजीवादी पण्राली के भीतर ही अपनी मुक्ति का रास्ता खोज सकते हैं. इसे हम सोशलिस्ट खेती कह सकते हैं. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सहकारी खेती के नाम से यह प्रयोग शुरू किया था. इस प्रयोग की विफलता का एक बड़ा कारण यह था कि खेती-किसानी पर परिस्थितियों का उतना दबाव नहीं था जितना आज है. इसके अलावा छोटे किसानों की संख्या भी उतनी ज्यादा नहीं थी जितनी आज है. कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन के अनुसार पिछले चालीस वर्षो में किसानों की संख्या सात करोड़ से बढ़ कर चौदह करोड़ हो गई है. छोटे किसानों की संख्या जितनी बढ़ती है, समस्या उतनी ही गहरी हो जाती है.
कहते हैं, विपत्ति में दिमाग ज्यादा तेजी से काम करने लगता है. यह भी सच है कि सुख अलग करता है, दुख जोड़ता है. क्या इस तथ्य को हम सोशलिस्ट खेती के रूप में साकार नहीं कर सकते? सोवियत संघ में सोशलिस्ट खेती का प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हुआ था. लेकिन वह किसान संस्कृति का अंग नहीं बन सका, क्योंकि वह नीचे से नहीं उभरा था, बल्कि ऊपर से लादा हुआ था. नेहरू की सहकारी खेती भी सरकार द्वारा प्रायोजित थी. लेकिन आज परिस्थितियों का गहरा दबाव सोशलिस्ट खेती के पक्ष में है. समय छोटे किसानों से कह रहा है- एकता की सोचो, नहीं तो नष्ट हो जाओ.
सोशलिस्ट खेती गरीब किसानों को एकजुट कर उनकी ताकत बढ़ा देगी. वे सामूहिक रूप से काम करेंगे और उससे होने वाली प्राप्ति का आपस में बंटवारा कर लेंगे. इसके कई फायदे होंगे. एक तो बीज, खाद, कीटनाशक आदि के व्यापारी संगठित किसानों के साथ खेल नहीं सकेंगे. ऑर्डर बड़े होंगे, तो व्यापारियों पर उनका दबाव पड़ेगा. दूसरे, सामूहिक पूंजी से आधुनिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग संभव होगा. तीसरे, आवश्यकता पड़ने पर बैंक तथा अन्य संस्थानों से ऋण लेने में आसानी होगी. चौथे, कई किसान संघ मिल कर वेअरहाउस बना सकते हैं, ग्रामीण सड़कों को सुधारने के लिए सरकार पर दबाव भी बना सकते हैं, जिससे मंडी में उनकी मोलभाव की क्षमता बढ़ेगी. पांचवां बड़ा फायदा यह हो सकता है कि किसान संघ तरह-तरह के कृषि उद्योग चला सकते हैं और जब सदस्यों के पास काम नहीं होता, इस माध्यम से उनके श्रम का सदुपयोग किया जा सकता है.
लेकिन सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि किसान संघ आपदा कोष बना सकता है. सभी सरकारों के पास आपदा (आकस्मिक) कोष होता है, पर उसमें दुर्दशाग्रस्त किसानों का हिस्सा बहुत कम होता है. किसान संघ का अपना आपदा कोष हो तो मौसम की मार पड़ने पर सदस्य किसानों की तुरंत मदद दी जा सकती है. आजकल स्व-सहायता (सेल्फ-हेल्प) समूहों की बाढ़ आई हुई है. क्या किसान भी अपना स्व-सहायता समूह नहीं बना सकते? सोशलिस्ट खेती का रास्ता इधर से ही गुजरता है. काम कठिन है, पर करने लायक है.
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