किसानों को सियासत नहीं, सहायता चाहिए

Last Updated 27 Apr 2015 05:14:53 AM IST

इस सप्ताह उर्दू प्रेस पर गजेंद्र सिंह और अन्य किसानों की आत्महत्या पर सियासत, आम आदमी पार्टी से अनेक बड़े नेताओं का निष्कासन, बिहार में तूफान की तबाही, नेपाल में भूकंप सबसे ज्यादा छाए रहे.




किसान गजेंद्र सिंह की आत्महत्या पर सियासत (फाइल फोटो)

इनके अलावा रूस द्वारा इराक व सीरिया को हथियारों की सप्लाई, यमन में सऊदी अरब व सहयोगियों की सैनिक कार्रवाई का विरोध, दिल्ली पुलिस पर आम आदमी पार्टी के आरोप, राहुल गांधी की केदारनाथ यात्रा और संसद में हंगामे जैसे मुद्दों पर अनेक उर्दू दैनिकों ने संपादकीय भी प्रकाशित किये.


उर्दू दैनिक \'इंकलाब\' ने आम आदमी पार्टी में फूट को अपने संपादकीय का विषय बनाया है. पत्र के शब्दों में, \'कहते हैं कि कामयाबी और सत्ता दोनों को पचाना बहुत कठिन होता है, पिछले एक डेढ़ माह से आम आदमी पार्टी में जो संकट जारी है और जिसकी पराकाष्ठा के रूप में योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से निकाल दिया गया, वह दुखद है. मतभेद हर जगह होता है. समझदारी इसमें नहीं कि अलग होकर मतभेद से निपटा जाए. बुद्धिमानी यह है कि आपसी समझबूझ द्वारा स्वयं कायल होकर या दूसरों को कायल कर या समझा कर आगे बढ़ा जाए. यह एक ऐसी परीक्षा है कि जिसमें कामयाबी के लिए समझदारी की जरूरत है.

अरविंद केजरीवाल के मिजाज में धैर्य व समझदारी कितनी है यह कहना मुश्किल है, परंतु उनकी जिद सबके सामने हैं. इसी जिद के कारण उन्होंने अपने दो साथियों को दूध में से मक्खी की तरह निकाल दिया. इस पृष्ठभूमि में कहा जा सकता है कि सबको साथ लेकर चलने की आजमाइश में वह बुरी तरह असफल रहे हैं. परंतु सियासत में आजमाइश के बाद आजमाइश होती रहती है. अब उन्हें पार्टी में एकता व सहमति बरकरार रखने की जी-जान से कोशिश करनी होगी. अन्यथा यदि ऐसा ही कोई संकट फिर पैदा हुआ तो अरविंद केजरीवाल की साख जितनी अब प्रभावित हुई है, उससे ज्यादा उस समय प्रभावित होगी. कहने का मतलब यह है कि उन्हें एकता व सहमति बरकरार रखने के लिए संघर्ष करना होगा.\'

उर्दू दैनिक \'राष्ट्रीय सहारा\' ने \'किसान की आत्महत्या पर सियासत\' शीषर्क के तहत अपने संपादकीय में लिखा है कि दौसा इलाके के एक किसान गजेंद्र सिंह की आत्महत्या का मामला जिस तरह से राजनीति का मुद्दा बन गया है, वह अत्यधिक शर्म की बात है. इस मुद्दे पर केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी से लेकर कांग्रेस और दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी में से किसी का भी व्यवहार इतना संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण नहीं है जिसकी ऐसे मामलों में जरूरत होती है. शायद यह हमारी सियासत की त्रासदी है कि राजनीतिज्ञों के लिए तमाम मानवीय और सामाजिक समस्याओं को देखने की एकमात्र कसौटी सियासी नफा और नुकसान रह गई है. गजेंद्र सिंह की आत्महत्या के मुद्दे पर संसद में जो हंगामा हुआ और इस मामले पर अलग-अलग पार्टियों की प्रतिक्रियाओं से तो कम से कम यही अंदाजा होता है. इस मुद्दे पर केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बयान देते हुए कहा कि दौसा से आया व्यक्ति जब पेड़ पर चढ़ा था तो वहां मौजूद लोग ताली बजाकर और नारेबाजी करके उसे उकसा रहे थे, जबकि पुलिस उसे व्यस्त रखकर समझदारी से सीढ़ी द्वारा नीचे उतारना चाह रही थी.

राजनाथ का यह बयान किसी हद तक सही है कि गजेंद्र सिंह जब पेड़ चढ़ा था तो लोगों ने तालियां बजाई थीं, लेकिन जनता की संवेदनहीनता को बहाना बना कर दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारियों को कम नहीं किया जा सकता. सच यह है कि दिल्ली पुलिस ने इस मामले में ढीलापन अपनाया. यदि दिल्ली पुलिस सक्रिय होती तो गजेंद्र सिंह को बचाया जा सकता था. इस दृष्टि से राजनाथ सिंह का बयान दिल्ली पुलिस को बचाने की अपरोक्ष कोशिश ही नजर आता है.

दूसरा मामला आम आदमी पार्टी की रैली से संबद्ध है. जिस समय रैली में केजरीवाल का भाषण चल रहा था, उसी दौरान गजेंद्र सिंह पेड़ पर चढ़ा और कुछ देर बाद उसने आत्महत्या कर ली. लेकिन घटनास्थल के करीब आम आदमी पार्टी के नेता रैली में व्यस्त रहे. केजरीवाल का भाषण जारी रहा और गजेंद्र सिंह को बचाने के लिए उस जिम्मेदारी का प्रदर्शन बहरहाल नहीं किया गया, जिसकी अपेक्षा दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनके साथियों से थी. यह अजीब बात है कि आम आदमी पार्टी ने इतनी बड़ी त्रासदी के बावजूद रैली को स्थगित नहीं किया और वह बदस्तूर जारी रही.

 

असद रजा


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