आमदनी बढ़ाने से थमेगा आत्महत्या का दौर
राजस्थान के 41 वर्षीय किसान गजेंद्र सिंह की केंद्र सरकार की नाक के नीचे आत्महत्या की लोमहर्षक घटना ने सभी को हिलाकर रख दिया है.
आमदनी बढ़ाने से थमेगा आत्महत्या का दौर |
इस हृदयविदारक घटना के बाद संसद से सड़क तक उबाल उठा है. ऐसा नहीं है कि किसान आत्महत्या की यह पहली घटना है. दिल्ली से दूर बदहाल किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं. किंतु केंद्र और राज्य सरकारों की नींद टूटने का नाम नहीं ले रही है. बड़ा सवाल है कि आखिर क्यों किसान निराश होकर आत्महत्या की राह चुन रहे हैं?
उन्हें ऐसा करने से रोकने के उपाय नाकाफी क्यों हैं? उनकी मौत पर राजनीति होती ही है, जैसा गजेंद्र के मामले में भी देखने को मिल रहा है, लेकिन हमेशा की तरह मूल सवाल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में तिरोहित हो गया है. नेता घड़ियाली आंसू बहाने और कुछ मुआवजा देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान बैठे हैं, जबकि देश की 54 प्रतिशत आबादी कृषि से जुड़ी है. फिर भी सरकारें खेती-किसानी के लिए दीर्घकालिक रणनीति बनाने में अभी तक विफल हैं. प्राकृतिक आपदा और उपज का लाभकारी मूल्य न मिलने के कारण किसानों की माली हालत खराब हो रही है. बिचौलियों और साहूकारों का फंदा कसता जा रहा है. इसीलिए बेहाल किसान किसानी छोड़ रहा है और शहरों की ओर पलायन कर रहा है.
आज किसान तबाही की कगार पर खड़े हैं. बेमौसम बरसात और तूफान के चलते उनकी फसल बर्बाद हो चुकी है. बढ़ते कर्ज के बोझ ने उनके आत्मविश्वास और मनोबल को तोड़कर रख दिया है. उधर उद्योगों के लिए जमीन छोड़ने का दबाव उन्हें और तोड़कर रख देने वाला है. केंद्र सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश उन्हें डरावना लग रहा है. वे उसे अपने खिलाफ साजिश मान रहे हैं. वे व्यवस्था से नाउम्मीद हो चले हैं. किसान घटती आमदनी के चलते अपने परिवार की बेबसी और बर्बादी देखने को विवश हैं. यही निराशा उन्हें आत्महत्या के लिए उकसा रही है. ऐसे में सरकार को खेती के प्रति आकर्षण और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए नए सिरे से सोचना चाहिए.
दिलचस्प यह है कि देश की जीडीपी में खेती का 14 प्रतिशत योगदान है. अकेले वर्ष 2014-15 में भारत ने 18 मिलियन टन अनाज एक्सपोर्ट किया है. इस क्षेत्र में अतीत संभावनाओं के बावजूद किसान राजनीति का शिकार बन गया है. कृषि क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही समस्याएं जस की तस हैं. पिछले बीस वर्षो (1995-2013) में करीब तीन लाख किसान देश के विभिन्न हिस्सों में आत्महत्या कर चुके हैं. अभी पिछले कुछ महीनों में ही उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के 150 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
देश की दोनों बड़ी पार्टियां- केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्ष में बैठी कांग्रेस-आज भले ही घड़ियाली आंसू बहाने और एक-दूसरे को कोसने में लगी हों, किंतु दोनों के हाथ खून से सने हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने किसानों को उनकी लागत में 50 फीसद और जोड़कर फसल का मूल्य दिलाने का वायदा किया था. लेकिन वह महज चुनावी जुमला बनकर रह गया है. इस साल गेहूं का समर्थन मूल्य 50 रुपए प्रति क्विंटल ही बढ़ाया गया है. तर्क है कि समर्थन मूल्य बढ़ाने से खाद्यान्न की कीमतें बढ़ जाएंगी. फलत: किसानों को खाद्यान्न की कम कीमतों का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है, जबकि उनके शिक्षा, इलाज और बुनियादी जरूरतों पर खर्च में सौ से दो सौ गुना तक की वृद्धि हुई है. एक किसान परिवार को औसतन हर माह महज तीन हजार रुपए से कुछ अधिक की ही आय होती है. फलत: आमदनी बढ़ाने के दूसरे विकल्पों की तलाश करना उसकी मजबूरी बन गया है. मनरेगा जैसे गैर कृषि कार्यों में लगने के बाद भी उसकी औसत मासिक आय छह हजार से अधिक नहीं हो पाती.
इसीलिए 76 प्रतिशत किसान रोजगार का विकल्प मिलने पर खेती छोड़ने को तैयार हैं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि छह दशक बाद भी 37 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में ही सिंचाई की सुविधा है, बाकी कृषि भूमि की सिंचाई उम्मीदों और प्रार्थनाओं पर निर्भर है. इतना ही नहीं, एक रिपोर्ट के अनुसार 60 प्रतिशत किसान गरीब हैं और कर्ज लेकर खेती करते हैं. वे जो कमाते हैं उसका तीस प्रतिशत कर्ज चुकाने में चला जाता है. उन्हें साहूकारों के शोषण का शिकार होना पड़ता है, क्योंकि बैंक उन्हें कर्ज देने में हीलाहवाली करते हैं. इसके उलट कृषि संबंधी सामानों (खाद, बीज, औजार, ईंधन) की कीमतें आसमान छू रही हैं. जबकि भंडार और रखरखाव की उचित व्यवस्था न होने के कारण हर वर्ष 25 से 30 प्रतिशत फसल नष्ट हो रही है. यहां तक कि खाद की 40 प्रतिशत कालाबाजारी हो रही है, जो सरकार की पोल खोलने के लिए काफी है.
कृषि क्षेत्र की उपेक्षा कर केवल औद्योगीकरण के जरिये देश के विकास की रफ्तार को बनाए रखना मुश्किल है. सरकार और नीति-नियंताओं को इस ओर गंभीरता से सोचना चाहिए. इस तरह की नीतियां बनाई जानी चाहिए ताकि किसानों की आमदनी बढ़े और खेती से उनका मोहभंग न हो. उनके उत्पाद के भंडारण के अलावा मौसम के बिगड़ैल रूख से बचाने के लिए फसल बीमा योजना को प्रभावी बनाने की जरूरत है. एसोचैम के अनुसार महज 18 प्रतिशत किसान ही अपनी फसल का बीमा कराते हैं. इसका प्रमुख कारण कम बीमा राशि और किसानों के पास प्रीमियम देने के लिए पैसे की कमी है. इसलिए सरकार को बीमा नीतियों में बदलाव करना चाहिए. पूरे देश में सिंचाई का नेटवर्क बढ़ाया जाना चाहिए. साथ ही प्राकृतिक आपदाओं से फसल बर्बाद होने पर पर्याप्त मुआवजे का प्रावधान होना चाहिए. अभी किसानों को मिलने वाला मुआवजा उनकी लागत से काफी कम है. इसके अलावा सरकार को भंडारण और ट्रांसपोर्ट की दिशा में द्रुतगति से काम करना होगा. उसकी पर्याप्त व्यवस्था न होने से हर साल करीब 44 हजार करोड़ की फल व सब्जियां नष्ट हो रही हैं. कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ाया जाना भी जरूरी है.
किसानों को इस बात का भी मलाल है कि उद्यमी अपने सामान की कीमत तय करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन उन्हें इसकी आजादी नहीं है. ऊपर से विकास के नाम पर उनकी जमीन छीनी जा रही है. एक अनुमान के अनुसार पिछले दस सालों में खेती की 35 लाख एकड़ जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है, किंतु उनकी माली हालत में कोई सुधार नहीं आया है. इसीलिए जमीन छीने जाने का भय उन्हें डरावने सपने की तरह बेचैन कर रहा है. प्राकृतिक मार और अविश्वास के इस माहौल में वे निराश हो चुके हैं और आत्महत्या में मुक्ति का मार्ग तलाशने लगे हैं. दिल्ली में गजेंद्र की आत्महत्या की घटना इसी की बानगी है. ऐसे में पक्ष-विपक्ष को आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से ऊपर उठकर उनकी माली हालत सुधारने की कोशिश करनी चाहिए. तभी उनके टूटे मन में बेहतर भविष्य का भरोसा जगाया जा सकेगा.
ranvijay_singh1960@yahoo.com
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