खुदकुशी रोकना किसका काम है?

Last Updated 26 Apr 2015 12:53:08 AM IST

गजेंद्र सिंह की आत्महत्या ने देश की आत्मा को झकझोर दिया है. यद्यपि अभी भी इसे लेकर एक कर्कश विवाद जारी है कि इस आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार है.


खुदकुशी रोकना किसका काम है?

लेकिन इस पर सर्वसहमति है कि गजेंद्र को बचाया जा सकता था. एकांत में आत्महत्या करना एक बात है और भीड़ के बीच पेड़ पर चढ़ कर आत्महत्या करना बिल्कुल दूसरी बात. जिस आत्महत्या को रोका जा सकता था, फिर भी नहीं रोका गया, क्या उसे हत्या नहीं कहा जा सकता है? क्या गजेंद्र की आत्महत्या को जंतर मंतर की भीड़ द्वारा की गई हत्या कहना अनुचित होगा?
दिल्ली के अखबार और टेलीविजन कार्यक्रम कई दिनों से गजेंद्र की आत्महत्या को भुना रहे हैं. जाहरि है, कोई भी घटना मीडिया के लिए खाद्य पदार्थ की तरह होती है. और, इस घटना में तो बाकायदा सनसनी के तत्व हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि आत्महत्या आप पार्टी के कार्यक्रम में हुई, जो सबसे ज्यादा जनहितैषी होने का दावा करती है. कार्यक्रम किसान रैली का था और गजेंद्र एक किसान परिवार का था. संदेह होने पर भी किसी ने इस घटना को रोकने की कोशिश नहीं की. लेकिन जो बात सभी को चुभी है, वह यह है कि एक किसान ने जान दे दी और किसान रैली बाकायदा जारी रही- दिल्ली के मुख्यमंत्री किसानों के हित में भाषण देते रहे. निश्चय ही यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा थी.

किसी घटना का महत्व इस बात में भी होता है कि हम उससे क्या सीखते हैं. ऐसा लगता है कि गजेंद्र सिंह की आत्महत्या ने लहरें तो बहुत पैदा की हैं, पर कोई भी लहर किनारे तक नहीं पहुंच सकी है. केजरीवाल ने स्वीकार किया है कि किसान की मौत के बाद उनकी सभा का जारी रहना गलत था. लेकिन इसके लिए खेद प्रगट करने की उनकी अदा देखिए- अगर इससे किसी को चोट पहुंची है, तो मैं माफी मांगता हूं... यह मृत्यु का अपमान है. क्या आत्महत्या के तीन दिन बाद भी जन-मुख्यमंत्री की, जैसा कि वे कहलाना चाहते हैं, समझ में नहीं आया कि उनके ऐसा करने से किसी को चोट पहुंची है या नहीं. यह तो बहुत साफ है कि स्वयं मुख्यमंत्री को कोई चोट नहीं पहुंची है. अगर पेड़ से लटक कर जाने वाला शख्स गजेंद्र नहीं होता, केजरीवाल के परिवार का कोई सदस्य होता, क्या तब भी उनका भाषण जारी रहता?

इतनी ही निराशाजननक प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है. किसानों का वोट पाए बिना वे लोकसभा चुनाव में इतनी भारी जीत हासिल नहीं कर सकते थे. लेकिन गजेंद्र सिंह की आत्महत्या पर संसद में उन्होंने कहा कि समस्या पुरानी है, व्यापक भी है, सबको साथ लेकर इस समस्या को सुलझाएंगे. अगर यह लफ्फाजी नहीं है, तो लफ्फाजी और किसे कहते हैं? कायदे से प्रधानमंत्री को जरूरी होम वर्क करके संसद में आना चाहिए था और बताना चाहिए था कि किसानों की आत्महत्या को रोकने के लिए उन्होंने कौन-कौन-सा कार्यक्रम सोचा है.

अब भी शक है कि वे मिल-जुल कर कोई समाधान निकालेंगे या नहीं, क्योंकि उनके वक्तव्य से इसकी तैयारी की कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती. किसानों की समस्याओं पर चर्चा करने के लिए क्या संसद का विशेष अधिवेशन आहूत किया जा सकता है? क्या केंद्र सरकार कोई किसान आयोग गठित कर सकती है, जो लगातार बैठक कर तीन महीने में अपनी रिपोर्ट दे दे?
आत्महत्याएं सब एक जैसी नहीं होतीं. कुछ अत्यंत व्यक्तिगत होती हैं, जैसे प्रेम में विफल होने के कारण की जाने वाली आत्महत्या. इस तरह की घटनाओं को रोक पाना शायद कभी संभव नहीं होगा. इसी तरह डिप्रेशन के कारण की जाने वाली आत्महत्याएं एक मानसिक बीमारी का हिस्सा हैं.

असाध्य और अत्यंत पीड़ादायक बीमारियों से त्रस्त होकर भी कई लोग आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसे मामलों में कोई नहीं जानता कि क्या किया जा सकता है. लेकिन आत्महत्याओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो समाज या व्यवस्था की देन है. जैसे, बलात्कार के बाद लड़कियों द्वारा आत्महत्या कर लेने की घटनाएं बढ़ रही हैं. स्पष्टत: इस पर सामाजिक मान्यताओं की छाया है. बलात्कृत स्त्री को लगता है कि अब उसका जीवन अपवित्र हो गया है तथा संसार में उसके लिए कोई सम्मानजनक जगह नहीं बची है. यदि ऐसा सामाजिक वातावरण बनाने की कोशिश की जाए कि जिस स्त्री के साथ बलात्कार हुआ है, उसका कोई दोष नहीं है और अब भी वह पहले की ही तरह पवित्र है, तो ऐसी आत्महत्याएं रु क सकती हैं. इसी तरह, युवा पीढ़ी के बीच यह माहौल पैदा करने की जरूरत है कि परीक्षा में असफल होना अपराध नहीं है और यह जरूरी नहीं कि सब डॉक्टर या इंजीनियर बनें. 

किसान भीतर से बहुत ही मजबूत होता है. फसल बरबाद होने से कोई एक किसान आत्महत्या कर ले, तो यह उसकी व्यक्तिगत विफलता हो सकती है. लेकिन जब एक के बाद एक किसान आत्महत्या करने लगें, तब यह कोई निजी प्रश्न नहीं रह जाता, एक सामाजिक सवाल हो जाता है. किसान मध्ययुग का अवशेष नहीं है, वह एक ठोस सचाई है. लोगों ने किसानी को नहीं चुना है, किसानी ने लोगों को चुना है. यदि अन्य प्रकार के रोजगार सुलभ होते हुए भी कोई किसानी नहीं छोड़ रहा है, तो इसके लिए उसे दोषी ठहराया जा सकता है. पर किसान की समस्या यह है कि वह खेत छोड़कर कहां जाए. इसलिए किसान को आत्महत्या न करनी पड़े, इसके उपाय निकालना समाज का ही काम है. जो समाज ऐसा करने में असमर्थ है या इस बारे में सोचने तक का कष्ट नहीं उठाता, क्या वह समाज बर्बर नहीं है? एक बर्बर समाज की सरकारें ही इतनी बर्बर हो सकती हैं कि किसानों का मरना उनके लिए वास्तविक चिंता का विषय न हो.

राजकिशोर
लेखक


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