उजड़ों को बसाना राष्ट्र-राज्य का दायित्व

Last Updated 26 Apr 2015 12:48:44 AM IST

मूल निवास छोड़ना बड़ी पीड़ा देता है. घर के अपनत्व-ममत्व का घनत्व बहुत गहरा होता है.


उजड़ों को बसाना राष्ट्र-राज्य का दायित्व

नौकरी या रोजगार के लिए घर छोड़ना अच्छा लगता है तो भी घर छोड़ने में दुख होता है. अपनी सुखद इच्छापूर्ति के लिए भी घर या मूल स्थान छोड़ना दुखी करता है. फिर जोर जबरदस्ती या असुरक्षा, हत्या की आशंका में घर छोड़ना कितना त्रासद होगा! घर सुरक्षा है. आस्ति भी है. कश्मीरी पंडितों का घर, मूल स्थान जबरदस्ती छोड़वाया गया है. उनकी पुत्रियां घर के भीतर भी सुरक्षित नहीं रह सकीं. धर्म विशेष का होने के कारण उनकी संपदा, प्रतिष्ठा और सामान्य दिनचर्या भी सुरक्षित नहीं रह सकी. उन्हें घर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया. संविधान, लोकतंत्र और विधि व्यवस्था मिमिया गई. भारतीय राष्ट्र की ऐसी असफलता आश्चर्यजनक है. सेकुलरवाद मरगिल्ला सिद्ध हुआ. सेकुलरवादी कश्मीरी पंडितों की व्यथा पर मौन रहे. कश्मीरी पंडित मारे-मारे फिरते रहे.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने कश्मीरी पंडितों को घाटी में बसाने का निश्चय किया है. गृहमंत्री राजनाथ सिंह सक्रिय हैं. अब तक मौन रहे ढोंगी सेकुलर विलाप में हैं. कश्मीरी पंडितों को जान बचाते, भागते, बिलखते, यहां-वहां रोते देखने के बावजूद ढोंगी सेकुलर मजे में थे. लेकिन अब उनके पुनर्वास के लिए प्रस्तावित योजनाओं में मीन-मेख निकाल रहे हैं. तर्क है कि कश्मीरी पंडितों की अलग कालोनियां बनाने से सामाजिक तानाबाना बिगड़ेगा, कि उन्हें अलग बसाने से कश्मीर की छवि खराब होगी. आदि आदि. वे भागे-भागे, मारे-मारे फिरें तो छवि ठीक. वे घर लौट आएं, एकत्रित रहे, उपासना, प्रार्थना और एकांतिक सामूहिक उपासना करें तो सेकुलर प्रसव वेदना. वे मारे जाए, स्त्रियां छेड़खानी की शिकार हों तो कश्मीर की छवि को कोई बट्टा नहीं. लेकिन वे अपनी मातृभूमि में फिर से लौटें, पृथक घरों में रहें तो अनुचित. आखिरकार ऐसे सिद्धांतकार चाहते क्या हैं? क्या उन्हें फिर से चारा बनाकर अराजक तत्वों के बीच छोड़ा जाना? क्या उन्हें सारे देश से बुलाकर फिर से कश्मीर लाकर पहले की तरह पीटा जाना? क्या उनकी समूची अस्मिता को ही नष्ट करने के लिए मवालियों, बवालियों के सामने फिर से परोस दिया जाना?

राजनीतिक या वैचारिक सामाजिक कार्यकर्ता इहलौकिक या सेकुलर ही होते हैं. हमारा सौभाग्य है कि भारत का धर्म भी भौतिकवादी ही है. लेकिन ऐसे सेकुलरवाद से घिन आती है. कश्मीरी पंडित मारे जाएं, घर छोड़ने को विवश किए जाएं, वे मारे-मारे फिरें तो कश्मीर या देश की छवि पर कोई असर नहीं पड़ता! लेकिन वे लौटें, उनकी कालोनी अलग बनें तो हाहाकार. रूदन, विलाप लेकर तमाम व्याख्याकार हाजिर हैं. ऐसे लोग उन्हें हर हाल में कश्मीर लौटाने को प्रथम वरीयता नहीं देते. कश्मीरी पंडितों को कश्मीर प्रिय है. उस जमीन में उनके पूर्वजों की अस्थियां हैं. इसी जमीन पर कभी पिप्पलाद ने देश के कोने-कोने से आए छह जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर दिए थे. प्रश्नोपनिषद् इन्हीं छह जिज्ञासुओं के प्रश्नों व पिप्पलाद के उत्तरों का शब्द-प्रसाद है. जम्मू कश्मीर पृथक अस्मिता नहीं है. यह जम्मू कमीर कश्मीरी पंडितों का भी है. वे अपने ढंग से जिएं. वे भी मानवाधिकारों का उपभोग करें और सबसे मिलकर रहें. ऐसा संभव क्यों नहीं हो सकता?

जम्मू कश्मीर भारत का सौंदर्य है. अभिन्न अंग. बंगलुरु, मुंबई, लखनऊ  या दिल्ली भी कश्मीरियों के हैं, वे यहां आएं, हम उत्तर वाले वहां जाएं. वे यहां रहें. हम वहां रहें. भारत एक अखंड इकाई है. कश्मीर इसका अंग है. उसे अलग-थलग रखने का औचित्य क्या है? कश्मीर में भयानक बाढ़ आई. प्रधानमंत्री मोदी ने खजाना खोल दिया. इसलिए कि कश्मीर घाटी भी पूरे देश का ही स्पंदन है. कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास जरूरी है. अलग रहें, मिलकर रहे, मिलाकर रखे जाएं- यह बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं. महत्वपूर्ण बात है उनका पुनर्वास. उनके मारे-मारे फिरने से राष्ट्र-राज्य की असफलता सिद्ध हुई है. उनके पुनर्वास में ही राष्ट्र-राज्य की सफलता है. जो लोग इस काम में टांग अड़ा रहे हैं वे भारत के शुभचिंतक नहीं हैं. वे मनुष्यता के प्रति भी प्रतिबद्ध नहीं जान पड़ते.

हृदयनारायण दीक्षित
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment