वर्षा जल सहेजना समय की जरूरत

Last Updated 25 Apr 2015 02:12:19 AM IST

सौ साल के आंकड़ों के मुताबिक मौसमी इतिहास में बहुत कम मौके ऐसे रहे जब लगातार दो साल तक अल नीनो सक्रिय रहा हो.


वर्षा जल सहेजना समय की जरूरत

पर हाल में अल नीनो की सक्रियता को लेकर आई खबरों ने नीति-नियंताओं की सांसें अटका दी हैं. हाल में ऐसी भविष्यवाणियों का सिलसिला मौसम का पूर्वानुमान घोषित करने वाली एक प्राइवेट कंपनी (स्काईमेट) की घोषणा से शुरू हुआ था. इसने कहा था कि इस साल मानसून सीजन की बारिश का दीर्घकालिक औसत (लॉन्ग पीरियड एवरेज) 102 फीसद रह सकता है. कहने को तो यह पूर्वानुमान अच्छा संकेत माना जाएगा, पर साथ ही इस कंपनी ने यह भी कहा कि इस दौरान मामूली जोखिम अवश्य बना रहेगा.

यानी हो सकता है कि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में कम बारिश हो. असल में, मानसून की वर्षा इस पर भी निर्भर करेगी कि पूर्वी भारत के समुद्री तट ठंडे रहते हैं या गर्म. गौरतलब है कि पिछले साल मानसून की देसी-विदेशी भविष्यवाणियों को भारतीय मौसम विभाग ने आरंभ में स्वीकार नहीं किया था लेकिन इस बार उसने दो कदम आगे बढ़कर कह दिया कि मानसून सामान्य से कम रहेगा. यानी जून से सितम्बर तक की अवधि में दीर्घकालिक औसत के पैमाने पर 93 फीसद बारिश होगी, जो पिछले साल 88 प्रतिशत रही थी. इस साल भी बारिश में कमी की वजह अल नीनो जैसे कारक की सक्रियता बताई जा रही है.

ऐसा कम ही हुआ है जब दो लगातार वर्षो में अल नीनो ने मानसून पर असर डाला हो, लेकिन इस साल यह आशंका बन गई है. उल्लेखनीय है कि भारतीय मानसून की चाल बदलने में असरकारक अल नीनो के बारे में पिछले 126 साल (1880-2005) के आंकड़े दर्शाते हैं कि जितनी बार यह दुनिया में सक्रिय हुआ है, उनमें से आधे से कुछ कम मौकों पर इसने हमारे मानसून को प्रभावित किया ही है. 2009 में इसी की वजह से पड़े सूखे से खाद्यान्न मुद्रास्फीति यानी अनाज की महंगाई रिकॉर्ड 20 फीसद तक जा पहुंची थी. ऐसे में भले ही हमारे अनाज गोदाम भरे पड़े हों, पर रबी की फसल की बर्बादी के बाद खरीफ का भी चौपट हो जाना देश सहन नहीं कर सकता. इस मामले में सबसे ज्यादा दारोमदार पूर्वानुमानों की सटीकता पर टिका है, क्योंकि हो सकता है आगे चलकर ये अंदाजे उतने सही न निकलें.

अत्याधुनिक तकनीक, सुपर कंप्यूटरों और आसमान में तैनात मौसमी उपग्रहों के संजाल के बावजूद मौसम का सटीक पूर्वानुमान लगा पाना मुमकिन नहीं है. इसी का नतीजा है कि न तो बाढ़, सूखे अथवा उत्तराखंड व जम्मू-कश्मीर जैसी प्राकृतिक आपदाओं पर कोई विशेष अंकुश लग पाया है और न इस सवाल का माकूल हल खोजा जा सका है कि आखिर क्यों मौसम अचानक गर्म से सर्द हो जाता है और कैसे चक्रवात पैदा होकर भारी तबाही का कारण बन जाते हैं. मुश्किल यह है कि प्राकृतिक आपदाएं जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में ही नहीं, दुनियाभर में बढ़ रही हैं. कोई भी मौसमी भविष्यवाणी हमेशा कसौटी पर सौ फीसद खरी नहीं उतरती. केदारनाथ से लेकर कश्मीर तक की घटनाओं से साबित हो रहा है कि हम जितना वैज्ञानिक प्रगति की तरफ बढ़ रहे हैं, प्रकृति का प्रकोप भी उतना ही बढ़ता जा रहा है. 

सचाई यही है कि मौसम के रुख में अचानक आने वाले बदलाव मौसम पर नजर रखने वाले तंत्र के लिए अब भी चुनौती बने हुए हैं. लाख कोशिशों के बावजूद हमारा मौसम विभाग बारिश, हिमपात और भूस्खलन की एकदम सटीक जानकारी नहीं दे पाता है. शायद इसकी एक बड़ी वजह तो यह है कि हम वैज्ञानिक तौर-तरीकों पर इतने अधिक आश्रित हो गए हैं कि मौसम के पूर्वानुमान के सदियों पुराने देसी तरीकों को हमने बिल्कुल भुला दिया है.

इस समस्या के दो ऐसे बिंदु हैं जिन पर कार्य करके मौसम के ज्योतिषी यानी वेदर फॉरकॉस्ट करने वाली एजेंसियां अपनी भविष्यवाणी को दुरु स्त कर सकते हैं. जैसे, अभी मौसम के पूर्वानुमान के लिए किसी इलाके के 35 वर्ग किमी के दायरे में तापमान और बादलों-हवा की चाल से संबंधित तथ्यों-आंकड़ों का विश्लेषण किया जाता है, यदि उसे घटाकर 10 या 20 वर्ग किमी के दायरे में ले आया जाए, तो शायद मौसम की अधिक सटीक जानकारी दी जा सकती है. इसी तरह अभी मौसम विभाग सिर्फ  तीन दिन पहले तक का ही पूर्वानुमान पेश कर पाता है, क्योंकि अभी उसके पास केवल 15 डॉपलर रडार देश के विभिन्न इलाकों में मौजूद हैं जो बादल, धूल, नमी और बारिश की ज्यादा सूक्ष्म जानकारियां दे सकते हैं.

फिलहाल एक अच्छी सूचना यह है कि मौसम विभाग और भूविज्ञान से संबंधित मंत्रालय ने अगले तीन साल के भीतर हिमालयी इलाकों में 95 करोड़ रु पए की लागत से 9 नए डॉपलर रडार, 18 माइक्रो रेन रडार, 7 अपर एयर ऑब्जर्विंग सिस्टम और 230 ऑटोमैटिक वेदर स्टेशन स्थापित करने की योजना पर अमल करना शुरू कर दिया है. इसका सीधा फायदा यह होगा कि मौसम विभाग देश के किसी भी क्षेत्र, खासतौर से पर्वतीय इलाकों में 5 दिन पहले ही मौसम का सटीक पूर्वानुमान लगाने की स्थिति में आ जाएगा. इन उपायों से हमारा मौसम विभाग भी अमेरिकी और यूरोपीय देशों की तरह मौसम की ज्यादा सटीक भविष्यवाणी करने के करीब पहुंच जाएगा.

ये तब्दीलियां देश को काफी राहत दे सकती हैं क्योंकि आज भी ज्यादातर इलाकों में रहने वाले हजारों लोगों को अपने जीवन में सबसे ज्यादा संघर्ष मौसम की प्रतिकूल स्थितियों से निपटने के लिए करना पड़ता है. एक जरूरी तब्दीली बारिश के बदलते पैटर्न के हिसाब से फसल उत्पादन का चक्र सुधारने और अन्य व्यवस्थाएं बनाने में भी होनी चाहिए. हम इस सचाई से मुंह नहीं फेर सकते कि अल नीनो जैसी चेतावनियां हमारे देश के लिए इसीलिए समस्या हैं क्योंकि मानसून पर हमारी निर्भरता कम नहीं की जा सकी है. आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी हमारे योजनाकारों ने मानसून के पैटर्न में बदलाव की घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया है. यही वजह है कि किसी साल सूखे के बाद भारी वर्षा होने से शुष्क क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है, तो किसी साल पूरा मानसून सीजन बारिश की आस में ही बीत जाता है. आज भी हमारे पास इसकी कोई ठोस योजना नहीं है कि देश के किसी एक इलाके में आई बाढ़ से जमा हुए पानी का क्या किया जाए, कैसे उसे उन इलाकों में पहुंचाया जाए जहां उसकी जरूरत है.

विडंबना यह है कि देश में वर्षा आधारित फसलों पर से अपनी निर्भरता कम करने का कोई प्रयास होता नहीं दिखाई दे रहा है. वर्षा के दौरान नदी-नालों में बहकर यूं ही बर्बाद हो जाने वाले पानी के संग्रहण की कोई उचित व्यवस्था देश में अब तक नहीं बन पाई है. यह एक तथ्य है कि असामान्य सूखे की स्थिति में भी राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों को छोड़कर 100 से 200 मिमी बारिश तो होती ही है. खराब मानसून के दौरान पहाड़ों में भी 400-500 मिमी बारिश हो ही जाती है, जो अच्छे मानसून के दौरान बढ़कर 2,000 मिमी के आंकड़े तक पहुंच जाती है. इस तरह वर्षा से मिलने वाले पानी की मात्रा सिंचाई और पेयजल की हमारी कुल जरूरतों के मुकाबले कई गुना ज्यादा होती है. गांवों में औसतन जितनी वर्षा होती है, यदि उसका महज 14-15 फीसद हिस्सा सहेज लिया जाए तो वहां सिंचाई से लेकर पेयजल तक की सारी जरूरतें पूरी हो सकती हैं. ऐसे प्रबंध बड़े पैमाने पर हों, तो न अल नीनो का भय सताएगा और न ही सिंचाई और पीने के पानी के संकट से जूझना पड़ेगा.

अभिषेक कुमार
लेखक


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