लापता बच्चों का अंधेरा भविष्य

Last Updated 25 Apr 2015 02:04:42 AM IST

देश भर में गुम होते बच्चों पर शीर्ष अदालत ने सरकार को हाल में फटकार लगायी. न्यायालय ने कहा, ‘देश में बच्चे गुम हो रहे हैं.


लापता बच्चों का अंधेरा भविष्य

इस पर आपका रवैया इतना सुस्त कैसे हो सकता है? और आपका सचिव सिर्फ चिट्ठियां लिख रहा है...’ न्यायालय ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय पर 50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया. कारण, न्यायालय ने मंत्रालय से इस साल 31 मार्च तक गुमशुदा बच्चों की जानकारी मांगी थी जिसे वह नहीं दे सका. न्यायालय इससे भी खफा था कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष समेत कई अहम पद खाली पड़े हैं. कानून के तहत अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति पद खाली होने के नब्बे दिन के भीतर हो जानी चाहिए. महिला व बाल विकास मंत्रालय को 30 दिन में इस दिशा में काम करने के निर्देश दिए गए हैं.

सवाल है कि न्यायालय के इस संज्ञान के बाद भी लापता बच्चों के का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है. जुलाई आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष औसतन एक लाख बच्चे लापता हो रहे हैं. ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के अनुसार जनवरी 2008 से जनवरी 2010 के बीच देश भर के 392 जिलों में 1,14,480 बच्चे लापता हुए. बचपन बचाओ आंदोलन ने अपनी किताब ‘मिसिंग चिल्ड्रेन ऑफ इंडिया’ में कहा है कि उसने ये पंजीकृत आंकड़े 392 जिलों में आरटीआई दायर कर हासिल किए हैं. इस भयावह स्थिति के बावजूद दिल्ली पुलिस के एक उच्च पदस्थ अधिकारी की ओर से परिपत्र भेजा गया था कि गायब या अपहृत मामलों में अंतिम रिपोर्ट लगाने की समयावधि तीन के बजाय एक साल कर दी जाए.

स्पष्ट है कि पूर्व में किसी बच्चे के गायब या अपहृत होने के बाद कम से कम तीन साल तक उसका मामला पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज रहता था. इस पर दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने आपत्ति दर्ज करते हुए रेखांकित किया कि मामलों की संख्या कम करने के लिए पुलिस ऐसा मनमाना आदेश नहीं निकाल सकती क्योंकि बच्चे के यौन व्यापार में लिप्त गिरोह के चुंगल में फंसे होने की प्रबल आशंका होती है. ऐसे में पुलिस ने एक साल के बाद ही फाइल बंद कर दी तो जांच अधूरी रह जाएगी. इस एतराज के बाद दिल्ली पुलिस ने वह परिपत्र रद्द कर दिया.
इसमें दो राय नहीं कि बच्चों के लापता होने की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए राष्ट्रीय नेटवर्क की आवश्यकता है जो लापता होने का ब्यौरा गंभीरता से दर्ज करे और उनकी वापसी को भी वरीयता के आधार पर दर्ज करे.

निठारी कांड के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पीसी शर्मा की अगुआई में एक समिति का गठन किया था. समिति द्वारा सुझाई गई सिफारिशों को गंभीरता से लिया जाता तो नौनिहालों की स्थिति इतनी दारुण न होती. समिति का यह सुझाव आज भी प्रासंगिक है कि बच्चों के लापता होने की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो को राष्ट्रीय पहचान तंत्र गठित करना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल औसतन साढ़े चौवालीस हजार बच्चे गुम हो जाते हैं. उनमें से कई यौन-शोषण के अड्डों, भीख मंगवाने वाले या मानव अंगों की तस्करों के पास पहुंचा दिए जाते हैं.

गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में हर साल 72 लाख बच्चे बाल दासता का शिकार होते हैं. इनमें एक तिहाई दक्षिण एशियाई देशों के होते हैं. भारत में बाल-व्यापार में धकेले जा रहे बच्चों की कोई संख्या उपलब्ध नहीं है परन्तु स्थिति की गंभीरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि देश के विभिन्न थानों में हर साल करीब सात लाख बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज होती है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग हर वर्ष ‘एक्शन रिसर्च ऑन ट्रैफिकिंग इन वुमेन एंड चिल्ड्रेन’ रिपोर्ट जारी करता है जिसमें कहा जाता है कि जिन बच्चों का पता नहीं लगता, वास्तव में वे लापता नहीं होते. बड़ी संख्या को ऐसे बच्चों को यौन पर्यटन के कारोबार में धकेल दिया जाता है. 

भारत में बच्चों की तस्करी के व्यापार में सामाजिक-आर्थिक कारण ही मुख्य भूमिका निभा रहा है. गरीबी, अशिक्षा, रोजगार का अभाव, भविष्य के लिए सुरक्षा व्यवस्था का न होना आदि कारणों से कई बार बच्चे  मजबूर होकर स्वयं निकलते हैं या फिर अभिभावक उन्हें बाहर भेजते हैं लेकिन उनमें से अनेक तस्करों के जाल में फंस जाते हैं. इस अवैध कारोबार को रोकने के लिए कड़े कानून की बात की जाती रही है.

इसके लिए सुयंक्त राष्ट्र का यूएन कन्वेंशस अगेन्स्ट ट्रांसनेशनल ऑग्रेनाइज्ड क्राइम (द पालेर्मो प्रोटोकॉल) है.  गायब होते बच्चों की संख्या में तब तक कमी नहीं आएगी जब तक कानून परिचालन संस्थाएं और न्याय देने वाली एजेंसियां ईमानदारी से सक्रिय नहीं होतीं. कानून परिचालन की एक मुख्य खामी यह भी है कि मानव तस्करों और शोषण करने वालों के बारे में आंकड़े और जानकारी नहीं रखी जाती. यही कारण है कि अपराधी बेखौफ काम को अंजाम देते हैं.

लापता बच्चों का न मिलना उन अभिभावकों की अंतहीन पीड़ा है जिन्हें जीवनपर्यत अपने बच्चे से अलग हो जाना पड़ता है. इसलिए जरूरी है कुछ ऐसे नए आयामों की ओर दृष्टि डाली जाए जो गुमशुदा बच्चों को तलाशने में मददगार हो सकें. इस दिशा में सोशल मीडिया निर्णायक भूमिका निभा सकता है. इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग ने वेब पोर्टल का सुझाव दिया है जहां नागरिक, माता-पिता और अभिभावक लापता बच्चे की रिपोर्ट कर सकते हैं.

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र की सहायता से बच्चों की खोज के लिए ‘खोया-पाया’ पोर्टल के निर्माण का प्रस्ताव दिया है. किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2000 और अधिनियम 2012 सक्षम प्राधिकारी की अनुमति बिना लापता बच्चों के बारे में जानकारी के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाता है इसलिए मंत्रालय ने बच्चों के सरंक्षण संबंधी विभिन्न मुद्दों का समाधान करने और उनके अधिकारों का उल्लंघन न हो सके यह सुनिश्चित करने के लिए समिति का गठन किया है. प्रस्तावित वेब पोर्टल ‘खोया पाया’ विकास की प्रक्रिया में है.

गुमशुदा बच्चों के प्रति जनजागृति के प्रयास हमारे यहां लगभग शून्य हैं जबकि 25 मई को लापता बच्चों की तलाश के निमित्त अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है. इसका उद्देश्य बच्चों की गुमशुदगी रोकने के नये तरीके खोजना है. यह दिवस मनाने की पहल अमेरिका में गुमशुदा और शोषित बच्चों की तलाश के लिए स्थापित अंतरराष्ट्रीय केन्द्र द्वारा 2012 में की गई थी. बच्चे देश-समाज की बुनियाद होते हैं. उनके प्रति संवेदनहीनता भविष्य के लिए घातक है, इसलिए बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षण को प्राथमिकता मिले.

ऋतु सारस्वत
लेखक


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