किसके भरोसे!

Last Updated 25 Apr 2015 02:01:10 AM IST

लीजिए, अब किसानों के हमदर्द होने का दावा करने वाले गडकरी जी के पीछे पड़ गए. कह रहे हैं कि गडकरी जी ने किसानों के जख्म पर नमक मल दिया है.


किसके भरोसे!

वैसे हमें तो यह बिल्ली के खिसिया कर खंभा नोंचने का ही मामला ज्यादा लगता है. वर्ना कहां परिवहन मंत्री और कहां किसान! जब मंत्री नहीं थे तब भी गडकरी जी बिजनसमैन जरूर थे, पर किसानों और खेती से उनका दूर-दूर तक का नाता नहीं था.

अब अगर इस बार फसल पर बेवक्त की बारिश की मार पड़ गयी, ओलों से फसल चौपट हो गयी, तो इसकी नाराजगी परिवहन मंत्री पर निकालने की कोशिश क्यों की जा रही है! किसी मंत्री सिर पर ऐसे ठीकरा फोड़ना तो न्याय नहीं है. पर देख लीजिए, भाई लोग गडकरी जी के पीछे पड़े जा रहे हैं. दलील यह है कि जब कोई मदद देनी ही नहीं है, तो खाली-पीली उपदेश क्यों दे रहे हैं?

बेशक, परिवहन के ही सही, मंत्री हैं तो उनका लोगों को इसके लिए आगाह करने का अधिकार तो बनता है कि सरकार के ही भरोसे न रहें. हम तो कहेंगे कि मंत्री के नाते उनका यह कर्त्तव्य भी बनता है कि पब्लिक को किसी मुगालते में न रहने दें. आखिर, पब्लिक को हमेशा तो मुगालते में नहीं रखा जा सकता है. अच्छे दिनों के वादे की तरह, बाद में पब्लिक वादे पूरे न होने की शिकायतों पर उतर आती है और मुगालते गले की फांसी बन जाते हैं. जब कुदरत और किसान के झगड़े में सरकार को कुछ करना ही नहीं है, तो नाहक उम्मीद बंधाकर बाद में किसी को शिकायत का मौका भी क्यों दे? फिर भी, मंत्री जी का यह कहना तो समझ में आता है कि किसान सरकार के भरोसे न रहें लेकिन, उन्होंने यह क्यों कहा कि किसान भगवान के भरोसे भी न रहें.

वैसे, गडकरी साहब ने गलत क्या कहा है? किसानों को आज तक सरकार के भरोसे रहकर कब क्या मिला है, जो उन्हें सरकार के भरोसे रहना चाहिए. बहुत दिनों से तो सरकारें उनसे ले ही रही हैं. उनका पानी, उनके बीज, उनकी पैदावार और अब जमीन भी. सुनते हैं अब तो सरकार को किसानों की तरक्की का नया मंतर ही मिल गया है. किसानों की जमीन ली जाएगी, तभी तरक्की आएगी. जो जमीन नहीं लेने दे, जो जमीन से चिपका रहे, जो खेत को खेत ही बनाए रखने की जिद करे, वही तरक्की का दुश्मन. मिट्टी का मोल मिट्टी बनाए रखने वाला, किसानों का हमदर्द कैसे हो सकता है? बात में दम है. सच पूछिए तो किसानों की सारी तकलीफों का शर्तिया इलाज यही है.

खेत, खेत है, खेती, खेती है, किसान, किसान है, इसीलिए तो कर्ज में डूबा है. इसीलिए तो खेती खिलाती नहीं, खाती है. इसीलिए तो फसल के दाम गिरें तो, बेमौसम बारिश हो तो, ओले बरसें तो, बारिश न हो तो, मरता किसान ही है. किसान, किसान ही नहीं रहेगा तो किसानों की तकलीफों का पिटारा भी हर वक्त नहीं खुला रहेगा. और तो और, अमेरिका को भारतीय किसानों को दी जा रही सब्सिडियों पर शोर भी नहीं मचाना पड़ेगा.

खैर, गडकरी साहब ने यह तो बताया कि किसानों को सरकार और भगवान, दोनों के ही भरोसे नहीं रहना चाहिए. वर्ना उनकी वाट उसी तरह से लगती रहेगी जैसे अब लग रही है. लेकिन, उन्होंने यह नहीं बताया कि किसानों को किस के भरोसे रहना चाहिए.

बेशक, उन्होंने नयी प्रौद्योगिकी, खेती के तरीकों के विकास आदि की जरूरत भी बतायी है. वह सब तो ठीक है, लेकिन किसान क्या सचमुच प्रौद्योगिकी के भरोसे रह सकते हैं? बैटरी रिक्शा की तरह खेती की नयी प्रौद्योगिकी में उनका कोई कारोबारी हित न हो तब भी, प्रौद्योगिकी जितनी नयी होती है, उतनी ही महंगी पड़ती है. और अगर पैदावार के पूरे दाम न मिलें या फसल ही मारी जाए, तब तो महंगी प्रौद्योगिकी किसान के लिए फांसी का और मजबूत फंदा बन जाती है. सो किसान अगर सरकार का और भगवान का भरोसा नहीं कर सकता, तो नयी प्रौद्यिगिकी के भरोसे भी नहीं रह सकता है.

तब किसान को किस के भरोसे रहना चाहिए? जवाब सरल है, किसी के नहीं. दिल्ली के जंतर-मंतर पर रैली के दौरान पेड़ पर फंदा लगाकर लटक गये गजेंद्र का किस्सा गवाह है कि किसी आप-वाप के भी नहीं. कभी किसी के तो कभी किसी के भरोसे रहकर देख लिया, कुछ नहीं बना. किसान क्यों न अब अपनी ताकत के भरोसे ही रहकर देखे. चुनाव बस रहने न रहने के बीच है.

कबीरदास
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment