पश्चिम भी समझ रहा हमारी अहमियत

Last Updated 21 Apr 2015 01:00:33 AM IST

प्रधानमंत्री बनने के लगभग दस माह बाद नरेन्द्र मोदी उत्तरी गोलार्ध के उन देशों की यात्रा पर गये जिनमें से कम से कम दो देश वैश्विक अर्थव्यवस्था व कूटनीति में खासा दखल रखते हैं.


पश्चिम भी समझ रहा हमारी अहमियत

इसलिए यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्रधानमंत्री की इस यात्रा के निहितार्थ देशहित की दृष्टि से निर्णायक होंगे. लेकिन कूटनीति जिन आयामों को लेकर चलती है, यदि वे सभी यात्रा का हिस्सा न बनें तो उसे किसी ऐतिहासिक उपलब्धि की श्रेणी में रख पाना मुश्किल होता है. सवाल है कि क्या इस यात्रा में कूटनीतिक स्तर के वे सभी आयाम शामिल थे, जो भारत की चिंता से जुड़े हैं? कुछ सवाल और भी हैं? पहला, क्या उत्तरी गोलार्ध के इन देशों से जुड़ने का हमारा दृष्टिकोण परंपरागत ही है या हम किसी नये रोडमैप के साथ इनसे जुड़ने जा रहे हैं? दूसरा भारत के समक्ष इस समय असल चुनौती क्या है? जब तक इसका उत्तर नहीं मिल जाता तब तक उपलब्धियों की चर्चा उतनी सार्थक नहीं मानी जाएगी जिसकी अपेक्षा है.

फ्रांस के साथ भारत के रिश्ते पहले से ही अच्छे रहे हैं और फ्रांस सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी दर्जा दिए जाने के पक्ष में रहा है. प्रधानमंत्री ने पेरिस, टुलुस और न्यूव चैपल, जो प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़े युद्ध स्थल हैं- की यात्रा कर इन संबंधों को सांस्कृतिक और संवेदना के धरातल पर उतारने का प्रयास किया. लेकिन इनका प्रयोग भारत के हित में कितना हो पाया, यह स्पष्ट नहीं है. हां फ्रांस की कंपनियां भारत की विकास संबंधी संभावनाओं पर दांव लगातीं अवश्य दिखीं.

भारत ने क्योंकि फिर से आर्थिक विकास की गति तेज करने में सफलता प्राप्त कर ली है  और कुछ वैश्विक संस्थाएं आने वाले दिनों में भारत को चीन से आगे दिखाने लगी हैं, इसलिए फ्रांसीसी कंपनियों की भारत में दिलचस्पी और भी बढ़नी चाहिए. लेकिन लगता है कि फ्रांस की ज्यादा दिलचस्पी भारत को रक्षा हथियार बेचने में है, क्योंकि उनका मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स मंदी की ओर जाता दिख रहा है. वैसे भी फ्रांस भारत के साथ रक्षा संबंधों को लंबे समय से मजबूत करता हुआ दिख रहा है, जैसा ‘शक्ति’ नाम का संयुक्त सैन्य व ‘वरुण’ नामक नौसैन्य अभ्यास देखकर कहा जा सकता है.

यही नहीं, फ्रांस भारत को अधुनातन हथियारों की आपूर्ति करने वाले शीर्ष देशों में शामिल है. ऐसे में लड़ाकू राफेल विमान सौदा इस साझेदारी को और पुख्ता बनाएगा. शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस के 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने संबंधी समझौता किया है, अन्यथा इस सौदे की पेचीदगियों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए थी. इसमें संशय नहीं कि राफेल के आने से भारत के फाइटर स्क्वैड्रन की ताकत बढ़ जाएगी, जो लगातार कम हो रही थी लेकिन इस विमान सौदे को लेकर कुछ सवाल उठ रहे हैं और उसकी मुकम्मल वजहे हैं इसलिए उनका समाधान भी होना चाहिए था.

सरकोजी युग की समाप्ति और होलांद के समाजवादी मॉडल की शुरुआत के बाद, भारत के फ्रांस के साथ रिश्ते स्टैंडबाइ मोड पर चले गये थे जिन्हें फिर से सक्रिय करना जरूरी था. हालांकि फ्रांस के साथ भारत परमाणु ऊर्जा और रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समझौते कर चुका है लेकिन भारत की फ्रांस से व्यापारिक साझेदारी बहुत कमजोर है. उल्लेखनीय है कि फ्रांस के 8000 अरब यूरो के ग्लोबल व्यापार में भारत का हिस्सा मात्र 0.51 प्रतिशत है. इससे भारत की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब फ्रांस चाहता है कि भारत अपने रिटेल बाजार को पूरी तरह खोल दे.

परमाणु क्षतिपूर्ति उत्तरदायित्व कानून को नरेन्द्र मोदी सरकार पहले ही ढीला कर चुकी है इसलिए इस मोर्चों पर ठीक साझेदारी होने की संभावना है. आने वाले समय में संभव है कि रिटेल सेक्टर को और भी ओपन किया जाएगा. फिलहाल इस यात्रा के दौरान नई दिल्ली और पेरिस के बीच जिन 17 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं, विशेषकर रेलवे, स्पेस रिसर्च, परमाणु ऊर्जा, विज्ञान और तकनीकी और मैरीन टेक्नोलॉजी- उससे भारत के इन्फ्रास्ट्रक्चर, एनर्जी और रक्षा क्षेत्र को गति मिल सकती है.

रही बात जर्मनी के साथ संबंधों की तो वहां से भारत की आर्थिक जरूरतें ज्यादा पूरी हो सकती हैं. वह 12 प्रतिशत बेरोजगारी की दर से गुजर रहा है इसलिए उसकी सकल मांग घट रही है. ऐसे में उसकी कंपनियों को बाहर स्पेस चाहिए और भारत इसके लिए अनुकूल हो सकता है. यानी हमारी सरकार को भले ही लगे कि यह मेक इन इंडिया को मजबूती देने वाला है लेकिन वास्तव में यह ‘टू मेक स्ट्रांग जर्मन कम्पनीज’ के उद्देश्य को पूरा मजबूत करने वाला होगा. वैसे मर्केल का जोर पहले से ही भारतीय बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाए जाने और यूरोपीय ऑटो कंपनियों के उत्पादों पर आयात शुल्क कम करने की मांगों पर रहा है, जिन पर पिछली सरकार हामी भर चुकी थी और मोदी सरकार कुछ कदम उठा भी चुकी है.

अभी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि हैनोवर मैसे का लाभ भारत को मिलेगा. कारण, इसमें न केवल भारत के लगभग 400 लोगों ने हिस्सा लिया था बल्कि बल्कि दुनिया भर के 70 से ज्यादा देशों से लगभग 6,500 प्रदर्शकों ने हिस्सा लिया था जिसमें तमाम कंपनियों के प्रमुख कार्याधिकारी भी शामिल थे और प्रधानमंत्री ने उन पर जादू बिखेरने की कोशिश की थी. उन्होंने केवल जर्मन निवेशकों से ही भारत में निवेश की अपील नहीं की बल्कि यह भी कहा कि भारत पूरे विश्व का खुली बांहों से स्वागत करने को तैयार खड़ा है.

लेकिन, भले ही प्रधानमंत्री मोदी यह कहकर जर्मनी को लुभाने की कोशिश कर रहे हों कि किसी भी पश्चिमी देश के मुकाबले जर्मनी ने भारत के व्यापार जगत का लाभ उठाने की ओर सबसे अधिक काम किया है लेकिन जर्मनी के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अंतरिम आंकड़ों के अनुसार 2014 में जर्मनी और भारत के बीच कुल 15.9 अरब यूरो (16.8 अरब डलर) का व्यापार हुआ है और यह मात्रा पिछले तीन वर्षों से लगातार कम होती गयी है. व्यापार की मात्रा की दृष्टि से भारत इस समय जर्मनी के व्यापारिक साझेदारों में 25वें स्थान पर है.

महत्वपूर्ण यह कि इस वह रोमानिया, स्लोवाकिया, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से भी पीछे है और चीन के मुकाबले तो बहुत ही पीछे है. चीन जर्मनी का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि हैनोवर मैसे में भारत के प्रधानमंत्री विदेशी निवेशकों या दुनिया की कुछ कंपनियों के कार्यकारी अधिकारियों को कुछ समय के लिए तो रिझा सकते हैं लेकिन वास्तव में जब तक देश गुणवत्तापरक उत्पादों (क्वालिटी प्रोडक्ट्स) के क्षेत्र में पहचान नहीं बनाता, उसे बाजार प्रतिस्पर्धा या मेक इन इंडिया क्षेत्र में खास लाभ मिलने वाला नहीं है.

दोनों यूरोपीय देशों के मुकाबले कनाडा आर्थिक मोर्चों पर भारत के लिए कम उपयोगी है. लेकिन ऊर्जा साझेदारी के लिहाज से सबसे बेहतर हो सकता है. कारण, कनाडा दुनिया का दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा यूरेनियम उत्पादक देश है. प्रधानमंत्री की कनाडा यात्रा के दौरान यूरेनियम आपूर्ति को लेकर जो करार भारत-कनाडा के बीच हुआ है, उसके अनुसार अगले पांच वर्षों में भारत कनाडा से तीन हजार टन से ज्यादा यूरेनियम खरीदेगा जिसका इस्तेमाल भारत अपने परमाणु कार्यक्रम में करेगा. कनाडा की कोमेको कंपनी के साथ किये गये यूरेनियम करार के साथ कई अन्य समझौतों पर भी हस्ताक्षर हुए हैं जिनमें रेलवे, नागरिक विमानन, शिक्षा एवं कौशल विकास संबंधी समझौते भी शामिल हैं.

बहरहाल, प्रधानमंत्री की यूरोप व कनाडा यात्रा से कोई ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल होती नहीं दिख रही है, केवल परंपरागत कूटनीतिक-आर्थिक सम्बंध ही कुछ कदम आगे बढ़े हैं. फिर भी यदि भारत स्किल, टेक्नॉलॉजी, इन्फ्रास्ट्रक्चर, कार्य संस्कृति, बिजनेस इनवायरमेंट और गवर्नस के क्षेत्र में पुनरुद्धार की प्रक्रिया आरम्भ कर सके, तो इसके लाभ मिल सकते हैं. पुनरुद्धार से पूर्व बहुत ज्यादा उम्मीद करना स्थितियों की अनदेखी होगी.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

रहीस सिंह
लेखक


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