अस्थिर रोजगार और औद्योगिक परिदृश्य

Last Updated 20 Apr 2015 05:24:26 AM IST

भारतीय अर्थव्यवस्था के चालू माली साल में दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने के दावों के बावजूद रोजगार और औद्योगिक विस्तार की दर डांवाडोल है.


अस्थिर रोजगार और औद्योगिक परिदृश्य (फाइल फोटो)

इस लिहाज से अर्थव्यवस्था के आंकड़े निराशाजनक हैं. इनके अनुसार देश में महंगाई तो घट रही है, मगर रोजगार बढ़ोत्तरी की दर पिछले साल क्रमश: गिरी है. साथ ही उत्पादन और अन्य क्षेत्रों से जुड़ी कंपनियों के कारोबार में पिछले दो साल से आया ठहराव टूटने का नाम नहीं ले रहा. इस ठहराव की पुष्टि इन कंपनियों को बैंकों से ऋण का निष्पादन पिछले 18 साल के न्यूनतम स्तर पर आ जाने से हो रही है. ऊपर से बैंकों के ऋण की वसूली भी खटाई में है. बैंकों के एनपीए में पिछले साल भर में ही एक लाख करोड़ रुपए से अधिक रकम और दर्ज हो गई हैं. इसके बावजूद विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा 2015-16 में भारत की आर्थिक विकास दर पड़ोसी चीन से भी अधिक साढ़े सात-पौने आठ फीसद रहने की घोषणा फिलहाल तिलिस्मी ही लगती है.

माली साल 2014-15 के दौरान यूं तो रोजगार संवर्धन की दर कम ही रही है, मगर आठ प्रमुख क्षेत्रों में तीसरी तिमाही के आंकड़े निराशाजनक हैं. केंद्रीय श्रम संस्थान के मुताबिक अक्टूबर से दिसम्बर 2014 के दौरान 1.17 लाख नए रोजगारों की संख्या जुलाई-सितम्बर के दौरान बने रोजगार के नए मौकों से 31 हजार कम हैं. अप्रैल-जून के मुकाबले तो तीसरी तिमाही में नए रोजगारों में 65 हजार मौकों की गिरावट आई है. अमूमन अक्टूबर से दिसम्बर की तिमाही में दिहाड़ी मजदूरों की भारी मांग रहती है, क्योंकि तमाम कारखानों, कंपनियों और परियोजनाओं के लिए अपने कारोबार का सालाना लक्ष्य पूरा करने को तब सिर्फ छह महीने ही बचते हैं. इसके बावजूद साल 2014-15 में अप्रैल-जून में पैदा हुए 1.82 लाख रोजगार के नए मौकों के मुकाबले जुलाई-सितम्बर में 1.58 लाख और अक्टूबर-दिसम्बर में महज 1.17 लाख ही नए रोजगार बढ़े. इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि नए रोजगारों में कमी उन उद्योगों में दिखी जिनमें मजदूरों व कारीगरों का खासा महत्व है. ये क्षेत्र हैं वाहन निर्माण उद्योग, धातु गलाना और परिष्करण उद्योग, जवाहरात और आभूषण उद्योग, परिवहन उद्योग और हथकरघा उद्योग. इनमें अक्टूबर-दिसम्बर के दौरान बाकायदा नौकरियों में कटौती हुई है.

अलबत्ता भारतीय अर्थव्यवस्था के पारंपरिक तारणहार सर्विस सेक्टर ने पूरे एक साल बाद थोड़ी कम ही सही मगर लाज जरूर रखी है. आईटी-बीपीओ कंपनियों में इस दौरान रोजगार के 89,000 और रेडीमेड कपड़ों सहित कपड़ा उद्योग में 79,000 नए अवसर पैदा हुए. इन आंकड़ों से साल 2014-15 में फरवरी के दौरान कारखाना उत्पादन में दर्ज की गई महज पांच फीसद बढ़ोतरी के अनुमान की भी पुष्टि हो रही है. यह दर इसी साल जनवरी की वृद्धि दर के मुकाबले दुगुनी तो है, मगर मंदी में फंसी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए नाकाफी प्रतीत होती है. इससे देश में बड़े पैमाने पर रोजगार देने वाले निर्यात क्षेत्र की बदहाली का अनुमान भी सहज ही लगता है. इस अवधि में सामान्य क्षेत्र की इकाइयों में 82,000 नए रोजगार सृजित हुए, वहीं निर्यात उन्मुख इकाइयों में महज 35,000 नए रोजगार पैदा होने का अनुमान है.

आर्थिक तरक्की की राह दुष्कर होने का दूसरा सबसे बड़ा संकेत साल 2014-15 में बैंकों से कर्ज की मांग में पिछले 18 साल में सबसे कम बढ़ोत्तरी दर्ज किया जाना है. भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार साल 2014-15 के दौरान व्यावसायिक बैंकों से कर्ज की मांग की औसत बढ़ोत्तरी दर 12.6 फीसद रही है. केंद्रीय बैंक के अनुसार तीन अप्रैल 2015 को बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज की कुल राशि 70.4 लाख करोड़ रुपए आंकी गई है. यह राशि चार अप्रैल 2014 को बैंकों से इसी मद में जारी राषि 62.5 लाख करोड़ के मुकाबले 12.6 फीसद अधिक है. इसी तरह बैंकों में जमा राशियों की वृद्धि दर भी 12.6 फीसद ही अनुमानित है. जमा राशियों में सालाना बढ़ोतरी की यह दर मंदी के मारे माली साल 2013-14 में बैंकों में कुल जमा राशि में हुई 14.2 फीसद बढ़ोत्तरी के मुकाबले 1.6 फीसद कम है. इससे जहां कॉरपोरेट सेक्टर की तंगहाली का अंदाजा लगता है, वहीं मध्यवर्ग के हाथों में नकदी का टोटा पड़ने की धारणा भी पुष्ट होती है. मध्यवर्ग का यह हाल भी तब रहा जब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आयकर में सालाना करीब साढ़े पांच हजार रुपए की राहत दी थी. साथ ही आयकर मुक्त बचत राशि भी बढ़ाकर डेढ़ गुनी कर दी थी.  

इतना ही नहीं, बैंकों में जमा और कर्ज दोनों ही मदों में सालाना बढ़ोत्तरी के लिहाज से यह दर पिछले 18 साल में सबसे कम है. इसमें बस 1996-97 अपवाद है जब बैंकों से कर्ज लेने की सालाना बढ़ोत्तरी दर घटकर 9.6 फीसद रह गई थी. इसकी वजह तब कांग्रेस की बैसाखी पर बनी संयुक्त मोर्चा सरकार के कारण आर्थिक अनिश्चितता बताई गई थी. इसके बावजूद बैंकों में जमा राशि की वृद्धि दर तब भी 16.5 फीसद दर्ज की गई थी. इन आंकड़ों से यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि मोदी सरकार के तमाम दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था में तेजी आ पाना अभी दूर की कौड़ी है. बैंकों से कर्ज की मांग में बढ़ोत्तरी की पिछले माली साल की यह दर साल 2013-14 से भी सवा फीसद कम है. गौरतलब है कि साल 2013-14 को आर्थिक मंदी के नाते सबसे कठिन माना जा रहा है, क्योंकि तब आर्थिक वृद्धि दर गिर कर पांच फीसद से भी कम रह गई थी.

बैंकों से कर्ज की सालाना दर में बढ़ोत्तरी में गिरावट के इन आंकड़ों के बहाने केंद्रीय बैंक ने पिछले माली साल में अर्थव्यवस्था की पतली हालत की पोल भी खोल दी है. रिजर्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार यदि मार्च के महीने में टेलीकॉम कंपनियां स्पेक्ट्रम की नीलामी के भुगतान के लिए बैंकों से कर्ज की मोटी रकम नहीं उठातीं तो कर्ज में बढ़ोत्तरी की दर गिर कर दस फीसद के आसपास ही अटक जाती. पिछले साल बैंकों की लाज बचाने में खुदरा उपभोक्ताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बैंकों द्वारा जारी कुल कर्ज राशि में से 46 फीसद से अधिक खुदरा कर्जदारों ने ली है. इनमें उपभोक्ता सामान, वाहन और हाउसिंग लोन लेने वाले शामिल हैं.

बैंकों से अमूमन सबसे मोटी राशियों का कर्ज लेने वाले उद्योग-धंधों के क्षेत्र में कर्ज की वृद्धि दर पिछले साल बमुश्किल साढ़े तीन फीसद रही है. इसके बरक्स सीधे उपभोक्ताओं द्वारा लिए जाने वाले कंज्यूमर लोन की दर में पिछले साल 13.5 फीसद बढ़ोतरी हुई है. इससे जाहिर है कि कॉरपोरेट सेक्टर अभी तक मंदी की मानसिकता से उबरा नहीं है और अर्थव्यवस्था के तमाम बुनियादी क्षेत्रों की स्थिति अभी तक डांवाडोल है. देखना यही है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जापान, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, चीन, अमेरिका आदि से बटोरे गए पूंजी निवेश के बड़े-बड़े वायदे कब फलीभूत होंगे, क्योंकि अर्थव्यवस्था के ताजा आंकड़ों से साफ है कि देशी पूंजी नाकाफी है और मोटे विदेशी पूंजी निवेश के बगैर बड़े पैमाने पर नए रोजगार पैदा होना मुश्किल है. जाहिर है कि उसके बिना अर्थव्यवस्था का करवट लेना और आम आदमी के अच्छे दिन लाना भी नामुमकिन है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
 

अनंत मित्तल
लेखक


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