बेजा नहीं है नेताजी पर बहस

Last Updated 20 Apr 2015 05:11:52 AM IST

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम एक बार फिर बहस के केंद्र में है.


बेजा नहीं है नेताजी पर बहस (फाइल फोटो)

हाल ही में नेशनल आर्काइव की गुप्त सूची से आईबी की दो फाइलें सार्वजनिक किए जाने के बाद यह तथ्य सामने आया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू दो दशकों तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी करवाते रहे. नेताजी और उनके परिवार की जासूसी अंग्रेजी शासन में होना तो समझ में आता है, लेकिन आजाद भारत की सरकार भी ऐसा करती रही, यह देशवासियों के लिए आश्चर्य, आक्रोश और अफसोस का विषय है. इन दस्तावेजों के गुप्त सूची से हटने के बाद यह खुलासा हुआ है कि सन् 1948 से लेकर 1968 तक पंडित नेहरू, नेताजी के परिवार पर कड़ी निगरानी के लिए देश की खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल करते रहे थे. इस विषय के सामने आने के बाद नेहरू बनाम नेताजी का मुद्दा पुन: प्रासंगिक हो गया है.

वैसे तो भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में सुभाष चंद्र बोस के नाम के साथ कई रहस्य और तमाम कहानियां जुड़ी हुई हैं. सबसे बड़ा रहस्य उनकी मृत्यु को लेकर है. कोई उनकी मृत्यु साइबेरिया में बताता है, तो कोई उन्हें नब्बे के दशक तक गुमनामी बाबा के नाम से जीवित बताता है. ऐसी तमाम कहानियों के बीच तत्कालीन भारत सरकार द्वारा लगभग इस बात की पुष्टि कर दी गई थी कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु ताइवान में एक जहाज दुर्घटना में हुई थी. हालांकि इस पर यकीन करने वालों में कम ही हैं. नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत को लेकर दो-फाड़ आज भी कायम है.

खैर, अब जबकि नेशनल आर्काइव की गुप्त सूची से दो फाइलों को सार्वजनिक किए जाने के बाद यह नया मामला आया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू, नेताजी के परिवार की जासूसी करवाते थे, तो वर्तमान भारत सरकार पर उनसे जुड़ी सभी जानकारियों को सार्वजनिक करने की मांग होने लगी है. प्रधानमंत्री मोदी के जर्मनी दौरे के दौरान नेताजी के परिवार के एक सदस्य द्वारा इस आशय की मांग पर उन्होंने हर मुमकिन कदम उठाने का आासन भी दिया था. अब सरकार ने नेताजी से जुड़ी अन्य फाइलों को भी सार्वजनिक करने के संदर्भ में एक समिति का गठन कर दिया है. यानी इस बात की उम्मीद प्रबल हो गई है कि आने वाले दिनों में सरकारी फाइलों में कैद नेताजी से जुड़ीं अन्य जानकारियां भी सामने आ सकती हैं. दरअसल, कई लोग बीती बात बताते हुए इस घटनाक्रम को औचित्यहीन बताने में लगे हैं, लेकिन आज यदि यह मुद्दा बीच-बहस है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इससे यदि नेताजी की मृत्यु और उनसे संबंधित घटनाओं से परदा उठता है, तो यह बहुत अच्छा होगा.

पंडित नेहरू द्वारा नेताजी सुभाष के परिवार की जासूसी कराने का एक प्रमाण 25 नवम्बर 1957 को नेहरू द्वारा तत्कालीन विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखे पत्र से मिलता है. नेहरू ने विदेश सचिव को लिखे उस पत्र में नेताजी के भतीजे अमिय बोस के जापान दौरे के संबंध में जानकारी मांगी थी. इसका जवाब देते हुए जापान में भारत के तत्कालीन राजदूत सीएस झा ने बताया था कि अमिय बोस के जापान दौरे के संबंध में कोई भी संदिग्ध सूचना नहीं है. यानी यह पत्र अपने आप में एक प्रमाण है कि प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू द्वारा नेताजी के परिवार पर निगरानी रखी गई थी. नेताजी के भाई शरत बोस की बेटी चित्रा ने नेहरू से हुई उनकी पिता की एक मुलाकात का जिक्र करते कहा है कि कलकत्ता दौरे पर आए नेहरू उनके आवास एक-वुडवर्न पार्क पर उनके पिता से मिले थे. उस मुलाकात में नेहरू ने आंसू भरी आंखों के साथ एक आयताकार डायल वाली कलाई घड़ी देते हुए कहा था कि यह वही घड़ी है, जिसे सुभाष ने प्लेन-क्रैश के दौरान पहनी थी. इस पर उनके पिता ने साफ़ कहा था, \'जवाहर, मुझे इस प्लेन-क्रैश स्टोरी पर यकीन नहीं है और सुभाष कभी ऐसी घड़ी नहीं पहनते थे. वे सिर्फ  अपनी मां की दी हुई राउंड-डायल घड़ी ही पहनते थे.\' इस बयान के बहुत मायने हैं.

हालांकि केवल परिवार ही नहीं बल्कि और भी तमाम लोग जो नेताजी से जुड़े रहे हैं, यह मानने को तैयार नहीं हैं कि 18 अगस्त 1945 को नेताजी प्लेन-क्रैश में मरे थे. तमाम लोग यह मानते हैं कि कांग्रेस में प्रभाव और संगठन की क्षमता के मामले में नेताजी, नेहरू से कहीं आगे और ज्यादा प्रभावकारी थे. लिहाजा नेहरू को यह डर था कि कहीं नेताजी अगर वापस आए तो उनके लिए मुसीबत पैदा कर सकते हैं. अत: नेताजी के गायब होने के बाद नेहरू द्वारा उनके परिवार की हर गतिविधियों पर नजर बनाने की हर कोशिश की जाती रही. सच्चाई तो यह भी है कि आजादी के बाद भारत की खुफिया एजेंसियों द्वारा कुछ समय तक नेताजी से संबंधित जानकारियां ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई-5 के साथ साझा की जाती रहीं. यह सब किसके इशारे पर होता रहा होगा, इसके बारे में अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. कहीं न कहीं एक तरह से यह देश की संप्रभुता से समझौता करने जैसा भी था. लिहाजा यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि कौन इसके पीछे था.

जासूसी पर उठे विवाद एवं नेहरू की भूमिका पर उठे सवालों के बीच एक बहस इस बात पर भी है कि जासूसी की इस संस्कृति की परंपरा को बेशक शुरू नेहरू ने किया हो, लेकिन आगे भी इंदिरा गांधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं ने इसे अपने निजी राजनीतिक हितों के हथियार के तौर पर चलाया है. इतिहास के प्रमाण इस बात की तस्दीक करने के लिए पर्याप्त हैं कि आजादी के बाद की नेहरू-इंदिरा की कांग्रेस \'जासूसी की संस्कृति\' का पोषण करके इसे चलाती रही है. अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों को किनारे लगाने अथवा उन पर नजर रखने के लिए चाहें नेहरू हों या उनकी पुत्री पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हों, दोनों ने ही राजनीति के अंतर्गत हुए वैचारिक टकरावों को जासूसी के बूते लड़ने की संस्कृति को बढ़ाया है. आज अगर जासूसी का यह मामला सामने आया है, तो इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि खुफिया तंत्र का बेजा इस्तेमाल कर अलग-अलग कालखंडों के स्थापित नेता अपने सियासी हितों को साधते रहे हैं और इसके सहारे अपने प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करते रहे हैं.

पिछली संप्रग सरकार में भी चाहें तत्कालीन रक्षा मंत्री की जासूसी का मामला हो अथवा तत्कालीन वित्त मंत्री के दफ्तर में जासूसी का, ये सारा कुछ कांग्रेस की परंपरा से अर्जित जासूसी की संस्कृति की परिणिति रहा है, जिसे नेहरू ने नेताजी के लिए स्थापित किया था. आज जब वर्तमान सरकार द्वारा नेताजी से जुड़ी शेष फाइलों को सार्वजनिक करने की बात की जा रही है, तो इसे इस लिहाज से जरूरी एवं महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इतिहास के कलेजे में दफन उन तमाम बातों से परदा उठना चाहिए, जिनसे देश अभी तक अंजान है. देश को यह जानने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि नेताजी के साथ क्या हुआ और यदि उनके साथ कुछ गलत हुआ, तो किसने किया? जासूसी के बूते अगर नेताजी के सच को छुपाने का किसी ने प्रयास किया है, तो वह यकीनन सबके सामने आना चाहिए. नेताजी पूरे देश के नेता थे, वे स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे प्रभावी नेताओं में से एक थे. अत: उनके बारे में तमाम जानकारियां सार्वजनिक किए बिना उनके साथ न्याय नहीं किया जा सकता है.
              (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

 

शिवानंद द्विवेदी
लेखक


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