जनता परिवार का तीसरा विलय

Last Updated 20 Apr 2015 05:00:32 AM IST

इस सप्ताह उर्दू प्रेस पर जनता परिवार का तीसरी बार विलय, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस, जर्मनी व कनाडा की यात्राएं, आम आदमी पार्टी में बिखराव की झलक सबसे ज्यादा छाये रहे.


जनता परिवार का तीसरा विलय (फाइल फोटो)

इनके अलावा शिवसेना के सांसद संजय राउत का असंवैधानिक बयान और विपक्ष, मालेगांव बम धमाकों के आरोपियों साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से राहत, राहुल गांधी की घर वापसी, भाजपा व पीडीपी के बीच मसर्रत आलम की दीवार, यमन की बगावत को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें, क्यूबा और अमेरिका मधुर संबंधों की ओर बढ़े और ईरान के साथ समझौते को अंतिम रूप देने के लिए वार्ता से आशाएं जैसे मुद्दे ही अधिक छाए रहे और अनेक उर्दू दैनिकों ने इन पर संपादकीय प्रकाशित किए.

उर्दू दैनिक \'राष्ट्रीय सहारा\' ने जनता परिवार के तीसरे विलय के मुद्दे पर अपने संपादकीय में लिखा है कि जनता परिवार के विलय के नए कदम को भारत में विपक्ष को मजबूत करने की एक और हार्दिक कोशिश करार दिया जाए तो अनुचित न होगा. इसमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बसपा, आम आदमी पार्टी, बीजू जनता दल, डीएमके और अन्य छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियां शामिल नहीं हैं. चूंकि छह पार्टियों की एकता के अगुवा मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार चला रही है, जहां से लोकसभा में चुनकर 80 उम्मीदवार सांसद के रूप में पहुंचते हैं, इसलिए राजनीति में उनकी धाक और दबदबे को सभी को मानना पड़ा. मुलायम सिंह ने विलय का बिगुल बजाया था. अंत में इस पत्र ने लिखा है कि जमीनी स्थिति देखी जाए तो इन छह दलों में से सपा को उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र, जदयू और आरजेडी का सिर्फ बिहार और जद-एस का केवल कर्नाटक में प्रभाव है. अन्य दलों का, जो इस गठबंधन में शामिल नहीं हैं, कुछ राज्यों में प्रभाव है. विशेष रूप से तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, सीपीएम, वाईएसआर, आरएस और एआईयूडीएफ की उपेक्षा नहीं की जा सकती है.

उर्दू दैनिक \'इंकलाब\' ने राहुल गांधी की वापसी पर अपने संपादकीय में लिखा है कि राहुल गांधी के लौटने की खबर  जितनी महत्वपूर्ण हो सकती थी, नहीं है. यदि इस गुमशुदगी को मीडिया ने हास्यास्पद ढंग से बहस का मुद्दा न बनाया होता तो संभव है कि किसी के मन में यह प्रश्न भी नहीं उठता कि राहुल गांधी कहां हैं? स्पष्ट है कि मीडिया आज भी मोदीपरस्ती में कोई कसर नहीं छोड़ता. \'राहुल कहां हैं\' के प्रश्न द्वारा टूटी हुई कांग्रेस के अपमान के अतिरिक्त वह कुछ और नहीं चाहता था. राहुल और कांग्रेस ने उसे यह अवसर उपलब्ध करा दिया जिसके लिए निश्चय ही मीडिया उनका कृतज्ञ होगा. लेकिन 56 दिनों की अनुपस्थिति को नजरअंदाज कर दिया जाए, तब भी यह सवाल पैदा होता है कि अब क्या?

चूंकि किसी को यह सूचना भी नहीं थी कि राहुल कहां गए थे, इसलिए किसी को यह कैसे मालूम हो सकता है कि इन 56 दिनों में उन्होंने क्या किया? कांग्रेस द्वारा जो सूचना मिली वह यह थी कि वह चिंतन-मनन और आत्ममंथन के उद्देश्य से छुट्टी पर हैं. लेकिन यह काम तो अपने पद के कर्तव्यों की पूर्ति में से थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर भी किया जा सकता था. शनिवार और रविवार की छुट्टी में भी संभव था. फिर क्यों राहुल को किसी अज्ञात स्थान के चुनाव और इतनी लंबी छुट्टी की जरूरत क्यों हुई? इस प्रश्न पर विचार कीजिए तो अनुभव होता है कि वह संभवत: राजनीतिक कार्यो या सियासी जीवन और जनप्रतिनिधित्व के ढंगों की किसी विशेष ट्रेनिंग के उद्देश्य से अनुपस्थित रहे हों. चूंकि तथ्यों का ज्ञान किसी भी पत्रकार या विश्लेषक को नहीं है. इसलिए इस सिलसिले में जितनी भी बातें कही जाएंगी, सब कल्पना ही कहलाएंगी. इसलिए कयास से बचते हुए हम अपने इस प्रश्न की तरफ लौटते हैं कि 56 दिन की अनुपस्थिति के बाद अब क्या?

उर्दू दैनिक \'सहाफत\' ने जनता परिवार के विलय पर अपने संपादकीय में लिखा है कि अब जबकि जनता परिवार एक बार फिर एकत्रित हुआ है तो उसे अतीत की घटनाओं से सबक लेना चाहिए और बिखराव से बचने की भरपूर कोशिश करनी चाहिये. चूंकि नई पार्टी में कई दलों का विलय हुआ है, इसलिए सबसे पहले चुनावों में टिकटों का बंटवारा सबसे बड़ा मसला होगा. बेहतरीन स्थिति तो यही होती कि विलय के स्थान पर संयुक्त मोर्चा बनाया जाता.

 

असद रजा


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