विचार का अचार

Last Updated 19 Apr 2015 01:53:15 AM IST

यूं तो विचारधारा का अंत बहुत पहले ही हो गया था लेकिन ऐसा लगता था कि विचार अब भी बचा हुआ है.


विचार का अाचार

विचारक न बचा हो, सोच-विचार कर बोलने वाला बचा हुआ है और फिलहाल उसी से काम चलाया जा सकता है. लेकिन यह गलतफहमी जिसने बनाई थी, वही तोड़ रहा है. अपने घर बैठकर खबर चैनलों में प्राइम टाइम की बहसों को देखकर कामचलाऊ विचारों का संग्रह करने वाला मध्यवर्ग अब इस विचार से भी वंचित होने को है, क्योंकि कई चैनल अपने प्राइम टाइम की बहसों में कुछ ऐसा वातावरण बनाने लगते हैं कि विचार भी खत्म हो उठे.
जब विचार करने के लिए लाए गए पांच-सात लोग बेताबी से एक-दूसरे की बात काटकर एक साथ बोलने लगते हैं तो किसी का विचार, किसी का मत सुनाई नहीं पड़ता. एंकर देर तक हतप्रभ देखता रहता है और बाद में चीख-चीखकर सबको चुप कराने का जतन करता है. जब सब एक साथ बोलने लगते हैं तो विचार का सचमुच अचार पड़ जाता है. हम एक विचारहीन शोर से भर जाते हैं. इसी लिए कहा कि अब विचार भी मर रहा है या कहें कि मारा जा रहा है. मीडिया के लिए यह चिंतनीय प्रसंग है. यह इसलिए भी चिंतनीय है कि जिस स्तर की बहसा-बहसी होने लगी है, उसे देख हम आशंकित है कि किसी चैनल के प्राइम टाइम में ऐसा क्षण भी आ सकता है कि किसी वक्ता-प्रवक्ता और किसी एंकर के बीच हाथापाई की नौबत आ जाए. एंकर दस तरह के हैं. कोई ‘नरम’ है, कोई ‘गरम नरम’ है, लेकिन कोई ‘गरम-गरम’ भी है.

आजकल ऐसी गरमा-गरमी आए दिन दिखने लगी है. कई बार इस गरमा-गरमी की शुरुआत कोई एंकर ही करता है. कोई-कोई एंकर इस कदर बदतमीजी पर उतर आता है कि सुनने वाला आपे से बाहर हो सकता है और कुछ अशोभन सीन घट सकता है. जो देखते आ रहे हैं, उसे देख हम सिर्फ चेता रहे हैं कि इतनी गरमा-गरमी ठीक नहीं और बातचीत, बातचीत की हद में रखी जानी चाहिए.

ऐसा नहीं कि ऐसे क्षणों में सिर्फ एंकर की ही गलती होती हो. एंकर का काम तीखे सवाल पूछना है, सच को सामने लाना है और झूठ को पकड़ना है. कई एंकर तीखे सवालों को नरम करके पूछते हैं, कई एंकर सवाल पूछकर जबाव सुनकर अगले सवाल पर पहुंच जाते हैं, लेकिन एकाध एंकर ऐसे भी हैं जो हर एक की खटिया खड़ी कर अपनी ही खटिया बिछाने में यकीन करते हैं और सब दलों के प्रवक्ताओं को हराकर अकेले वही अपने चैनल पर अपना झंडा फहराने लगते हैं. यह उनको चिढ़ाता है. यही वह चीज है जिसे एंकर का ‘कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ कहा जा सकता है. अपने चैनल पर आप अपनी कहे जाएं और दूसरे से वही सुर सुनना चाहें, जो आप सुनना चाहते हैं तो एंकरी का यह तरीका पक्षपातपूर्ण ही कहलाएगा.

पिछले दिनों से अक्सर एक चैनल पर एंकर ऐसा ही बर्ताव करता नजर आता है. नतीजतन आए दिन दल का पक्ष रखने वाले प्रवक्त आरोप लगाने लगे हैं कि यह एंकरी का कोई जनतांत्रिक तरीका नहीं है. जब-जब ऐसा आरोप लगाया गया है, तब-तब एंकर ने अतिरिक्त दंभ से कहा है कि उसे किसी से पत्रकारिता सीखने की जरूरत नहीं, आप उसे पत्रकारिता न सिखाइए, वह अपना होमवर्क करके आता है. उसकी याददाश्त अच्छी है...

हम भी इस एंकर को पसंद करते हैं क्योंकि कुछ सामाजिक मसलों पर उसकी अड़ काबिले तारीफ रही है, लेकिन कभी-कभी वह बहस का संयोजन करते हुए ऐसे संकरे मोड़ पर पहुंच जाता है जहां टक्कर हो उठती है. या तो यह उसकी आदत है कि या कि ऐसा नाटक करने का उसका चस्का है कि वह हर तीसरे दिन किसी न किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से उसका इस्तीफा मांगता रहता है या उसे निकालने की मांग करता रहता है. और इस तरह अपने को ‘टीवी न्यायाधीश’ की जगह पीठासीन कर माफी न मांगने वाले को ‘अपराधी’ की कोटि में धकेल देता है. शायद  यही मुद्रा बिकती है या कहें कि आज तीखी तू तू-मैं मैं ही बिकती है. यानी कि एंकर बहस का बिजनेस करता है, सिर्फ विचार उसका विषय नहीं है.

ऐसा लगता है कि टीवी की बहसों में गरजने वाला बुद्धिजीवी आज का कुल दैनिक बौद्धिक जगत है जो आए दिन हर मुद्दे पर अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर जिस-तिस को कायल कर अपनी बात सर करता नजर आता है. इसका कारण बहसों के आयोजन का तरीका है. यह तरीका ही एंकर को व्यर्थ ही उच्च सिंहासन पर बिठाता है. जब बुद्धिजीवी टाइप दिखने वाले सात-आठ व्यक्ति; जिनमें पत्रकारों की संख्या ही ज्यादा हेाती है, अपने-अपने घरों से ओबी वैनों की कृपा से चैनल के फ्रेमों में लटके हों और एंकर से पंद्रह-बीस सेकेंड या एक-दो मिनट की याचना  करके ‘मे आई कम इन’ की गुहार लगाते रहते हैं, वहां एंकर का भाव क्यों न बढ़े? देश के नामी पत्रकार जिससे दस-दस सेकेंड की भीख मांगते फिरते हों, वह उनसे बड़ा ही हुआ. ऐसे में वह हंटरवाला ‘शोमैन’ क्या न बने?

टीआरपी की खातिर वैचारिक बहसों की भी ऐसी शोर भरी संहिता बना दी गई है जिसमें अगर आपके फेफड़े सही सलामत हैं, आप की आवाज बुलंद है और आप बोल-कुबोल में फर्क नहीं करते तो आप अपनी कह सकते हैं. आप अपनी वाक्पटुता से दूसरे को तिलमिला देने वाले कटाक्ष से अपने को बुद्धिजीवी सिद्ध कर सकते हैं.

‘सबकी बोलती बंद करने वाला’ आजकल की बहसों से ‘महान’ बन चला है. एंकर बनें यानी अच्छे संयोजक बनें. अच्छा एंकर वही है जो सबको बुलवाए और उसके पास सबको नियमित करने वाला एक बौद्धिक और नैतिक बल हो. उसे ‘सबकी बोलती बंद करने वाला’ नहीं होना चाहिए.  कल को कोई आपकी बोलती बंद करने लगेगा तब आप क्या करेंगे?

सुधीश पचौरी
लेखक


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