शून्य जमा शून्य, बराबर शून्य

Last Updated 19 Apr 2015 01:47:21 AM IST

जिन बेचारे किसानों की फसलें अतिवृष्टि और ओलों से बर्बाद हुई, उन हताश-निराश किसानों को राज्य सरकार या सरकारों ने मुआवजा दिया.


शून्य जमा शून्य, बराबर शून्य

किसी को 75 रुपए, किसी को 85 रुपए, तो किसी को 100 रुपए. यानी जिस फसल के बूते एक किसान अपने पूरे साल के खर्चों का मीजान बिठाता है और शादी, मकान-मरम्मत, कर्ज-भुगतान आदि मदों को निपटाने की योजना बनाता है और पकी बालियों को देख कुछ दिन चिंतामुक्त खुशी के गुजारता है, उस फसल की बर्बादी का मुआवजा इतना कि एक किसान परिवार दो दिन भी पूरा पेट न भर सके.

हाल ही में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के एक किसान से मेरी मुलाकात हुई. उसने कुछ वर्ष पहले बाढ़ से बर्बाद हुई अपनी फसल के एवज में मिले मुआवजे के बारे में बताया कि उसे 280 रुपए का चेक मिला था, जिसे उसके हाथ में देने से पहले 40 रुपए पटवारी ने रखवा लिए थे. अब समस्या थी चेक को बैंक में जमा करने की. बैंक में खाता खुलवाने के लिए जरूरत थी 500 रुपए की, जो उसके पास थे नहीं. वह चेक उसके पास पड़ा रहा और अंतत: रद्दी कागज में बदल गया. मुआवजा तो मिला नहीं, उल्टे जेब से 40 रुपए और निकल गए. ऐसी घटनाएं जले पर नमक छिड़कना नहीं, बल्कि घाव को कुरेदकर उसमें तेजाब भरना है. क्या किसी भी सभ्य समाज में एक सरकारी व्यवस्था अपने प्रजाजन के साथ इतना भद्दा और अश्लील मजाक कर सकती है?

एक टीवी बहस में एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने स्वीकार किया कि जब भी मुआवजे की स्थिति बनती है तो पटवारी सबको बिठाकर पहले अपनी कटौती तय करता है और इसी के आधार पर रिकार्ड में दर्ज होता है कि किसका कितना नुकसान हुआ. भरपूर नुकसान वाले ने कटौती नहीं दी तो कोई मुआवजा नहीं, और बिना नुकसान वाले ने कटौती दे दी तो भरपूर मुआवजा. यह स्थिति एक राज्य या एक क्षेत्र की नहीं है. सरकार चाहे गांधी-नेहरू की विरासत के बल पर आई हो, लोहिया के नाम पर या अंबेडकर के नाम पर या राष्ट्रवाद के नाम पर या क्षेत्रवाद के नाम पर; सबका सरकारी तंत्र काम इसी तरह करता है- फिर चाहे वह शिवराज सिंह का मध्य प्रदेश हो या अखिलेश का उत्तर प्रदेश. अफसरशाही का चरित्र वैसा ही रहता है- क्रूर और असंवेदनशील.

आखिर अफसरशाही का चरित्र क्यों नहीं बदलता? सरकारें बदल जाती हैं मगर अफसरशाही की नीति-रीति वही बनी रहती है, आखिर क्यों? और अफसरशाही के इस चरित्र के रहते क्या आम जनता को सचमुच कोई राहत संभव है? दरअसल जिस राजनीति के साये तले अफसरशाही का यह संवेदनाविहीन क्रूर चरित्र विकसित हुआ है, वह इस चरित्र को बदलने के प्रति कभी भी गंभीर नहीं रही. अफसरशाही का यह चरित्र राजनीति के अपने चरित्र का हिस्सा है. चुनावी राजनीति के लिए काली-सफेद पूंजी की जरूरत होती है और भ्रष्ट पूंजी और चुनावी राजनीति के मध्य जो अपरिहार्य आवाजाही होती है वह बड़ी हद तक अफसरशाही के माध्यम से ही होती है. इसलिए जब भी कोई राजनीतिक दल सत्ता में आता है तो भ्रष्ट पूंजी के स्रोतों पर कब्जा करने के लिए सबसे पहले अफसरशाही को अपनी जरूरतों के अनुसार ढालता है, उसमें फेरबदल करता है और उसे अपने हितसाधकों के लिए पर्याप्त सुलभ और सुगम बनाता है. अफसरशाही का यह दायित्व बना दिया जाता है कि वह जनता की नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ दल से जुड़े हुए कार्यकर्ताओं, दलालों, उद्यमियों और अन्य हित समूहों की जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करने में कोई कोताही न बरते. इसलिए कि पार्टी के खाते में धन उन्हीं लोगों से और उन्हीं की मदद से आता है. हां, इस काम के लिए अफसरशाही को, निचले स्तर के पटवारी से लेकर बड़े से बड़े अधिकारी तक, अपना कमीशन या अपना हिस्सा निकालने की पूरी छूट दे दी जाती है.

राजनीतिक दलों का चुनावी संघर्ष बेहतर, स्वच्छ, ईमानदार, पारदर्शी, निष्पक्ष और संवेदनशील प्रशासनिक व्यवस्था देने के लिए नहीं होता, बल्कि इन पर पांव रखकर प्रशासनिक व्यवस्था को निजी जागीर की तरह इस्तेमाल करने की क्षमता हासिल कर लेने और अपनी धनशक्ति को ज्यादा से ज्यादा मजबूत कर लेने के लिए होता है. इस प्रक्रिया में किसी को कुछ मिल जाए, वह उनके खाते में और जिसे कुछ न मिले उसके प्रति इनकी कोई जिम्मेदारी नहीं. यह वह दुष्चक्र है जो भारत की चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूरी तरह स्थापित हो चुका है और जिसके चलते सामान्य जनता लगातार ठगी जाती है, उपेक्षित रखी जाती है और वह अपनी समस्याओं और संकटों के बीच पिसती रहती है. उसके पास इस दुष्चक्र से बाहर आने का कोई विकल्प नहीं है. मौजूदा राजनीतिक दलों से किसी विकल्प की उम्मीद करना वैसा ही है जैसे लुटेरों से माल की रक्षा की उम्मीद करना.

हाल ही में पुराने जनता दल के पुराने घटकों का पुनर्मिलन हुआ है. पहले इनका मिलन कांग्रेस के विरुद्ध हुआ था, तब भाजपा इनके साथ थी और कांग्रेस सत्तारूढ़ थी. अब भाजपा सत्तारूढ़ है तो इनका यह मिलन भाजपा के विरुद्ध हुआ है, भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए या भाजपा से सत्ता छीनने के लिए. यह इरादा इन्होंने अपने पहले ही औपचारिक मिलन समारोह में जता भी दिया है. लेकिन यहां किसी ने भी यह इरादा प्रकट नहीं किया कि जनता को पूरी तरह भ्रष्टाचारमुक्त, जवाबदेह और संवेदनशील प्रशासन दिया जाएगा जो आपदा के मारे एक किसान को 75 रुपए का शर्मनाक चेक न दे, बल्कि उससे सहानुभूति रखे, उसके संकट को समझे और सचमुच उसे आपदा से बाहर निकाले. ऐसा इरादा न इनकी प्राथमिकता में है, न था और न होगा. इस गठबंधन के बारे में भाजपा के एक शीर्ष नेता ने गठबंधित दलों को शून्य बताते हुए कहा कि शून्य से शून्य मिला है तो परिणाम शून्य होगा. लेकिन यह नेता महोदय भूल गए कि इस देश में ईमानदार, संवेदनशील, सरोकारी राजनीति का जो महाशून्य पैदा हुआ है उसमें उनका शून्य भी शामिल है. राम जाने कब भरेगा यह शून्य!

विभांशु दिव्याल
लेखक


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