मुस्लिम महिलाओं के लिए एक सौगात

Last Updated 19 Apr 2015 01:38:52 AM IST

भारत में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम महिलाओं के बीच समानता कब कायम होगी, यह कह पाना असंभव है, क्योंकि मुस्लिम समाज में कट्टरता और मजबूत हो रही है.


मुस्लिम महिलाओं के लिए एक सौगात

भारत में मुस्लिम महिलाओं और गैर-मुस्लिम महिलाओं के बीच समानता कब कायम होगी, यह कह पाना असंभव है, क्योंकि मुस्लिम समाज में कट्टरता के पंजे कमजोर होने के बजाय और मजबूत हो रहे हैं. इस्लाम के ठेकेदार मौलवी और मुल्ला फख्र करते हैं और उचित ही फख्र करते हैं कि वह सामाजिक न्याय प्रदान करने वाला धर्म है, लेकिन यह स्वीकार करने से घबराते हैं कि सामाजिक न्याय की परिभाषा सभी युगों में एक जैसी नहीं हो सकती. यही कारण है कि मुस्लिम महिलाएं आज भी स्वतंत्रता और समानता का जीवन जीने में असमर्थ हैं. मुस्लिम मर्द के लिए वे मानो शोषण और अन्याय की प्रयोगशाला हैं.

लेकिन जैसा कि विक्टर ह्यूगो ने कहा है, जिस विचार का समय आ गया है, उसे कोई रोक नहीं सकता. सामाजिक प्रगति आधुनिक युग की एक ऐसी सच्चाई है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता. शासक या विभिन्न धर्मों के ठेकेदार चाहे जितना जोर लगा दें, उन्हें महसूस करना चाहिए कि वे एक हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. सबसे अच्छी बात है कि भारत के न्यायालय इस लड़ाई में न्याय और समानता की शक्तियों का साथ दे रहे हैं. भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस छह अप्रैल को एक ऐसा फैसला दिया है जो तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए न्याय का एक और दरवाजा खोलता है. यह फैसला न्यायमूर्ति दीपक मिश्र और प्रफुल्ल सी पंत की खंडपीठ ने दिया है.

दोनों ही जज अपनी न्यायप्रियता के लिए बधाई के पात्र हैं. उन्होंने शाहबानो फैसले के बाद राजीव गांधी की सरकार ने, मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986 के रूप में मुस्लिम औरतों के लिए जो पिंजड़ा खड़ा किया था, उसे तोड़ दिया है. इस अधिनियम के अनुसार, तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं सामान्यत: इस अधिनियम के तहत ही भरण-पोषण के अधिकार की मांग कर सकती हैं और वह भी तब जब उन्हें मेहर की रकम वापस नहीं की गई है. अधिनियम में यद्यपि उचित और तर्कसम्मत रकम का उल्लेख किया गया है, लेकिन इसका भुगतान करने की जिम्मेदारी पूर्व पति पर नहीं, पत्नी के रिश्तेदारों और अंतत: वक्फ बोर्ड पर छोड़ दी गई है. अधिनियम के तहत, तलाक के बाद पूर्व पति ने यदि मेहर की रकम लौटा दी है और वह संपत्ति भी लौटा दी है जो विवाह के समय या उसके बाद पत्नी की ओर से पति को मिली हो, तो वह इद्दत के तीन महीने के बाद, पूर्व पत्नी को भरण-पोषण देने की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है.

यह प्रावधान इस्लाम की इस मान्यता पर टिका हुआ है कि मुस्लिम विवाह एक अनुबंध है और अनुबंध टूट जाने पर दोनों ही पक्षों को अनुबंध की शतरे का पालन करते हुए एक-दूसरे को स्वतंत्र कर देना चाहिए. मुस्लिम विवाह की शर्तें क्या हैं? विवाह के समय पुरु ष, तलाक हो जाने पर, मेहर के रूप में एक निश्चित रकम देने का लिखित वादा करता है और उसकी जिम्मेदारी इस वादे को निभाने तक ही सीमित है. मानो मेहर की राशि कोई खरीद-बिक्री की रकम हो, जो सौदा टूट जाने पर बेचने वाले को लौटा दी जाएगी. यह व्यवस्था निश्चित ही तलाकशुदा मुस्लिम औरत को एक अंतहीन अंधेरी गुफा में भेज देती है. अगर वह अच्छा-खासा कमा रही है, तो वह अपना गुजारा कर लेगी, पर जिसके पास आय के साधन नहीं हैं या जो कमा नहीं सकती, उसका खुदा ही मालिक है.

यह स्थिति भारत की न्याय व्यवस्था के प्रतिकूल है. हमारे देश की क्रिमिनल प्रॉसिज्योर कोड की धारा 125 सभी असहाय पारिवारिक जनों को- पत्नी,  मां-बाप और बच्चे- गुजर-बसर का अधिकार देती है. यह अधिकार पत्नी को पति से, मां-बाप को बेटे से और संतान को पिता से गुजर-बसर मांगने को लेकर है. यह एक सिविल यानी नागरिक धारा है, जिसमें धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया है. यानी, सभी धर्मो के लोग इस धारा का लाभ उठा सकते हैं. शाहबानो को इसी धारा के तहत गुजारा भत्ता दिया गया था, जिससे मुस्लिम समाज के एक तबके को असंतोष था. इस असंतोष को दूर करने के लिए ही राजीव गांधी की सरकार ने कानून बनाया था. अच्छा होता कि राजीव थोड़ा इंतजार कर लेते. तब कोलाहल धीरे-धीरे शांत हो जाता. लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे देश की सेकुलर शक्तियां अल्पसंख्यकों के मामले में बेईमान होने तक छुईमुई हैं. अल्पसंख्यक समाज में सुधार के किसी भी कार्यक्रम को उनका समर्थन नहीं मिलता.

बहरहाल, राजीव गांधी के इस अधिनियम में मुस्लिम दंपतियों के लिए एक विकल्प छोड़ दिया गया था. यदि तलाक के दोनों पक्ष मजिस्ट्रेट की अदालत में लिख कर यह दे देते हैं कि वे क्रिमिनल प्रॉसिज्योर कोड की धारा 125 के तहत ही अपने मामले की सुनवाई चाहते हैं, तो उन पर यही धारा लागू होगी- मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) ऐक्ट नहीं. लेकिन कौन पुरु ष अपनी जिम्मेदारी बढ़ाने को तैयार होगा? न्यायमूर्ति दीपक मिश्र और प्रफुल्ल सी पंत की खंडपीठ का ताजा फैसला इस अन्याय को दूर करने में सहायक होगा.
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस नजरिए से क्रांतिकारी है कि शाहबानो केस के बाद मुस्लिम निजी कानून पर जो राजनीति हुई थी, उसे यह धोकर साफ कर देता है तथा मुस्लिम महिलाओं को देश की अन्य महिलाओं के साथ एक पंक्ति में रखता है. आशा है, इससे समान सिविल कानून की ओर बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी- बशत्रे सेकुलर लोग वास्तव में सेकुलर होने का साहस कर सकें.

राजकिशोर
लेखक


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